ज़ी न्यूज़ पर दस बजे 'बड़ी ख़बर' लेकर आते हैं पुण्यप्रसून वाजपेयी। बढ़ी हुई दाढ़ी, हथेली रगड़ते, कुटिल मुस्कान के बीच बहुत जानकार लगते हैं 'बाबा' (चैनल के बीच पीठ पीछे इसी नाम से मशहूर)। बेशक हैं भी। कल दारा सिंह पर इतनी सारी जानकारियां लेकर आए थे कि लगा दारा सिंह पर कोई अच्छी किताब हमने पढ़ ली। इंदिरा से रिश्ते, जवाहरलाल नेहरू से रिश्ते, अमिताभ बच्चन से रिश्ते, सब पर जानकारी। सवाल ये नहीं कि (ये बाबा का तकियाकलाम भी है) इस प्रोग्राम में क्या था, सवाल ये था कि क्या सचमूच कल रात दस बजे यही बड़ी ख़बर थे। सिर्फ इसीलिए कि बाबा की दिमागी विकीपीडिया में दारा सिंह से लेकर दुनिया के हर विषय पर कई जानकारियां फीड हैं।
सवाल इसलिए कि 'बड़ी ख़बर' से ठीक पहले एनडीटीवी इंडिया पर 9 से दस बजे तक रवीश कुमार ने अपने गुस्से से हम सबको हिला दिया था। दो दिन पुराना एक वीडियो दिख रहा था। गुवाहाटी में कुछ भेड़िए (आदमी की शक्ल वाले) सड़क पर खुल्लखुल्ला ग्यारहवीं की एक लड़की के कपड़े फाड़कर तमाशा कर रहे थे। जो लोग लड़की की तरफ बढ़ रहे थे, वो बचाने के लिए नहीं, उसके कपड़े नोंचकर ले जाने के लिए आ रहे थे। कोई टोपी पहनकर आ रहा था, कोई हेलमेट पहने ही थोड़ी देर उसके साथ खेल लेना चाहता था। एनडीटीवी पर चार मेहमानों के साथ आग उगलते रवीश कुमार तब इकलौते 'दारा सिंह' लग रहे थे। उनका गुस्सा किसी स्क्रिप्ट में लिखा हुआ नहीं था। ये एक पत्रकार का गुस्सा था जो उस वक्त किसी दूसरे चैनल के स्टूडियो में नज़र नहीं आ रहा था। सुबह तक लगातार एनडीटीवी उस ख़बर को अपनी स्क्रिन के नीचे वाली जगह ('टिकर') पर लिख कर चला रहा था।
अफसोस बस यही है । क्या ऐसे मौक़ों पर भी सभी न्यूज़ चैनलों को अपने-अपने गूगल की मदद से लिखे-लिखाए प्रोग्राम पेश करने का मन करता है। क्या गुस्सा हमारा सामूहिक हथियार नहीं बन सकता। ज़ाहिर है, रुस्तम-ए-हिंद दारा सिंह पर भी एक फीचर लाज़मी था, मगर क्या आधे घंटे में कुछ मिनट भी पुण्य प्रसून वाजपेयी इस घटना पर अपने ही अंदाज़ में मुंह नहीं फुला सकते थे। ये सवाल इसीलिए क्योंकि हिंदी मीडिया में जिन कुछ चेहरों पर दर्शक दांव लगा सकते हैं, उनमें से एक चेहरा बाबा का भी है। (ये किसी सर्वे के आधार पर नहीं, मेरी निजी राय है)।
रवीश कुमार ने किसी मेहमान से सवाल किया कि क्या सरकार या वहां के नेता-पुलिस अचार डाल रहे थे। ये सवाल हम सबका है। वहां (गुवाहाटी) की महिला सांसद से रवीश ने एकदम डांटते हुए पूछा कि क्या आप वहां गई हैं, तो ऊल-जुलूल बोलती सांसद के पास कोई जवाब नहीं था। क्या जवाब होता, वो तो मीडिया रिपोर्ट देखकर ही जान पाई कि उसके इलाके की किसी लड़की के साथ सरेआम नंगई हुई है।
