मंगलवार, 8 नवंबर 2022
मेट्रो से दुनिया
बुधवार, 21 सितंबर 2016
अच्छे दिनों की गज़ल
अच्छे दिन में मरने का आराम है, अच्छा है।
निखिल आनंद गिरि
शुक्रवार, 1 जनवरी 2016
वो एक साल था, जाने कहां गयां यारो
बड़ा बवाल था, जाने कहां गया यारों।
हरेक लम्हे को जीते रहे तबीयत से
भरम का जाल था, जाने कहां गया यारों।
चलो ये साल, नयी बारिशों से लबलब हो
बहुत अकाल था, जाने कहां गया यारों।
बिछड़ के खुश हुआ कि और भी उदास हुआ
बड़ा सवाल था, जाने कहां गया यारों।
जो जा रहा है, कभी लौट के भी आ जाता
यही मलाल था, जाने कहां गया यारों।
नए निज़ाम में सब कुछ नया-नया होगा
हसीं ख़याल था, जाने कहां गया यारों
निखिल आनंद गिरि
गुरुवार, 26 नवंबर 2015
स्लीपर डिब्बे की तरह झूलता बिहार
छठ के वक्त ट्रेन से बिहार जाना और बिहार से लौटना पुराने जन्म के पाप भोगने जैसा हो गया है। हर साल सोचता हूं कि इस बार उड़कर पटना पहुंच जाऊंगा, इस बार चार महीने पहले ही एसी टिकट बुक करवा लूंगा, मगर सब फॉर्मूले बेकार हो जाते हैं। छठी मइया कहती हैं कि व्रत का कष्ट सिर्फ छठ करने वाला ही क्यों झेले। सब झेलो। अमृतसर, लुधियाना, अंबाला से डब्बा-डुब्बी, ट्रंक, बक्सा लादकर स्लीपर में जब लोग चढ़ते हैं तो मालगाड़ी में चढ़ने का सुख मिलता है। जब से होश संभाला, स्लीपर में जाने वाले लोग नहीं बदले। लगता है सबको एक-एक बार देख चुका हूं। बिहार का शायद ही कोई घर हो, जिसका एक बेटा बिहार-पंजाब में नौकरी नहीं करता हो। ये गर्व की बात नहीं, राज्य सरकार के लिए सोचने की बात है, शर्म की बात है। कुछ ऐसा होना चाहिए कि हम त्योहारों के लिए अपने गांव-घर लौटें तो हमारे हाथ में बढ़िया नौकरियों का सरकारी लिफाफा थमा दिया जाए। इस भरोसे के साथ कि बिहार में रहकर भी पूरी ज़िंदगी बिताई जा सकती है।
बिहार से लौटने के वक्त स्लीपर में मेरी सीट कन्फर्म थी। मगर आधी रात को जैसे ही नींद खुली, आंखों के ठीक सामने एक पैसेंजर चादर में झूल रहा था। पहले डर गया, फिर हंसी आई। ख़ुद पर, उस पर, बिहारी पैसेंजर होने के नसीब पर। स्लीपर बोगी में अक्सर लोग वेटिंग या जनरल टिकट लेकर घुसते हैं और कन्फर्म सीट वालों से रास्ते पर नौंकझोक चलती रहती है। ऐसे में एक सीट से दूसरी सीट तक मज़बूत चादर या गमछे का झूला बनाकर पूरी रात काट देना मजबूरी के नाम पर कमाल की खोज कही जा सकती है। बाबा रामदेव के स्वदेशी मैगी की तरह।
मुझे बाबा रामदेव पर गर्व है। उन्हें स्लीपर में यात्रा करने वालों से, रात भर बिना पेशाब-पखाने किए, चादर में झूलते रहने वाला योगासन सीखना चाहिए। क्या पता वो इस योगासन के बाद सीधा स्पाइडरमैन की शक्तियां पा जाएं। हमारा स्वदेशी मकड़मानव जो सिर्फ स्वदेशी नूडल्स खाता है।
निखिल आनंद गिरि
बुधवार, 21 जनवरी 2015
विलोम का अर्थ
शरीफ लोगों की
मोहल्ला शरीफ लोगों का
उसी के भीतर एक हवादार पार्क में
एक काटे जा चुके पेड़ की
सूख चुकी डाली पर
दो गर्दनों को षटकोण बनाकर
सहलाती है गौरेया अपने साथी को
और उड़ जाती है आसमान में
लीक तोड़ कर उड़ जाने में
मूंगफली तक खर्च नहीं होती।
एक ऐसी बात जो कही नहीं किसी ने
लोहे के आसमान में सुराख जैसी बात
आप सुनकर सिर्फ गर्दन हिलाते हैं
जुगाली करते हैं फेसबुक पर
छपने भेज देते हैं किसी अखबार में
और चौड़े होकर घूमते हैं सड़कों पर
जो सचमुच लड़ रहे होते हैं आसमानों से
कलकत्ता या छतीसगढ़ की ज़मीनों पर
आपके शोर में चुपचाप मर जाते हैं।
आप जिन दीवारों पर करते रहे पेशाब,
कोई वहां लिखता रहा था क्रांति
उसी दीवार के सहारे करता रहा आंदोलन,
भूखे पेट सोता रहा महीनों
एक दिन उसे पुलिस उठाकर ले गई
और गोलियों का ज़ायका चखाया
दीवारों ने बुलडोज़र का स्वाद चखा
और आप घर बैठे आंदोलन देखते रहे टीवी पर,
इस सदी का सबसे घिसा-पिटा शब्द है आंदोलन
अमिताभ बच्चन की तरह
जिस दिन आपके कुर्ते का रंग सफेद हुआ,
हमें समझ लेना चाहिए था
शांति और सत्ता विलोम शब्द हैं।
निखिल आनंद गिरि
(पहल पत्रिका के 98वें अंक में प्रकाशित)
शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013
वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं..
