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गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

गूगल पीढ़ी के बच्चे

इस साल की आखिरी पोस्ट एक बाल कविता जो लोई के स्कूल में सुनाने के लिए लिखी थी।

हम गूगल पीढी के बच्चे हैं

डिजिटल जेनेरेशन के बच्चे। 

बागों में कभी फूल न देखा
असली वाला स्कूल न देखा
होमवर्क पर सॉफ्टी मिलती
टीचर इतनी कूल न देखा
हम गूगल पीढ़ी के....

व्हाट्सऐप पर होमवर्क करते
गूगल मीट पर क्लास
हैंड रेज़ कर परमिशन लेते
सूसू लगे या प्यास
हम गूगल पीढ़ी...

गूगल अंकल क्लोज़ रिलेटिव
यूट्यूब है पहचान
टैब हमारे कुलदेवता
चार्जर में बसे प्राण
हम गूगल पीढ़ी..

Mute लगाकर मैम हमारी
कब तक क्लास लगायेंगी
PTM में पापा मम्मी को
सामने कब बिठाएंगी? 
Online को mute लगा कर
Offline जब स्कूल जाएंगे
अपनी मैम को साथ में लेकर
खूब धमा चौकड़ी मचाएंगे। 

हम गूगल पीढी के बच्चे हैं, 
डिजिटल जेनरेशन के बच्चे।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 30 नवंबर 2016

राष्ट्रवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई..

Courtesy : Google

राष्ट्रवाद बबुआ धीरे-धीरे आई
राष्ट्रवाद बबुआ धीरे-धीरे आई

जजवा से आई, कोर्टवा से आई
रजवा से आई, नोटवा से आई
भगवा लंगोटवा से आई..
राष्ट्रवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

कचरा जे खाई, गईया से आई
भोट दिलाई, भारत मईया से आई
राम जी दुहाई दुहाई..
राष्ट्रवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

पेटीएम से आई, एटीएम से आई
बड़ बड़ बकर बड़, पीएम से आई
नौलखा सूटवा सिलाई..
राष्ट्रवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

नेहरू के भाग में, कचरा गारी
लोहा के बल्लभ, बापू हज़ारी
जनता दिने-दिन लुुटाई
(क्रांतिकारी कवि गोरख पांडेय के मशहूर गीत से प्रेरित)

निखिल आनंद गिरि


रविवार, 13 नवंबर 2016

आएंगे..आ ही गए अच्छे दिन!

देश एक लंबी-सी कतार है
आपके बाग़ों में बहार है।
आएंगे, आ ही गए अच्छे दिन
जो न देख पाए, वो ग़द्दार है।
हमारी जेब पर ही बंदूकें,
कैसा पागल ये चौकीदार है।
फोड़ दी गुल्लकें भी बच्चों की
काला धन अब तलक फ़रार है।
जेब ख़ाली है, दवा कैसे करें
विकास का भूत यूं सवार है।


निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 सितंबर 2016

अच्छे दिनों की गज़ल

दिल्ली की सड़कों पर कत्लेआम है, अच्छा है
अच्छे दिन में मरने का आराम है, अच्छा है।

छप्पन इंची सीने का क्या काम है सरहद पर, 
मच्छर तक से लड़ने में नाकाम है, अच्छा है।

बिना बुलाए किसी शरीफ के घर हो आते हैं
और ओबामा से भी दुआ-सलाम है, अच्छा है।

कचरा खाती गाय माता अपनी सड़कों पर,
गोरक्षक के घर में दूध-बादाम है, अच्छा है।

पढ़ने-लिखने वालों में, गद्दारी दिखती है
देशभक्त इस देश का झंडू बाम है, अच्छा है।

मन की बातमें अपने मन की उल्टी करते हैं
जन की बात न सुनने का निज़ाम है, अच्छा है।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 23 मार्च 2016

रंग-रंगीला परजातंतर..

एक बीजेपी के घोड़े ने शरीफ से विधायक की टाँग तोड़ दी। बेचारा विधायक लोहे की टांग लेकर घूम रहा है। घोड़ा बीजेपी का है तो मेनका गांधी भी कुछ नहीं बोल रहीं। इसे कहते हैं लोकतंत्र कहते हैं। विधायक की टूटी टांग की तरह लंगड़ा। लंगड़े आम की तरह मीठा।
एक टीम है क्रिकेट खेलने वालों की। मर्दों की। पाकिस्तान से खेले चाहे फुद्दिस्तान से। मीडिया सुबह से टेंट गाड़ के कमेंट्री करता है। क्रिकेट के बाप-दादा सब तंबू गाड़ कर ज्ञान बांटते हैं। असली में जब मैच होता है तो पूरे मर्दों की टीम रन बनाती है 75। हाहाहा। इसे कहते है वर्ल्ड कप। मर्दों वाला। औरतों की टीम खेलती है, हारती है, जीतती है, किसी को फर्क नहीं पड़ता। औरतों के लिए न तो मीडिया के तंबू में जगह है, न तो देश के दिल में। इसी को पत्रकारिता कहते हैं।
एक विधायक हैं बीजेपी के। राजस्थान से सू्ंघकर जेएनयू के कूड़े में से माल गिनते हैं। सिगरेट का टुकड़ा इतना, बीड़ी उतना। कांडम इतना, लड़कियां उतनी। जेएनयू को जनेऊ पहनाना चाहते हैं। पहना दीजिए। जन्माष्टमी भी मनाइए। कन्हैया को भगत सिंह बना दीजिए आपलोग। भगत सिंह के नाम पर एयरपोर्ट तक मत बनाइए।
एक होती है होली। एक होती हैं मालिनी अवस्थी। हर चैनल पर घूम घूम कर गाना गाती हैं। हर चैनल पर। एक होते हैं कुमार विश्वास। हर चैनल पर एक ही लाइन पढ़ते हैं। पाँच-दस-बीस साल गुज़र गए। होली का ये तरीका नहीं बदला। किसी को कविता का मन किया तो चुटकुलेबाज़ों को उठाकर ले आया। व्हाट्सऐप से उठा उठाकर ये चुटकुले सुनाएं चुटकुलेबाज़ कवि भाई लोग, वो चुटकुले सुनाएं कि बाबा नागार्जुन शरमा जाएं, दिनकर की आत्मा कांप जाएं। मंच पर कविता चालू आहे।
बाराखंभा स्टेशन पर रोज सवेरे नौ बजे बाहर निकलता हूं तो सिर झुकाए बूट पॉलिश के लिए कई बच्चे एक साथ 'सर, सर..' कहते रहते हैं। मन करता है मेरे दस जोड़ी जूते होते तो एक साथ सबसे पॉलिश करवा लेता। होली में कुछ रंग उनके भी खिल आएँ। न वो कन्हैया हैं, न मोदी। न वो आज तक हैं, न परसों तक। उन्हें ऐसे ही रहना है बरसों तक।
तब तक जै राष्ट्रभक्ति, जय भारत माता। जय कांय कांय कांय। जो सुर में सुर न मिलाए, उन्हें धांय धांय धांय।

मर्दों को पूरे दिन की होली मुबारक... औरतों को गुझिया बनाने से फुर्सत मिले तो उन्हें भी..