ऐसे हैं हमारे सांसद। ऐसी है हमारी पुलिस। हम और आप इन्हें पहचानते है, मगर बोलते कुछ नहीं । मैं रोज़ मेट्रो में सफर करता हूं। हर दूसरे दिन सीट से लेकर भीड़ में ठीक से खड़े होने को लेकर लड़ाईयों की आवाज़ आती रहती है। तू सरदार है, तो मैं जाट हूं मादर...। तू दस साल से है, तो मैं बीस साल से हूं, क्या उखाड़ लेगा मेरा। इस तरह के डायलोग रोज़ सुनाई पड़ते हैं। हम चुपचाप सुनते रहते हैं और जोड़ते रहते हैं कि कितने साल से दिल्ली में हैं और कितने सालों तक रह पाएंगे ऐसे माहौल में।
इसी संडे को मेरी एक कहानी 'गुड फ्राइडे' जनसत्ता में आई थी। पहली लाइन बेचारे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की बेचारगी पर हल्के तंज से शुरु हुई थी। वो गुड फ्राइडे का दिन था। प्रधानमंत्री जिनका हाथ कंधे से ऊपर नहीं उठता और राष्ट्रपति ने, जिन्हें लगातार पांच मिनट बोलने के बाद दाईं ओर के आखिरी दांत दुखने की शिकायत है, पूरे देश को शुभकामनाएं दी थीं। माननीय अखबार ने वो लाइन उड़ा दी। पूरी कहानी छाप दी। कहानी में कुछ नया नहीं था। मुझे तो कहानी लिखनी आती ही नहीं। वो तो बस एक सच्ची घटना का थोड़ा-सा काल्पनिक विस्तार था, जिसमें एक स्टंटमैन मॉल की ऊंचाई से गिरकर मर गया था। और मैंने कुछ लोगों को मज़ाक में कहते सुना था कि साले ने दारू पी ली होगी। तो मैंने गुस्सा ज़ाहिर करने के लिए कुछ लिख दिया था। मगर ग़ुस्से का पहला वाक्य ही काट दिया गया। सवाल यही कि हम कब तक 'सेफ' खेलते रहेंगे। ख़ैर...
बात दारा सिंह से शुरु हुई थी। हमारे घर में हनुमान का कैलेंडर था जिस पर दूध का हिसाब लिखा जाता था। मुझे बचपन से पूरा यक़ीन था कि टीवी वाले दारा सिंह और कैलेंडर वाले हनुमान एक ही आदमी के चेहरे हैं। शीशे के सामने मुंह फुलाकर कई बार हम हनुमान या बलवान बनने की नकल करते रहे हैं। आइए एक बार फिर सचमुच का गुस्सा भरकर दारा सिंह की तरह मुंह फुलाएं। इसकी बहुत ज़रूरत है। रक्षा बंधन आने वाला है और हमारी बहनें सड़कों पर नंगी की जा रही हैं।
निखिल आनंद गिरि
सवाल इसलिए कि 'बड़ी ख़बर' से ठीक पहले एनडीटीवी इंडिया पर 9 से दस बजे तक रवीश कुमार ने अपने गुस्से से हम सबको हिला दिया था। दो दिन पुराना एक वीडियो दिख रहा था। गुवाहाटी में कुछ भेड़िए (आदमी की शक्ल वाले) सड़क पर खुल्लखुल्ला ग्यारहवीं की एक लड़की के कपड़े फाड़कर तमाशा कर रहे थे। जो लोग लड़की की तरफ बढ़ रहे थे, वो बचाने के लिए नहीं, उसके कपड़े नोंचकर ले जाने के लिए आ रहे थे। कोई टोपी पहनकर आ रहा था, कोई हेलमेट पहने ही थोड़ी देर उसके साथ खेल लेना चाहता था। एनडीटीवी पर चार मेहमानों के साथ आग उगलते रवीश कुमार तब इकलौते 'दारा सिंह' लग रहे थे। उनका गुस्सा किसी स्क्रिप्ट में लिखा हुआ नहीं था। ये एक पत्रकार का गुस्सा था जो उस वक्त किसी दूसरे चैनल के स्टूडियो में नज़र नहीं आ रहा था। सुबह तक लगातार एनडीटीवी उस ख़बर को अपनी स्क्रिन के नीचे वाली जगह ('टिकर') पर लिख कर चला रहा था।
