अपने बहुत क़रीबी, बहुत सुंदर रिश्तों में जब हम अपने साथ छोटी- छोटी, ग़ैर ज़रूरी बातों में चालाकियां होते देखते हैं तो मन सहम जाता है क्योंकि मन भलीभांति जानता है कि अब कुछ भी सामान्य नहीं हो पायेगा ....
मन रिश्ते पर दुनियावी हिसाबों की सेंध लगाए जाने का अभ्यस्त है ... मन दोबारा छले जाने से ख़ौफ़जदा नहीं है.... मन को डर इस बात का है अब भरोसा कैसे करेगा किसी पर.... छले जाने का ये भयावह अनुभव किसी सच्चे इंसान का भरोसा भी नहीं करने देगा जल्दी ....
मन अपने अनमनपन का ये ठौर भी दरकते देखता है....बेचैनी से...
आप चीखना चाहते हैं --" मत करो ऐसे... खेलो मत यार... मत ख़राब करो उसे जो बहुत सुन्दर है..और सुन्दरतम होने की असीम संभावनाए लिए हुए है ...कुछ हासिल नहीं होगा.. दोनों ही टूटेंगे ..जड़ से उखड़ने पर दोबारा पनपने की गुंजाइश हर बार नहीं होती न!!
उनको मालूम है आप नए धोखे अफ़ोर्ड नहीं कर सकते!
"मुझे खोकर तुम एक ऐसा साथी खो दोगे जो तुम्हारे बारे में तुमसे ज़्यादा सोचता है ...मैं तो टूटूंगा ही ..तुम भी साबुत कहां रह जाओगे ..."
पर आप ख़ामोशी से उस व्यक्ति को दूर होते हुए देखते हैं बस ...
आप रिश्ते में दरिया हुए जाते हैं पर सामने वाले की सारी क़वायद आपसे किसी भी तरह एक कतरा हासिल करने की होती हैं ...
रिश्ता ख़त्म हो जाता है ...आप अपने टुकड़े समेटने की कोशिश करते हैं ... पर आपने अपने जिन भावों को उस प्यारे रिश्ते के इर्द-गिर्द सहेज दिया था वो भाव आपसे सवाल करते हैं---
'अब'?
और इस सवाल का कोई जवाब आपके पास नहीं होता....
(फेसबुक पर भूमिका पांडे की पोस्ट से साभार)