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

एक छोटी-सी ऑड-इवेन लव स्टोरी

ये बता पाना मुश्किल है कि प्यार पहले लड़की को हुआ या लड़के को, मगर हुआ। एक ऑड नंबर की कार से चलने वाली लड़की और इवेन नंबर से चलने वाले लड़के को आपस में प्यार हो गया। ऐसे वक्त में हुआ कि मिलने की मुश्किलें और बढ़ गईं। पहले सिर्फ घर से निकलने की दिक्कत थी, अब दिक्कत ये कि ऑड वाले दिन लड़की को पैदल, फिर रिक्शा और फिर मेट्रो से लड़के तक पहुंचना होता था। इवेन वाले दिन लड़के को यही सब करना पड़ता था।

अपनी प्रेम कहानियों की रक्षा स्वयं करें!
यह प्यार किसी और शहर या किसी और राजनैतिक दौर में हुआ होता तो वो रोज़ मिलते। ट्रैफिक जाम में घंटे भर फंसकर भी खुश होते। कोई दूसरी गाड़ी उनकी हेडलाइट या गाड़ी के किसी हिस्से को छू जाती तो भी एक-दूसरे को मुस्कुराकर रह जाते। शीशा चढ़ा लेते जब सामने की गाड़ी वाला ग़लत ट्रैफिक सिग्नल क्रॉस कर रहा होता और उन्हें घूर कर देख रहा होता। किसी सेंट्रल पार्क के बाहर अपनी गाड़ी पार्क करते और घंटो बातें करते। मोदी पर, केजरीवाल पर, आलू के पकौड़ों पर। फिर मुश्किल से विदा होते, घर पहुंचते ही मोबाइल से दोनों चिपक जाते। मगर इस दौर में तो बहुत मुश्किल हो गया था ये सब। ऑड तारीखों वाले दिन लड़के का मूड ख़राब रहता और इवेन वाले दिन लड़की का।
समय गुज़रता गया। प्यार करते-करते एक दिन गुज़रा, दो दिन गुज़रे, एक हफ्ता गुज़र गया, दो हफ्ते गुज़रने ही वाले थे। दिल्ली जैसे शहर में एक प्रेम कहानी का दो हफ्ते गुज़र जाना इतिहास का हिस्सा होने जैसा था। प्रेम कहानी के चौदहवें दिन अचानक जब आठ बज गए तो इवेन कार वाले लड़के ने थोड़ा हिचकते हुए ऑड वाली लड़की से कहा, अब हम कभी नहीं मिलेंगे। मैंने दरअसल एक इवेन वाली लड़की ढूंढ ली है। तुम भी एक ऑड वाला लड़का ढूंढ लो।

लड़की थोड़ी उदास हुई फिर बोली, मेरी चिंता मत करो, मैं सीएनजी के सहारे अकेले चलना पसंद करूंगी अब से, तुम्हें नई ज़िंदगी, नया साल मुबारक

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 17 जून 2014

देने दो मुझको गवाही, आई-विटनेस के खिलाफ

बहुत पुराने मित्र हैं मनु बेतख़ल्लुस..फेसबुक पर उनकी ये ग़जल पढ़ी तो मन हुआ अपने ब्लॉग पर पोस्ट की जाए.आप भी दाद दीजिए.

अपने पुरखों के, कभी अपने ही वारिस के ख़िलाफ़
ये तो क्लीयर हो कि आखिर तुम हो किस-किस के ख़िलाफ़

इस हवा को कौन उकसाता है, जिस-तिस के ख़िलाफ़
फिर तेरा वो दैट आया है, मेरे दिस के ख़िलाफ़

मैंने कुछ देखा नहीं है, जानता हूँ सब मगर
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनस के ख़िलाफ़

जब भी दिखलाते हैं वो, तस्वीर जलते मुल्क की
दीये-चूल्हे तक निकल आते हैं, माचिस के ख़िलाफ़

उस चमन में बेगुनाह होगी, मगर इस बाग़ में
हो चुके हैं दर्ज़ कितने केस, नर्गिस के ख़िलाफ़

कोई ऐसा दिन भी हो, जब इक अकेला आदमी
कर सके जारी कोई फरमान, मज़लिस के ख़िलाफ़

कितने दिन परहेज़ रखें, तौबा किस-किस से करें
दिलनशीं हर चीज़ ठहरी, अपनी फिटनस के ख़िलाफ़ 

हर जगह चलती है उसकी, आप गलती से कभी
दाल अपनी मत गला देना, कहीं उसके ख़िलाफ़

मनु बेतखल्लुस

बुधवार, 26 सितंबर 2012

सस्ते अंडे देने वाली मुर्गियों में भी भगवान है..

क़रीब पंद्रह-सोलह साल पुरानी बात याद आ रही है। किराने की दुकान पर घरेलू सामान ख़रीदने के लिए जाने से पहले एक कागज़ के पुर्ज़े पर सभी सामानों के नाम वगैरह लिख कर झोला टांगते थे और सामान  ले आते थे। सबसे सस्ती मिलती थी अगरबत्ती। परनामी अगरबत्ती। बीस रुपये में पूरा बंडल कम से कम दस। उससे भी सस्ती माचिस। 4-5 रुपये में पूरा बंडल। तब भगवान पर बहुत प्यार आता था। सिर्फ बीमारी या दुख के दिनों में ही नहीं, हर तरह के दिन में। इस बार समस्तीपुर में घर पर था तो अगरबत्ती खत़्म हो गई। बाज़ार में गया तो अगरबत्ती का बंडल 120 रुपये का हो चुका था। अचानक आटे के दाम याद आ गए। पांच किलो 110 रुपये में। सही किया कि भगवान से प्यार का रिश्ता कम कर लिया। पेट में रोटी मिले, उसके बाद ही अगरबत्ती जलाने का सुख सुख जैसा लगता है। रोटी के साथ दाल के बजाय मैं अंडे खाना ज़्यादा पसंद करुंगा। उबले हुए दो अंडे दिल्ली में 12 रुपये के मिलते हैं। बिहार में भी 10 रुपये लगते हैं।  दाल कहीं भी 80 रुपये से कम की नहीं मिलती। दाल के साथ गैस का ख़र्च भी है। पानी का ख़र्च भी है। अंडे तो उबले हुए ही मिलते हैं। मैं मुर्गियों को अगरबत्ती दिखाना चाहूंगा। मुझे मुर्गियों में भगवान दिखने लगे हैं। वो न होतीं, तो हमारी रोटियां महंगाई के इस दौर में बेवा हो जातीं। रोटियों की मांग का सिंदूर है अंडे की भुर्जी।
ख़ैर, बचपन की इस अगरबत्ती से एक दूसरे भगवान भी याद आ गए। रांची के डॉक्टर। क़रीब 15 साल पहले एक डॉ. प्रसाद की ख़बर आई थी अख़बार में। किडनी चुराने का संगीन आरोप था। इस बार समस्तीपुर गया था तो वहां गर्भाशय घोटाले की ख़बर देखी-सुनी। ग़रीब महिलाओं के गर्भाशय चुराकर कई डॉक्टर अमीर हो गए। ज़ाहिर है, इसमें महिला डॉक्टरों के भी कई नाम थे। पूरे के पूरे नर्सिंग होम ही शामिल थे डॉक्टरी के पेशे की लुटिया डुबोने में। अब सरकारी जांच-फांच चल रही है। मगर, जिनके गर्भाशय बिना पूछे ही निकाल लिए गए, उनकी भी कोई जांच होनी चाहिए। क्या उनमें ज़िंदगी जीने की इच्छा बची होगी। पता नहीं। मैं तो अपनी बीमारी ठीक करने के इरादे से समस्तीपुर गया था। लेकिन, वहां के डॉक्टरों की ऐसी हालत देखकर घर में ही दम साधे ठीक होता रहा। दिल्ली के डॉक्टर से फोन पर सलाह ले-लेकर। क्या पता मेरा क्या निकाल लेते। 
ख़ैर, अब और किसी भगवान को याद नहीं करूंगा। वो बुरा भी मान सकता है। वक्त ही बुरा है। क्या पता गालियां भी बकता हो मुझे।

रविवार, 22 जनवरी 2012

पांड़े जी की प्रेमकथा और गांधी जी से सहानुभूति

कुछ लोग कहते हैं कि घर चलाना देश चलाने से भी ज़्यादा मुश्किल है। देश में आजकल कुछ भी अच्छा चल नहीं रहा। मां घर बहुत अच्छा चला लेती है। अगर मेरी मां के पास डिग्रियां होतीं तो वो शायद देश की राष्ट्रपति भी बन सकती थीं। अगर स्कूल में बच्चे बढ़ने लगें तो टीचर बढ़ा दिए जाते हैं। ज़्यादा टीचर ही नहीं, क्लास के भीतर भी दो-तीन मॉनिटर होते हैं। फिर देश तो इतना बड़ा है। जब मुल्क की आबादी तीस करोड़ थी तब भी देश में एक ही प्रधानमंत्री था। अब जब आबादी चार गुना बढ़ी है तो प्रधानमंत्री चार क्यों नहीं हुए। इतने बड़े देश में क्या आपको एक प्रधानमंत्री एक-चौथाई प्रधानमंत्री की तरह नहीं लगता। आप इसे किसी पार्टी के खिलाफ या पक्ष में चुनाव प्रचार का हिस्सा मत समझिए। इससे पहले कि चुनाव आयोग कोई कार्रवाई करे, मैं हाथ को दस्ताने से ढंककर घूमता हूं। भला हो दिल्ली की इस सर्दी का। वैसे, मेरा विचार है कि हाथी-बैल की मूर्तियां ढंकने से अच्छा, गांधीजी की ही मूर्तियां ढंक दी जाएं। सब प्रचार-दुष्प्रचार तो उन्हीं के नाम पर होता है और इतनी ठंड में भी उघाड़े बदन खड़े रहते हैं चौक-चौराहे पर।