अफसोस बस यही है । क्या ऐसे मौक़ों पर भी सभी न्यूज़ चैनलों को अपने-अपने गूगल की मदद से लिखे-लिखाए प्रोग्राम पेश करने का मन करता है। क्या गुस्सा हमारा सामूहिक हथियार नहीं बन सकता। ज़ाहिर है, रुस्तम-ए-हिंद दारा सिंह पर भी एक फीचर लाज़मी था, मगर क्या आधे घंटे में कुछ मिनट भी पुण्य प्रसून वाजपेयी इस घटना पर अपने ही अंदाज़ में मुंह नहीं फुला सकते थे। ये सवाल इसीलिए क्योंकि हिंदी मीडिया में जिन कुछ चेहरों पर दर्शक दांव लगा सकते हैं, उनमें से एक चेहरा बाबा का भी है। (ये किसी सर्वे के आधार पर नहीं, मेरी निजी राय है)।
रवीश कुमार ने किसी मेहमान से सवाल किया कि क्या सरकार या वहां के नेता-पुलिस अचार डाल रहे थे। ये सवाल हम सबका है। वहां (गुवाहाटी) की महिला सांसद से रवीश ने एकदम डांटते हुए पूछा कि क्या आप वहां गई हैं, तो ऊल-जुलूल बोलती सांसद के पास कोई जवाब नहीं था। क्या जवाब होता, वो तो मीडिया रिपोर्ट देखकर ही जान पाई कि उसके इलाके की किसी लड़की के साथ सरेआम नंगई हुई है।
ऐसे हैं हमारे सांसद। ऐसी है हमारी पुलिस। हम और आप इन्हें पहचानते है, मगर बोलते कुछ नहीं । मैं रोज़ मेट्रो में सफर करता हूं। हर दूसरे दिन सीट से लेकर भीड़ में ठीक से खड़े होने को लेकर लड़ाईयों की आवाज़ आती रहती है। तू सरदार है, तो मैं जाट हूं मादर...। तू दस साल से है, तो मैं बीस साल से हूं, क्या उखाड़ लेगा मेरा। इस तरह के डायलोग रोज़ सुनाई पड़ते हैं। हम चुपचाप सुनते रहते हैं और जोड़ते रहते हैं कि कितने साल से दिल्ली में हैं और कितने सालों तक रह पाएंगे ऐसे माहौल में।
इसी संडे को मेरी एक कहानी 'गुड फ्राइडे' जनसत्ता में आई थी। पहली लाइन बेचारे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की बेचारगी पर हल्के तंज से शुरु हुई थी। वो गुड फ्राइडे का दिन था। प्रधानमंत्री जिनका हाथ कंधे से ऊपर नहीं उठता और राष्ट्रपति ने, जिन्हें लगातार पांच मिनट बोलने के बाद दाईं ओर के आखिरी दांत दुखने की शिकायत है, पूरे देश को शुभकामनाएं दी थीं। माननीय अखबार ने वो लाइन उड़ा दी। पूरी कहानी छाप दी। कहानी में कुछ नया नहीं था। मुझे तो कहानी लिखनी आती ही नहीं। वो तो बस एक सच्ची घटना का थोड़ा-सा काल्पनिक विस्तार था, जिसमें एक स्टंटमैन मॉल की ऊंचाई से गिरकर मर गया था। और मैंने कुछ लोगों को मज़ाक में कहते सुना था कि साले ने दारू पी ली होगी। तो मैंने गुस्सा ज़ाहिर करने के लिए कुछ लिख दिया था। मगर ग़ुस्से का पहला वाक्य ही काट दिया गया। सवाल यही कि हम कब तक 'सेफ' खेलते रहेंगे। ख़ैर...
बात दारा सिंह से शुरु हुई थी। हमारे घर में हनुमान का कैलेंडर था जिस पर दूध का हिसाब लिखा जाता था। मुझे बचपन से पूरा यक़ीन था कि टीवी वाले दारा सिंह और कैलेंडर वाले हनुमान एक ही आदमी के चेहरे हैं। शीशे के सामने मुंह फुलाकर कई बार हम हनुमान या बलवान बनने की नकल करते रहे हैं। आइए एक बार फिर सचमुच का गुस्सा भरकर दारा सिंह की तरह मुंह फुलाएं। इसकी बहुत ज़रूरत है। रक्षा बंधन आने वाला है और हमारी बहनें सड़कों पर नंगी की जा रही हैं।
निखिल आनंद गिरि