वहां हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की
वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास
एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...
गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...
एक कटोरी हुआ करती थी,
जो कभी खत्म नहीं होती....
पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...
रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...
कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता
जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन
ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...
एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,
अड़हुल, कनैल और चमेली भी...
दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..
और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....
और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....
भगवान होने में कितना बचपना था...
एक छत हुआ करती थी,
जहां से दिखते थे,
हरे-उजले रंग में पुते,
चारा घोटाले वाले मकान...
जहां घाम में बालों से
दीदी निकालती थी ढील....
जूं नहीं ढील,
धूप नहीं घाम....
और सूखता था कोने में पड़ा...
अचार का बोइयाम...
एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,
ज़िल्द वाली किताबों में...
मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...
और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....
छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,
छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...
आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....
वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई
और उसका रंग भी काला है...
इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,
मगर पिता बूढ़े होने लगें,
तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....
निखिल आनंद गिरि
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hmmm.. Bahut acche nikhil ji.. Badhiya wali kavita
जवाब देंहटाएंकविता नहीं जिन्दगी है.
जवाब देंहटाएंdhoop nahin, ghaam, joon nahin, dheel, jild wali kitaabein....waah ! bohot khoobsurat nazm hai dost...lovely
जवाब देंहटाएं्यही तो ज़िन्दगी है और उसका सच्।
जवाब देंहटाएंतुम्हारे भीतर एक अजीब किस्म की मौलिकता है .......खरी सी ......दुआ है .....बनी रहे .......
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पर पहली बार आई...आप को पढ़ कर हैरान हूँ..आप का लिखने का अंदाज़ एक दम दिमाग पर चोट करता हर शब्द कमाल की शब्द व्यंजना. बहुत अच्छा लगा आपको पढ़ना.
जवाब देंहटाएंमगर पिता बूढ़े होने लगें,
जवाब देंहटाएंतो प्रेमिकाओं को जाना होता है....
और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....
भगवान होने में कितना बचपना था..
मार्मिक प्रस्तुति
अनुराग जी, शुक्रिया....
जवाब देंहटाएंअनामिका, आपका भी...आगे भी आते रहें...
अद्भभुत...कविता है...उम्दा...शब्द कम हैं...
जवाब देंहटाएंनिखिल जी,
जवाब देंहटाएंआपको पढना इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि आप "नई कविता" के नाम पर "बेतरतीब गढे शब्द और बेमतलब ठूंसे भाव" नहीं लाते। आप की कविता नई कविता है, आधुनिक कविता है, लेकिन भाव के मामले में इसमें वहीं पुरानापन, वही अपनापन है, जिसे चुनने और जिसे गुनने की हर कविता-प्रेमी की चाह होती है।
हर बार की तरह एक अनुपम प्रस्तुति... बधाई स्वीकारें!
-विश्व दीपक
Shukriya VD Bhai
जवाब देंहटाएंdhup nahi gham,
जवाब देंहटाएंjun nahi dheel.
arth samjhate gye jo nahi samajh sakte hamare is sweet siBhojpuri ko..
badiya laga ekdam khud ke paas lagi ye kavita..
ajeeb aadmi ho yaar nikhil bhai... itni lambi nazmen kahte ho fir bhi bor nahi karte... bahut khubsurat lagi ye nazm..pahle hi misre se bandh liya isne....
जवाब देंहटाएंवो वक्त था .......
जवाब देंहटाएंजब सर्दियों कि दोपहर इतनी वीरान नहीं होती थी...
आंगनो में तब घाम जी भर कर हँसती थी..
और तब तुम्हारा खुदा...
दुवायें कबूल करने ..
हमारे आँगन आया करता था...
शब्द वो जो दिल में खलबली मचा दी... और आपकी कविता में वो जज्बा है.
इस कविता के लिए एक शब्द ...
बेहतरीन.
शब्दों का ऐसा जाल बुना कि इससे बाहर निकल नहीं पाया। बहुत सुंदर और हटके लिखते हैं आप।
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी की क़िताब खोलकर रख दी निखिल, जज़्बातों का समंदर हिलोरें लेने लगा।
जवाब देंहटाएंवो बस स्टैण्ड पर जमावड़ा
वो चाय की चुस्की के साथ ठहाके
वो चाचा को कहना
कि "चक्का घूम रहा है चचा साइकिल का,
चचा का अचानक साइकिल रोकना
और हमें गरियाना,
मिठी गाली अब कहां है
कहने को सारा जहां है
तुम.. तुम हो.. मैं... मैं हूं
और कुछ भी नहीं इससे आगे
अब बस यही बचा है शायद.. यक़ीनन
दीपक बाबा, मनोज जी, राकेश जी...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...आगे भी आते रहें..