मेरे एक दोस्त हैं। पांड़े जी। बड़े उदास, अकेले और अलग-थलग रहने वाले इंसान। इंटरनेट की दुनिया से कोसों दूर थे। हमने एक दिन चिकेन के लालच में उनके यहां वक्त गुज़ारा और फेसबुक का नया नया चस्का लगा दिया। तीन दिन बाद पूछा कि कैसे हैं पांड़े जी। तो बोले कि भाई आप महान हैं। इतने सारे दोस्त मिल गए हैं कि और कुछ सोचने का टाइम ही नहीं बचता। फिर शरमाते हुए बोले कि एक कन्या भी मिल गईं हैं फेसबुक पर। बस बात बढी ही है। मैंने कहा, मिल भी आइए। बोले, नहीं मिलने का कोई चांस नहीं। पासपोर्ट बनाना होगा। दो दिन बाद फिर फोन किया तो पता चला पासपोर्ट ऑफिस के पास खड़े हैं। फटाफट पासपोर्ट वाला जुगाड़ ढूंढ रहे हैं। सात दिन में पासपोर्ट हाथ में और फिर विदेश। हमने कहा कि विदेश जाने से पहले हमारे नाम पर एक मुर्गी की कुर्बानी तो बनती है। संडे को मुर्गी खाने पहुंचे तो देखा न मुर्गी है न पांड़े जी का रोमांटिक मूड। हमने पूछा क्या हुआ तो बोले कि अरे यार, ई फेसबुक अकाउंट डिलीट कर दीजिए हमारा। साला, बहुत गड़बड़ चीज़ है। एक हफ्ता टाइम बरबाद हो गया। जैसे ही प्रोपोज किए, ब्लॉक कर दिया हमको। हद्द है, बताइए, हम कोई ऐसा-वैसा आदमी हैं क्या। अगर कोई और है तो बता देती। हमको रोज़ चैट पर एतना टाइम क्यों देती थी। चूंकि पांड़े जी मुर्गी अच्छी पकाते थे, तो हमने उनका हौसला बढ़ाया और कहा, ‘’पांड़े जी, फेसबुक के आगे जहां और भी है...’’..

बहरहाल, पांड़े जी ने ठान लिया है कि अब इस फेसबुक पर अपनी प्रेम कथा की हैप्पी एंडिंग ढूंढ कर ही रहेंगे। हिंदुस्तान न सही, पाकिस्तान में ही सही। फेसबुक पर क्या पंडित, क्या मौलवी, सब एक ही स्टेटस के चट्टे-बट्टे हैं। यूं भी इस देश में धर्मनिरपेक्षता का आलम ये है कि 22 कैरेट पंडित के घर में भी बच्चे सलमान, आमिर या शाहरुख ख़ान बनने का सपना देखते हैं और मांएं फिर भी खुश होती हैं।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 29 जून 2011

चांद एक शहर और खरीदा हुआ पानी...

वो बहुत दुखी था....कहने लगा, पूरी जवानी खराब कर दी...ये नहीं पता था कि क्या करना है, लेकिन फिर भी बड़ा आदमी बनने का मन था। ट्यूशन के वक्त मैंने लाइन नहीं मारा..कितना सैक्रीफाइस किया है...मेरा भी मन था कि फिल्म देखें, गोवा घूमे...वगैरह वगैरह...। मुझे इतना सुनकर हंसी आ गई। लेकिन उसका कहना जारी रहा - क्या बताएं आपको। मेरे बाप ने मुझे समझा ही नहीं। पढ़ाते थे फटीचर स्कूल में और सोचते थे कि शहर वाले भाईयों से टक्कर ले लूंगा। एक बार शहर वाले भाई छुट्टियों में गांव आए तो उनके सामने बड़ा ज़लील किया मुझे। एबीसीडी नहीं आती थी तो शहरी स्कूल वाले भाई से पिटवाते थे पापा...ज़िंदगी भर नहीं भूला..। मुझे उस पर तरस आने के बजाय हंसी आती रही।


उसकी आमदनी इतनी थी कि वो ज़िंदगी भर रोज़ ब्लैक में टिकट ख़रीदकर एक ऊबाऊ फिल्म देख सकता था या फिर किसी बूढ़े मजबूर आदमी की कहानी सुनकर उसे रोज़ प्यार से महंगे फल खिला सकता था, मगर फिर भी रिक्शेवाले से पांच रुपये के लिए झगड़ना उसकी आदतन मजबूरी थी। शायद इसे ही सामाजिक भाषा में संस्कार कहते हैं जिनसे पीछा छुड़ाने के लिए मज़बूत दिल का होना ज़रूरी है।

उसे आज़ादी इतनी पसंद थी कि वो रोज़ सपने में अपना ही घर जला दिया करता और फिर भी उसे अफसोस नहीं होता। चूंकि उसे बच्चे बहुत प्यारे थे इसीलिए तो सपने में कितनी भी भीड़ होती, एक बच्चा उसकी उंगली पकड़कर ज़रूर चल रहा होता। वो उस बच्चे के साथ नदी के पानी पर चलता हुआ चांद के किस्से सुनाना पसंद करता था। बच्चे को लगता कि चांद एक शहर जैसा है जहां एक दिन वो नौकरी करने ज़रूर जाएगा और खरीद कर पानी पियेगा।

उसे उधार देकर भूल जाने की आदत थी इसीलिए उसके दोस्तों की तादाद उसके दुश्मनों से क़हीं ज़्यादा थी। इधर कुछ लोग मेरे साथी कहे जाते थे। वो क्रांतिकारी और प्रगतिशील कहलाना पसंद करते थे। वो मेरे पैसे कमाने का इंतज़ार कर रहे था ताकि उनकी क्रांति का खर्च निकल सके। चूंकि क्रांति इस देश के संस्कारों में रही है, इसीलिए इसके मौजूदा स्वरूप पर बहस फालतू ही कही जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे अगर आप इस पर बहस करें कि प्रेम विवाह और जुगाड़ (अरेंज) विवाह में बेहतर कौन है।

मेरा तो अब तक ये मानना है कि इस बहस से ज़्यादा फालतू प्रेम और विवाह ही हैं। जिस देश में घोटाले न होते हों, वहां शोध कराकर देख लें, ये बात सौ फीसदी सच निकलेगी कि भारत देश की अर्थव्यवस्था का सबसे ज़्यादा नुकसान प्यार और शादियों ने ही किया है। फिर भी हम हैं कि इसे समाज का आखिरी सच मानकर प्यार और शादियां किए जाते हैं।

हालांकि, संस्कारों के दायरे में ये बात सच मान लेने में ही भलाई है कि प्रेमिकाएं अगर जवानी का सहारा होती हैं, तो बुढ़ापे का सहारा पत्नी। संस्कार ये भी है कि हम घुटकर मर जाएं मगर शादी ज़रूर करें।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

अन्ना का आंदोलन और साइड इफेक्ट्स...

