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रविवार, 5 दिसंबर 2010

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन...

दे जाता है इन शामों को सागर कौन...

चुपके से आया आंखों से बाहर कौन?

भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?

उम्र निकल गई कुछ कहने की कसक लिए,

कर देती है जाने मुझ पर जंतर कौन?

संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,

होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?

रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,

कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...

सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,

मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?

मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,

ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..

जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,

‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?


निखिल आनंद गिरि
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