रुधिर-की बहने दो अब धार,
स्वर गुंजित हों नभ के पार,
किए पदताल भाषा के सिपाही आए,
खोलो, खोलो तोरणद्वार......
बहुत-सा हौसला भी, होश भी, जूनून चाहिए...
हिंदी को ख़ून चाहिए...
गुलामी-की विवशता हम,
समझने अब लगे हैं कम,
तभी तो एक परदेसी ज़बां,
लहरा रही परचम,
नयी रच दे इबारत, अब वही मजमून निखिल...
हिंदी को ख़ून चाहिए....
हुई हैं साजिशें घर में,
दिखे हैं मीत लश्कर में,
पडी है आस्था घायल,
अपने ही दरो-घर में...
उठो, आगे बढ़ो, हिंद को सुकूं चाहिए....
हिंदी को ख़ून चाहिए....
निखिल आनंद गिरि
+919868062333
शुक्रवार, 7 सितंबर 2007
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