वो बहुत दिनों से पब्लिसिटी के भूखे थे। दिल्ली के एक होटल में कमरा बुक कराकर रहते थे कि किसी एक दिन पार्टी का टिकट मिल जाए तो मशहूर हो जाएं। अन्ना ने दिल्ली आकर आंदोलन शुरू कर दिया तो उन्हें लगा कि उम्र भर की साध पूरी हो गई। इस एक आंदोलन में कूदने का मतलब उम्र भर की टीआरपी मुफ्त में मिल जानी थी। फिर क्या था, अन्ना अन्ना करते जा कूदे भीड़ में। मीडिया पहले से थी ही, तो कैमरे के आगे भी अन्ना अन्ना शुरू कर दिया। गलत-सलत उच्चारण के साथ एकाध कविताएं भी सुना डालीं। मीडिया को ऐसी कविताएं बहुत पसंद थीं, उन्होंने कवि महोदय को हाथों हाथ लिया और लगे हाथ स्टूडियो बुला लिया। अन्ना पड़े हैं आमरण अनशन पर। जिन्हें पब्लिसिटी चाहिए, उन्हें स्टूडियो मिल रहे हैं। एसी में पीने का पानी और खाने को स्नैक्स भी उपलब्ध हैं। किरण बेदी तो तीन बार कपड़े बदल चुकी हैं और आमरण अनशन में शामिल होकर इतनी खुश हैं कि पूछिए मत। मीडिया ज़िंदाबाद का नारा भी लगा चुकी हैं।


हमारी कॉलोनी में एक मजबूर पतिदेव रहते हैं। शिफ्ट खत्म करने के बाद वो घर लौटे तो पत्नी बिफर पड़ीं। पति महोदय को याद आया कि अरे, आज तो चिड़ियाघर ले जाना था बच्चों को। सॉरी सॉरी कहते रहे मगर पत्नी मानने को तैयार ही नहीं। अचानक टीवी पर जंतर मंतर की तस्वीरें दिखीं कि कोई बूढा आदमी अनशन पर है और वहां फिल्म से लेकर मीडिया की बड़ी बड़ी हस्तियां उपलब्ध हैं। पति ने फटाफट मुंह धोया और बच्चों को तैयार हो जाने का आदेश दिया। पत्नी को लगा कि पतिदेव का माथा खिसक गया है, मगर फिर भी तैयार हो ही गईं। बच्चों ने पूछा कि कहां जा रहे हैं तो पति ने कहा जंतर मंतर। बच्चे खुश हुए मगर पत्नी ने पूछा वहां क्यों। पतिदेव ने गियर तेज़ करते हुए कहा कि कोई अन्ना हैं वहां जिनको मरता हुआ देखने के लिए सब जा रहे हैं। थोड़ी देर रुकने पर मीडिया कवरेज के लिए पहुंच जाती है। बच्चों को ये सब समझ नहीं आया मगर कैमरे पर आने का सुख सोचकर वो चुप रह गए। पत्नी ने भी टाइमपास के लिए आंदोलन का हिस्सा बनना बुरा नहीं समझा। वो बहुत दिनों से चिड़ियाघर भी नहीं गई थी।

इधर फेसबुक पर वर्ल्ड कप के फाइनल की तस्वीरें अब तक टीआरपी बनाए हुए थीं। देशभक्ति के स्लोगन और पाकिस्तान-श्रीलंका को गालियां देकर एक से बढ़कर एक हिंदुस्तानी महान बनने की जुगत में थे। अचानक मुंबई से फेसबुक का ध्यान दिल्ली की ओर शिफ्ट हो गया। कोई अन्ना थे जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में मरने को तैयार थे। देश में भूख से मरने वालों की रिपोर्ट कई दिनों से टीवी पर चली नहीं थी, मगर अन्ना ने उन्हें सद्बुद्धि दी थी। फेसबुक पर फिर से देशभक्ति का बाज़ार गर्म है। अन्ना पर स्टेटस अपडेट करना फैशन है। हर कोई बहती गंगा में हाथ धोना चाहता है। कुछ न कुछ लाइफ में होते रहना चाहिए। साले एफएम वाले बोर करते हैं अब। एक ही जैसे चुटकुले सुनकर ज़िंदगी भर हंसा तो नहीं जा सकता। टीवी पर बड़े बड़े फांट में अखबार पढ़पढ़कर आंखे बाहर होने लगी हैं। दिल्ली को कुछ नया चाहिए। रंग दे बसंती टाइप। तो अन्ना हैं ना। अंग्रेज़ी में कहें तो ऑसम (AWESOME) माहौल है जंतर-मंतर पर। मनमोहन सरकार का इससे कुछ उखड़ेगा या नहीं, ये कहना जल्दबाज़ी होगी, मगर दिल्ली के लिए अन्ना किसी सुड या लव गुरू से ज़्यादा बेहतर टाइमपास हैं। कम से कम वहां जाने पर लगता है कि कुछ किया है। गर्लफ्रेंड के साथ वहीं बैठ लिए थोड़ी देर तो इंप्रेशन भी अच्छा जमता है। फेसबुक पर अपील हो रही है कि अन्ना के लिए चले आइए। उस एक नेक बूढे आदमी के लिए चले आइए। प्लीज़ चले आइए। क्योंकि एक अन्ना मरे तो हज़ार अन्ना पैदा नहीं होने वाले। कम से कम दिल्ली में स्वार्थ की गुटबाज़ी के सिवा कोई जमात नहीं बनती, इतना तो सबको पता है। मुझे भी...

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 8 मार्च 2011

प्यार क्या है, हवामिठाई है...

1) हमको ग़ैरों में कर लिया शामिल,

बस इसी बात पर दावत दे दी..

और सुना है कि सब दोस्त आए...


2) हर ज़ुबां पर इसी के चर्चे हैं,


इसकी क़ीमत भी चवन्नी जितनी

प्यार क्या है, हवामिठाई है...


3) एक वादा कभी किया भी नहीं,

एक रिश्ता कभी जिया भी नहीं..

आदमी आदमी का भी नहीं


4) साल गुज़रें तो ये ज़रूरी नहीं

हम भी दिन के हिसाब से गुज़रें

हमसे मत पूछिए कि उम्र क्या है...


5) थोड़ी-सी चाय गिरी तो ये मेहरबानी हुई...


सूखे कागज़ में भी स्वाद रहा, मीठा-सा...

वो भी नज़्मों को ज़रा देर तलक चखता रहा...


6) उनके होठों पे थीं, मांए-बहनें

अपने लब पर तो मुस्कुराहट थी,

शहर चिढ़ते हैं, गांव हंसते हैं...


7) ज़र्रे-ज़र्रे में बंदिशे-मज़हब,

जब कभी पेट में भी बल जो पड़े...

याद आता है जनेऊ पहले,


8) एक ही रात में क्या जादू हुआ,

दिन सलीके से उगे, बाद उसके

उफ्फ! अंधेरे हैं मेहरबान बहुत...


9) मेरी तहरीर में असर उसका,

ये तो बरसों से होता आया है...

सच भी इल्ज़ाम हो गया अब तो...

 
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

26 जनवरी की झांकी का ब्लॉग प्रसारण LIVE


दो साल पहले हमारे दोस्त हार्दिक ने अंग्रेज़ी में ये मेल भेजा था। तब हम हिंदी के नाम पर कमाने-खाने वाली एक इंटरनेट संस्था से जुड़े हुए थे। उसी के ब्लॉग पर इस मेल का हिंदी अनुवाद छपा था, जिसे फिर से अपने निजी ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूं...लेख के संदर्भ थोड़े पुराने लग सकते हैं, मगर सवाल वही हैं...आप चाहें तो अपने ब्लॉग पर भी इसे शेयर कर सकते हैं...दो कौड़ी के एसएमएस भेजकर देशभक्त बनने से बेहतर उपाय बता रहा हूं...इस पोस्ट के नीचे एक कविता भी है, पढ़ी जा सकती है...


गणतंत्र दिवस की परेड और झांकियां देखकर मेरा देशभक्त मन भी कुछ सोचने लगा.....सरकारें पांच सालों के लिए आती हैं (हालांकि ऐसा होना भी दुर्लभ ही है)....वही मंत्री, वही संतरी, वही परेड....बोर तो हो ही जाते होंगे पांचवा साल आते-आते....मुझे लगता हैं कि मुश्किल से मिली छुट्टी में टेलीविजन पर अपना कीमती समय ऐसे खर्च नहीं किया जा सकता....कुछ तो बदले भाई...

दिल्ली के राजपथ पर झांकिया तो निकलें मगर ज़रा हट के....चार सालों में जिस अवाम को सरकार नज़रअंदाज़ करती रही, पांचवे साल उनकी झांकी लगनी चाहिए....दर्शक दीर्घा में भी कैबिनेट और नौकरशाहों के अलावा कुछ और कुर्सियां लगायी जायें, जिनमें बिज़नेस व कारपोरेट के मसीहा बैठें....झांकियों में बेहद तैयारी के साथ हो रहे नाच-गाने में भी ज़रा सी तब्दीली आनी चाहिए....बदलनी चाहिए सीधा प्रसारण कर रही आवाज़ें भी...कुछ इस तरह से....

राष्ट्रपति भवन के दूर के छोर से मैं देख सकता हूं कि भोपाल गैस त्रासदी के शिकार चले आ रहे हैं...अद्भुत क्षण हैं...टेढी-मेढी शारीरिक संरचना, खून की बीमारियों और मानसिक रोगों से ग्रस्त असंख्य लोग....चूंकि, गणतंत्र का सबसे ख़ास अनुभव इन्होंने बटोरा है, तो पहली झांकी इनकी....आगे और भी मनोरम झांकिया हैं, जो आपका दिल गर्व से भर देंगी...वाह ! क्या बात है...

कैमरा अब कॉरपोरेट मसीहाओं की और घूमता है, फिर ज़रा-सा पैन करता है उन कुर्सियों की तरफ जो स्वास्थ्य मंत्रालय और मध्य प्रदेश सरकार के लिए आरक्षित है....

कमेंटरी चालू है-

मै देख पा रहा हू कि लंबे सफेद लिबासों में पूरी तरह से नग्न अवस्था में कुछ महिलाएं चली आ रही हैं...वो आर्म्ड फोर्स एक्ट में संशोधन या समाप्ति जैसे नारे भी लगा रही हैं.....मणिपुर की यह झांकी ऐतिहासिक भी है और मनोरम भी...वाह! क्या बात है...

कैमरा मुड़ता है सेना प्रमुख की तरफ, रक्षा मंत्री की तरफ और मुस्कान बिखेरते नॉर्थ इस्ट के अधिकारियों की तरफ....परेड जारी है और कमेंटरी भी....

अगली झांकी कुछ मैले-कुचैले लोगों की हैं....मैं अनुमान से कह सकता हूं कि ये केरल के एक गांव के किसान हैं, जो अपने गांव में कोका कोला का प्लांट लगाये जाने का विरोध कर रहे हैं.....उनके हाथ में कुछ बैनर तो हैं, मगर दिल्ली के अफ़सरों की कुछ समझ में नहीं आ रहा....क्षमा करें, मुझे भी कुछ समझ में नहीं आ रहा....वो इस बार भी चुपचाप दिल्ली के राजपथ से गुज़र जायेंगे, यूं ही....

अब हल्की-हल्की धूप बढने लगी है.....कैमरा पर्यावरण मंत्री की ओर घूमता है, जो कोका कोला पीकर गला तर कर रहे हैं....बीच-बीच में उठ-उठ कर किसानों को हाथ उठाकर अंगूठा भी दिखा रहे हैं.....

और अब अगली झांकी गुजरात से....गोधरा और आसपास के इलाकों से हुजूम शामिल है...और इन खूबसूरत घावों को देखिए, जो कभी नही भरने वाले...(कैमरा घावों के थोड़ा और नज़दीक जाता है)...ये दृश्य कभी नहीं भूले जा सकते....घाव अंदर से रिस रहे हैं.....राजपथ लाल हो गया है....सब प्रधानमंत्री को सलामी देते आगे बढते हैं.....

कैमरा अब भीड़ की तरफ घूम गया है, जो पूरी झांकी का आनंद ले रही है....गुज़रात के मुख्यमंत्री कुछ उद्योगपतियों के कान में फुसफुसा रहे हैं....उद्योगपति मुस्कुरा रहे हैं.....सब खुश हैं....ये खूबसूरत नज़ारा कभी-कभी ही नसीब होता है....वाह! क्या बात है.....”

कमेंटरी जारी है-

देवियों और सज्जनों, यह असली भारत की असली झांकी है....अद्भुत, अविश्वसनीय!! झांकी में आगे कुछ खनिज मजदूर हैं, अल्पसंख्यक भी और ओड़िशा या झारखंड के आदिवासी हैं.....ओड़िशा त्याग और सहनशीलता का राज्य रहा है.....इस राज्य ने हमेशा अपनी ज़मीन लुटाई है और खुद को गौरवान्वित महसूस किया है....ये भी बताते चलें कि हालिया सर्वेक्षण में सबसे “लुटे-पिटे” राज्यों की सूची में यही राज्य अव्वल आया है....हम ओड़िशा को उसकी इस उपलब्धि के लिए सलाम करते हैं.....

कैमरा अब ओड़िशा के राज्यपाल की तरफ पैन करता है, जो एक बुलेटप्रूफ़ कैबिनेट में बैठे हैं और लोगों को हाथ दिखा रहे हैं.....मुझे लगता है वो कुछ चेहरों को पहचान गये हैं......उनके अंगरक्षक भी बंदूक ताने हैं और मुस्कुरा रहे हैं.....

"और अब मैं......मैं क्या....हे भगवान....पूरी दर्शक दीर्घा स्तब्ध है........राजपथ की सड़कों पर मुंबई की एक लोकल ट्रेन आती दिख रही है.....इस ट्रेन की रफ़्तार बहुत कम है.....मैं देख रहा हूं कि 1500 लोगों की क्षमता वाली इस ट्रेन में 7000 लोग हैं.....हर दरवाज़े से लोगों की टांगें बाहर दिख रही हैं....कुछ लोग इसकी छत पर भी चढ़ गये हैं....खिड़कियों से झोले और बैग लटके हुए हैं.....विकलांगों का डिब्बा भी खचाखच भरा है.....

इस झांकी को देखकर विदेश से आये कुछ मेहमान दर्शक अचंभे में हैं....वो तालियां पीट रहे हैं....

और अब झांकी एक हैरतअंगेज क्लाइमेक्स की तरफ बढ़ रही है.....ट्रेन की रफ़्तार बढ़ी है....कुछ लोग ट्रेन से बाहर गिर गये हैं.....पूरा देश तालियां बजा रहा है.....वाह!! क्या बात है.....सचमुच भारत जादूगरी का देश है.... मुझे अरविंद अडिग की याद आ रही है....उनकी किताब के कुछ पन्नों से यह दृश्य मिलता है......मुझे आशा है कि आप अरविंद अडिग को जानते हैं, जिन्होंने इस साल का बुकर जीता है.... "

तो, ये था दिल्ली में आयोजित परेड का सीधा प्रसारण.....आशा है आपने झांकी का भरपूर मज़ा लिया होगा...ये सिर्फ झांकी थी, इसीलिए परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं....आशा है कल से फिर आपकी ज़िंदगी रफ़्तार पकड़ लेगी....आप हर रोज़ की तरह कदमताल करने लगेंगे....

जय हिंद......जय हो.....

हार्दिक मेहता
 
(हिंदी में अनुवाद : निखिल आनंद गिरि)

एक ख़ास पल...


एक देश है जो हर साल,

२६ जनवरी को फहराता है तिरंगा...

जहाँ लोग बेसब्री से इंतज़ार करते हैं,

विश्व कप जीतने का...

जहाँ लोग इंतज़ार करते हैं,

कि कब लाल बत्ती बुझे,

और ज़िंदगी की दौड़ में वो भाग सकें

तेज़ "सबसे तेज़".....


इंतजार है एक सुपरहीरो का,

जो हर वो काम कर सके,

जिसे नहीं कर पाता आम आदमी..


आम आदमी रो नहीं सकता देर तक,

नहीं कर सकता खुल कर प्यार,

अपनी नाराज़ प्रेमिका से....


एक देश है जिसकी आधी आबादी,

डुबोती है पावरोटी चाय में,

और अभिनय करती है खुश होने का....

सड़क के किनारे फटी हुई चादर में,

माँ छिपाती है अपना बच्चा,

पिलाती है दूध.....


एक देश है जहाँ,

रंगीन पानी पीकर

लोग बन जाते हैं मर्द.....

और नही समझ पाता कोई,

तीन कोस पैदल चलकर,

पानी लाने का दर्द....


एक देश जहाँ

शौचालयों से वाचनालयों तक

व्यर्थ ही होती दिखी है ऊर्जा...


जहाँ तिरंगे में लिपटकर,

देश का सपूत सो जाता है....

और उसकी मौत पर,

पेट्रोल पम्प के टेंडर का खेल,

शुरू हो जाता है....


एक देश जहाँ २६ साल की है...

देश की आधी आबादी,

पहनती है ब्रांडेड जींस,

और बोलती है खादी...


एक देश,

जहाँ कैलेंडर की तारीखों में,

मनाये जाते हैं ख़ास दिन,

और देश का आम आदमी,

ज़िंदगी में ढूँढता रह जाता है,

एक ख़ास पल,

कि वो कर सके प्यार

अपनी नाराज़ प्रेमिका से,

बहुत देर तक....

कि वो खुल कर रो सके,

बहुत देर तक.....

 
निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 17 जनवरी 2011

मूरख मिले 'बलेसर', पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले...

कौन कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ गुनगुनाया जाए बलेसर को....कमरे में, छत पर, नींद में, सड़क पर, संसद के सामने, चमचों के कान में, सभ्य समाज के हर उस कोने में जहां काई जमी है...आज, कल, परसों, बरसों....इंटरनेट पर शायद ही कहीं बलेसर के वीडियो उपलब्ध हैं...मुझे चैनल के लिए आधे घंटे का प्रोग्राम बनाने का मौका मिला था, तो उनके कुछ वीडियो मऊ से मंगाए गए, जहां के थे बलेसर....वो अपलोड कर पाऊंगा कि नहीं, कह नहीं सकता मगर, इन गीतों के बोल डेढ़ घंटे बैठकर कागज़ पर नोट किए.....हो सकता है, लिखने में कुछ शब्द गच्चा खा रहे हों, मगर जितना है, वो कम लाजवाब नहीं....भोजपुरी से रिश्ता रखने वाले तमाम इंटरनेट पाठकों के लिए ये सौगात मेरी तरफ से....जो भोजपुरी को सिर्फ मौजूदा अश्लील दौर के चश्मे से देखते-समझते हैं,  उनके लिए इन गीतों में वो सब कुछ मिलेगा, जिससे भोजपुरी को सलाम किया जा सके....रही बात अश्लीलता की तो ये शै कहां नहीं है, वही कोई बता दे...जिय बलेसर, रई रई रई....  


दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

मेला है मेला बाबू, मेला है मेला...

दो दिन की दुनिया है, दो दिन झमेला..

दो दिन का हंसना है, दो दिन का मेला...

आना अकेला और जाना अकेला...

साथ न जाएगा, गुरु संग चेला

दुनिया ये दुनिया, दो दिन की दुनिया...

दो दिन की दुनिया में लड़े सारी दुनिया...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

हिटलर रहा नहीं, न रहा सिकंदर..

दारा रहा नहीं, रहा कलंदर...

राम रहे नहीं, न रहा सिकंदर....

सब ही को जाना है, दो दिन के अंदर..

कोई रहेगा ना, कोई रहा है...

बेद-पुरान में ये ही कहा है...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

मेला है मेला बाबू, मेला है मेला...

कोई ना बोलावे, बस पइसा बोलावे ला..

कोई ना नचावे, बस पइसा नचावे ला...

देस-बिदेस, बस पईसवे घुमावेला

ऊंच आ नीच सब पईसवे दिखावेला...

साथ न जाएगा, पईसा ई ढेला

पीड़ा से उड़ जाई, सुगना अकेला....

दुनिया झमेले में...

रोज-रोज-रोज कोई आग लगावेला...

बांटे-बंटवारे का नारा लगावेला

पुलिस, पेसी, मलेटरी जुटावेला,,,

गोला-बारुद के ढेर लगावेला....

रूस से कह दो, हथियार सारा छोड़ दे,

कह दो अमरीका से, एटम बम फोड़ दे...

दुनिया झमेले में....


आजमगढ़ वाला पगला झूठ बोले ला...

समधी के मोछ जइसे कुकुरे के पोंछ साला झूठ बोले ला...

समधिनिया के बेलना झूठ बोले ला...साला झूठ बोले ला..

समधिनिया के पेट जइसे इंडिया के गेट, साला झूठ बोले ला...

अलीगढ़ वाला बकरा झूठ बोले ला...

अरे झूठ बोले ला...साला झूठ बोले ला...

बभना के कईले धईले, कुछहु न होले जाला-2,

धोबिया के अइले गइले, चले लाठी भाला, साला झूठ बोले ला...

कलकत्ता वाला चमचा, झूठ बोले ला....

अपने त बोले, साला हमके न बोले देला-2

तीनों चारों भाई-बाप, सर्विस कुर्ता वाला, साला झूठ बोले ला...

बिना मोछ वाला मोटका, झूठ बोले ला...

बाहर बिलार, घर में शेर का शिकार करे-2

हमरी कमाई बैला, बैठल-बैठल खाला, साला झूठ बोले ला...

ई चवन्नी छाप हिजरा, झूठ बोले ला...

कल-करखाना, साला टिसनो से बोले-बोले-2

खाया है माल. किया लाखों का दीवाला, साला झूठ बोले ला..

नई दिल्ली वाला गोरका झूठ बोले ला...

दिल का है काला साला, बगुला के चाल चले-2

बिदेसी दलाल है, कमाया धन काला, साला झूठ बोले ला...

समधिनिया के बेलना झूठ बोले ला...

श्यामा गरीब के, सोहागरात आई आई..

श्यामा औसनका के, सोहागरात आई आई..

जे दिन ‘बलेसरा’ पाएगा, ताली-ताला, साला झूठ बोले ला...

आजमगढ़ वाला पगला झूठ बोले ला...


हिटलरशाही मिले, चमचों का दरबार न मिले...

ए रई रई रई...

दुश्मन मिले सवेरे, लेकिन मतलबी यार ना मिले...

दुश्मन मिले सवेरे...

कलियन संग भंवरा मिले, बन मिले बनमाली...

ससुरारी में साला मिले, सरहजिया और साली...

तिरिया गोरी हो या काली, लेकिन छिनार ना मिले...

हाथी मिले, घोड़ा मिले; मिले कोठा-कोठी...

सोना मिले, चांदी मिले, मिले हीरा-मोती...

ईंटा-पत्थर मिले, नीच कली कचनार ना मिले...

सागर से जा मिले सुराही, धरती से असमान,

होली से जा मिले दीवाली, मिले सूरज से चांद,

मरदा एक ही मिले, हिजरा कई हजार ना मिले....

सरबन अइसन बेटा मिले, मिले भरत सा भाई,

मोरध्वज सा पिता मिले, मिले जसोदा माई...

पांचो पंडा मिले, कौरव सा परिवार ना मिले...

चित्तू पांडे, मंगल पांडे, मिले भगत सिंह फांसी..

देस के लिए जान लुटा दी, मिले जो लोहिया गांधी...

हिटलरशाही मिले, चमचों का दरबार ना मिले...

बांझिन को जो बेटा मिले, मिले भक्त को राम,

प्रेमी संग में श्यामा आ मिले गुरू से ज्ञान..

मूरख मिले ‘बलेसर’, पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले....

दुश्मन मिले सबेरे, लेकिन मतलबी यार ना मिले...


कुछ सस्ता शेर
बुढापा के सहारा, लाठी-डंडा चाहिए...

जवानी में लड़की को लवंडा चाहिए...

और ये भी...

सासु झारे अंगना, पतोहिया देखे टीभी....

बदला समाज, रे रिवाज बदल गईले...

भईया घूमे दुअरा, लंदन में पढ़े दीदी....

सासु झारे अंगना, पतोहिया देखे टीभी....

अगर गीत अच्छे लगे हों तो ये भी बताइए कि ढोल-मंजीरे के साथ कब बैठ रहे हैं खुले में....मिल बैठेंगे दो-चार रसिये तो जी उठेंगे बलेसर

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 5 दिसंबर 2010

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन...

दे जाता है इन शामों को सागर कौन...

चुपके से आया आंखों से बाहर कौन?

भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?

उम्र निकल गई कुछ कहने की कसक लिए,

कर देती है जाने मुझ पर जंतर कौन?

संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,

होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?

रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,

कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...

सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,

मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?

मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,

ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..

जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,

‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?


निखिल आनंद गिरि
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शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

दीपावली पर 50 झंडू गानों का 'म्यूज़िकल बम'

बात कुछ यूं शुरू ही थी कि सितंबर के महीने में हम कानपुर घूमने निकले थे और अचानक अंताक्षरी के बीच कुछ दिलचस्प गानों का ज़िक्र होने लगा जिनका हुलिया आम हिंदुस्तानी गानों से थोड़ा अलग होता है.....इन्हें ‘झंडू’ गानों की कैटेगरी में रखा जा सकता था। दिमाग में ऐसे कई गाने एक साथ घूमने लगे और भीतर गुदगुदी होने लगी। फिर, कुछ ही दिन बाद हमारे दोस्त गौरव सोलंकी ने फेसबुक पर ऐतराज़ जताया कि इस बार के नेशनल अवार्ड में जिस गीत को पुरस्कार मिला है, उससे बेहतर गीतों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। बात में दम था, तो हमने मज़ाक में ही एक ऐलान कर दिया कि ‘झंडू’ गानों का नया क्लब शुरू करते हैं...उन्हें हम अलग से अवार्ड देंगे। फेसबुक पर दो-चार झंडू गानों का स्टेटस लगाया और सोचा कि भड़ास पूरी हो गई। मगर, दोस्तों ने ऐसा बेहतरीन रिस्पांस दिया कि गानों की लिस्ट लंबी होती चली गई। फेसबुक पर कई अनजान दोस्तों ने भी गाने भेजे, और भेजते रहे। फिर हमारे पुराने ‘मनचले’ साथियों के पास झंडू गानों की भरमार थी, तो उन्होंने भी भरपूर मदद की। कई नए झंडू गाने मिले जिनसे मेरे दिमाग का पाला पहले नहीं पड़ा था। मैंने एफएम रेडियो के अपने दो-तीन साथियों से इन गानों पर बात भी कि क्या इन गानों पर आधारित कोई शो शुरू नहीं हो सकता। उन्होंने लगभग टाल ही दिया मगर उम्मीद हमने छोड़ी नहीं है। इन गानों की क्वालिटी पर किसी तरह से शक नहीं किया जा रहा। न ही इन्हें किसी तरह का अवार्ड हम देने वाले हैं। हां, हमारे भीतर का ‘झंडू’ मन इन्हें बार-बार याद करता है, ये किसी अवार्ड से कम है क्या। आप एक-एक गाना पढ़िए, बार-बार पढ़िए और देखिए आपके भीतर गुदगुदी होती है कि नहीं। यही हमारी असली ‘झंडू’ पहचान है, जिसे हम छिपाते-फिरते हैं।

तो देवियों और सज्जनों, दीपावली के मौके पर पेश है 50 झंडू गानों का धमाका.... पटाखा फोड़िए, दीये जलाइए, लड्डू खाइए, हर मौक पर इन झंडू गानों को गुनगुनाते रहिए और दीवाली को संगीतमय बना दीजिए। कमेंट करके बताइएगा ज़रूर कि इनमें झंडू बम, झंडू फुलझड़ी, झंडू रॉकेट आपको कौन-कौन से लगे...ये लिस्ट नए साल के पहले शतक पूरा करेगी, इस भरोसे के साथ...
आपका ‘झंडू’ साथी
निखिल आनंद गिरि

झंडू गानों की दुनिया में आपका स्वागत है..

1) ले पपियां झपियां पाले हम...

2) मैं लैला-लैला चिल्लाऊंगा, कुर्ता फाड़ के....

3) खा ले तिरंगा गोरिया फाड़ के, जा झाड़ के...

4) अंखियों से गोली मारे, लड़की कमाल रे..

5) जब तक रहेगा समोसे में आलू

6) बाय बाय बाय गुड नाइट, सी यू अगेन...कल फिर मिलेंगे तेरे मेरे नैन

7) तालों में नैनीताल, बाक़ी सब तलैया...

8) मैं एक लड़का पों पों पों....तू इक लड़की पोंपोंपों

9) एबीसीडीइएफ.....पीपीपी पिया...

10) गले में लाल टाई,घर में एक चारपाई, तकिया एक और हम दो...

11) ठंडी में पसीना चले,ना भूख ना प्यास लगे...डैडी से पूछूंगा..

12) पागल मुझे बना गया है सीट्टी बजाके...चक्कर कोई चला गया है सीट्टी बजाके...

13) आ आ ई, उ उ ओ...मेरा दिल ना तोड़ो

14) टनटनाटनटनटनटारा...चलती है क्या नौ से बारा...

15) तुरुरुतुरुरू, तुरूतुरू........कहां से करूं मैं प्यार शुरू...

16) मच्छी बन जाऊंगी, कबाब बन जाऊंगी, बोतलों में डाल दो शराब बन जाऊंगी

17) लड़की ये लड़की कममाल कर गई, धोती को फाड़ के रुमाल कर गई(मेरे हिसाब से lyrics थोड़ा अलग है)

18) गुटुंर, गुटुर, चढ़ गया ऊपर रे, अटरिया पे लोटन कबूतर रे...

19) मैं साइकिल से जा रही थी, वो मोटर से आ रहा था, किया टिनटिन का इशारा मुझे बदनाम किया ना...

20) मैं तुझको भगा लाया हूं तेरे घर से,तेरे बाप के डर से

21) नीले नैनों वाला तेरा लकी कबूतर...

22) तूतक तूतक तूतक तूतिया, आई लव यू....

23) तूतूतू, तूतूतारा.....फंस गया दिल बेचारा...

24) अंगना में बाबा, बाज़ार गई मां..कइसे आएं गोरी हम तोहरे घर मा..

25) इंडारू पिंडारू, तेरी चलती कमर है लट्टू, बांधूं इसपे नज़र का पट्टू..

26) ज़हर है कि प्यार है तेरा चुम्मा...

27) सारेगमपधनी...यू आर माई सजनी...

28) आआई उउओ मेरा दिल ना तोड़ो...

29) अईअईए....मंगता है क्या....गिडबोलो (रंगीला)

30) मैं तो रस्ते से जा रहा था, भेलपुरी खा रहा था, लड़की घुमा रहा था....तेरी नानी मरी तो मैं क्या करूं..

31) पटती है लड़की पटाने वाला चाहिए....

32) ओये वे मिकान्तो, तू नहीं जानतो, प्यार करना बहोत ज़रूरी है

फिल्म - हाय मेरी जान (1991)

33) अईअईया..करूं मैं क्या सुकूसुकू...दिल मेरा... हो गया सुकूसुकू...

34) मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यूं भीगे है कमला खड़ी खड़ी....

35) rain is falling छमाछमछम....लड़की ने आंख मारी, गिर गए हम....

36) जब भी कोई लड़की देखूं, मेरा दिल दीवाना बोले...ओलेओले ओले..

37) आंख मारके बोले हाऊ आर यू..हाथ मिलाकर बोले हाऊ डुयूडू...शहर की लड़की...

38) हम है तुमपे अटके यारा, दिल भी मारे झटके...क्योंकि तुम हो हटके...

39) दिन में लेती है, रात में लेती है...सुबह को लेती है, शाम को लेती है..अपने प्रीतम का, अपने जानम का नाम लेती है..!! (अमानत)

40) डालूंगा, डालूंगा...प्यार से मैं डालूंगा...नौलखा हार तेरे गले में डालूंगा !!(अमानत)

41) पुट ऑन द घुंघरू ऑन माई फीट एंड वाच माई ड्रामा...नाचूंगा अइ, गाऊंगा अइसे..होगा हंगामा, मैं हूं गरम धरम....कैसी शरम (तहलका)

42) शॉम शॉम शॉम शॉम शोमू शाय शाय (तहलका, अमरीश पुरी गायक!!)

43) कबूतरी बोले कबूतर से....मुझे छेड़ ना छत के ऊपर से...

44) टकटकाटक..मुझे दिल ना दिया तूने जब तक..पीछा करूंगा तब तक...टकटकाटक (कर्तव्य)

45) सूसूसू आ गया मैं क्या करूं....(तराज़ू)

46) मैं हूं रेलगाड़ी, मुझे धक्का लगा,इंजन गरम है मुझे धक्का लगा...

47) आया आया आया तूफान, भागा भागा भागा शैतान...

48) दिल की गेट की नेम प्लेट पे, लिखा है तेरा ना...धकधकधुकधुक होती है सुबह शाम...बूबा बूबा...मैं महबूबा

49) चींटी पहाड़ चली मरने के वास्ते, लड़की हुई जवान लड़के के वास्ते (हसीना मान जाएगी)

50 ) तैनू घोड़ी किन्ने चढ़ाया, भूतनी के...तैनू दूल्हा किसन बनाया भूतनी के...

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रविवार, 31 अक्टूबर 2010

अथ मुई लिपस्टिक कथा...

प्यार कर लिया तो क्या, प्यार है ख़ता नहीं...
(यहां क्लिक करें तो यूट्यूब पर वीडियो भी उपलब्ध है..)

प्रथम अध्याय

आईआईटी रूड़की में एक कार्यक्रम के दौरान इंजीनियरिंग के कुछ छात्रों ने अचानक अनोखी प्रतियोगिता रख दी। लड़कों को अपने होठों में लिपस्टिक दबाकर लड़कियों के होठों पर मलनी थी। लड़कों ने ऐसा किया, लड़कियों ने भी भरपूर साथ दिया...मगर लिपस्टिक मलने से मीडिया वाले लाल हो गए। उनके पास कैमरे थे तो वीडियो भी आ गया। वीडियो आया तो टीवी चैनल्स पर ख़बर चलने लगी। किसी चैनल ने कहा कि ये अनोखी प्रतियोगिता थी तो किसी ने होठों से छू लो तुम जैसे आकर्षक टाइटल के साथ तस्वीरें दिखानी जारी रखी। कुछ चैनल्स ऐसे थे जिन्हें लड़कों के लिपस्टिक लगाने से भारतीय संस्कृति को ख़तरा महसूस होने लगा। उन्हें हर दिन भारतीय संस्कृति घोर ख़तरे में नज़र आती है।

दूसरा अध्याय

उन्होंने भारतीय संस्कृति को बचाने का अभियान छेड़ दिया। एक से बढ़कर एक संत-महात्मा-मौलवियों को जुटाकर विमर्श शुरू हो गया कि भई, ये तो घोर पाप है। ये कौन-सी इंजीनियरिंग है। मतलब, ये तो सरासर शिक्षा जगत को शर्मसार कर देने वाली घटना है। इन छात्रों पर कार्रवाई अब तक क्यूं नहीं हुई। इनके मां-बाप को बुलाया जाए। उनसे पूछा जाए कि क्या संस्कार दिए अपनी औलादों को। भई, लिपस्टिक मलना इंजीनियरिंग के कोर्स का हिस्सा तो है नहीं, फिर क्यूं हुआ ये सब? इंजीनियरिंग वाले ‘बच्चे’ तो दिन-रात एक कर पढ़ाई करते हैं और तब जाकर आईआईटी में एडमिशन पाते हैं। उन्हें लड़कियों के होठों पर लिपस्टिक मलना किसने सिखा दिया। ये तो कोर्स करीकुलम के बाहर की बात है। इस पर तो संस्थान के निदेशक को सस्पेंड कर देना चाहिए। उन्हें शो कॉज़ दीजिए कि आईआईटी में लिपस्टिक आई तो आई कैसे। क्या ये सरकारी फंड का दुरुपयोग नहीं है।

तीसरा अध्याय

लिपस्टिक कांड पर देश-दुनिया के बुद्धिजीवी एक-दूसरे से मुंहलगी में व्यस्त हो गए हैं। डिबेट्स, सेमिनार आयोजित हो रहे हैं। लिपस्टिक को राष्ट्रीय आपदा घोषित किए जाने की पैरवी की जा रही है। जहां कहीं लिपस्टिक दिखाई दे रही है, माननीय बुद्धूजीवी (बुद्धू बक्से के बुद्धिजीवी) लोगों से मुंह ढंककर बच निकलने की अपील कर रहे हैं। होठों से जुड़े तमाम गानों पर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध लगा दिया गया है ताकि युवा पीढ़ी इनके उकसावे में ना आए। महान भारतीय परंपरा का निर्वहन करते हुए सरकार ने एक जांच कमेटी गठित कर दी है जो ये पता लगाएगी कि आखिर 19-20 साल के बच्चों में लिपस्टिक लगाने का शौक कैसे पनपा। इस कमेटी में उन माननीय बुद्धूजीवियों को विशेष तौर पर शामिल किया जा रहा जो सेक्स विषयों पर डेस्क से ही बेहतरीन कार्यक्रम बनाने में सिद्धहस्त हैं। इसके अलावा महिला संगठनों को भी इस कमेटी से दूर ही रखा गया है क्योंकि उन्हें लिपस्टिक से विशेष लगाव है और सरकार को डर है कि जांच के दौरान आईआईटी के लड़के कुछ भी कर सकते हैं।

चौथा अध्याय

बिहार और झारखंड के कई ज़िलों में सरकार ने भोजपुरी गीतों पर बैन लगाना शुरू कर दिया है। सरकार की शिकायत है कि वहां के भोजपुरी गानों में होंठ लाली, लिपस्टिक, और शरीर के बाक़ी अंगों पर बहुत कुछ लिखा-सुना जा रहा है। जैसे ये गाना देखिए-

जब लगावे लू लिपस्टिक, त हिले सारा आरा डिस्टिक (डिस्ट्रिक्ट यानी ज़िला)
कमरिया करे लपालप, लॉलीपप लागे लू....

ऐसे गाने सुन-सुनकर आईआईटी के छात्रों के दिमाग में फिज़िक्स के सूत्र की जगह लिपस्टिक लगाने की उत्कंठा घर करने लगी है। माता-पिता परेशान हैं कि सदियों से चली आ रही डॉक्टरी-इंजीनियरी में भेजने की प्रथा पर रोक कैसे लगाएं। उनके बच्चों के तो डीएनए में इंजीनियरिंग की तैयारी घुसी हुई है। ऐसे में उन्होंने जाना तो इन्हीं संस्थानों में है, जहां साल के आखिर में लिपस्टिक मलकर इंजीनियर बनने का सबूत देना पड़ता है। वैसे, लिपस्टिक कांड पर मीडिया की कृपालु नज़र से कई कोचिंग संस्थानों का फायदा भी होने लगा है। कई गलियों में कोचिंग सेंटर खुलने लगे हैं। यहां आईआईटी के लिए क्रैश कोर्स में लिपस्टिक वाला पैकेज मुफ्त है। लड़की, लिपस्टिक सबकी सुविधा मुफ्त। एक दूसरे कोचिंग संस्थान ने प्रीलिमिनरी राउंड में ऐसे ही कांपटीशन से छात्रों का दाखिला लेने का फैसला किया है। मतलब, आप इंजीनियरिंग की पढाई करना चाहते हैं तो लिपस्टिक लगाना ज़रूर सीख कर आएं। लिपस्टिक इंजीनियरों की पहचान बन गया है। स्टेटस सिंबल बन गया है। अब हर लड़के के पास एक हाथ में इरोडोव की किताब और दूसरे में लिपस्टिक दिखने लगी है। आह! क्या क्रांतिकारी दृश्य है। इंजीनियरिंग का ‘लिपस्टिक काल’, इधर-उधर सब कुछ लाल।

पांचवा अध्याय

मीडिया का असर तो होता ही है। सरकारी तंत्र और मीडिया रिश्ते में मौसेरे भाई लगते हैं। एक नींद में चिल्लाता है तो दूसरा नींद में चलने लगता है। आईआईटी रुड़की में लिपस्टिक ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। संस्थान ने वहां लड़कियों के मिनी स्कर्ट पहनने पर बैन लगा दिया गया है। पहले ये काम सिर्फ फतवा जारी करने वाले मुल्ला किया करते थे। अब ग्लोबलाइज़ेशन अपना असर छोड़ रहा है। हालांकि, कॉलेज की लड़कियां खुश हैं क्योंकि अब तक सिर्फ बड़ी हस्तियों की मिनी स्कर्ट पर ही बैन लगा करता था। और उनकी शादी भी विदेश में होती थी। लड़कियों को इस बैन से संभावनाएं दिखने लगी हैं। एक अदनी सी लिपस्टिक ने उन्हें हस्ती बना दिया है। मगर, मुझे एक बात समझ नहीं आई कि लिपस्टिक होठों पर लगी तो बैन मिनी स्कर्ट पहनने पर क्यों लगा। लिपस्टिक और स्कर्ट का क्या संबंध हो सकता है। ये तो बड़े वैज्ञानिकों के शोध का विषय हो सकता है। शायद आईआईटी से ही इस पर कोई कामयाब रिसर्च निकले। फिलहाल, ये भोजपुरी गाना सुनिए जो आईआईटी वाले जमकर बजा रहे हैं – हाय रे होंठ लाली, हाय रे कजरा....जान मारे तहरो टूपीस घघरा (घघरा यानी मिनी स्कर्ट !!)...

इतिश्री...

निखिल आनंद गिरि
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