भोले सपनों वाली मछलियां...
किसी जलपरी की तरह,
चीरा बनाती हुई जगह ढूंढती हैं बस में....
और बस जलाशय तो नहीं...
कान में ज़बदरस्ती ठूंसे गए तार..
जैसे किसी और ग्रह में प्रवेश...
जहां ताड़ती हैं अनजान निगाहें,
लपकते हैं दो हाथ वाले ऑक्टोपस
पीठ के बजाय सीने पर लटकाए हुए बैग...
कंगारू की तरह....
वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं
जिन्हें सिर्फ पीठ पर उबटन लगाना है शादी में..
अगर नहीं हो सकी मनचाही शादी...
उन्हें रखने हैं अपनी सात पीढ़ियों के नाम
सिर्फ ‘क’ से
बिना किसी ज्योतिषी से पूछे
उऩ्हें उतरना है किसी सरकारी कॉलेज के गेट पर,
कॉलेज की दीवारों पर लिखे हैं इश्तेहार
‘दो हफ्ते की खांसी टीबी हो सकती है’
‘शादी में असफल यहां फोन करें...’
शादी के लिए सबसे अच्छी फोटो नहीं,
सबसे अच्छे दिल लेकर आइए...
ऐसा कहीं नहीं लिखा दीवारों पर
बस निहारती है उनकी पीठ...
पीठ बूढ़ी नहीं होती...
स्तन बूढे होते हैं,
योनि नहीं होती बूढी....
प्राथनाएं होती हैं बूढ़ी...
और मर जाती हैं बस से उतरते ही..
निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)
बुधवार, 9 नवंबर 2011
वो उजालों के शहर, तुम को ही मुबारक हों...
किस्से माज़ी के वो जुगनू की तरह लगते थे
हमने उस दौरे-जुनूं में कभी उल्फत की थी ,
जब कि ज़ंजीर भी घुँघरू की तरह लगते थे.
हर तरफ लाशें थी ताहद्दे-नज़र फैली हुईं
ज़िंदा-से लोग तो जादू की तरह लगते थे
ऊंगलियां काट लीं उन सबने ज़मीं की ख़ातिर
बाप को बेटे जो बाज़ू की तरह लगते थे...
मुझ को खामोश बसर करना था बेहतर शायद
हंसते लब भी मेरे आंसू की तरह लगते थे...
वो उजालों के शहर, तुम को ही मुबारक हों,
रात में सब के सब उल्लू की तरह लगते थे
दिन ब दिन रहनुमा गढते थे रिसाले अक्सर
चेहरे सब कलजुगी, साधू की तरह लगते थे
आज बन बैठे अदू कैसे मोहब्बत के 'निखिल'
वो भी थे दिन कि वो मजनू की तरह लगते थे
माज़ी - बीता हुआ कल
अदू - दुश्मन
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 30 जनवरी 2011
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है...
प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं
जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
और उदास रौशनी का
जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
और बीच में हैं फ्लाईओवर.....
हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...
और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...
इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...
आप कह सकते हैं शर्तियां...
मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...
जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...
हमें ठीक तरह से याद है....
आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'
चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,
जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में
नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,
ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...
काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,
जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...
जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
दुम ज़रूरी है....
और प्यार करने के लिए कंडोम.....
फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...
कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...
ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
हे राम ! कहने की आज़ादी हो....
निखिल आनंद गिरि
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
कह री दिल्ली.....
यहाँ पाकर इशारा ज़िन्दगी लंबी सड़क पर दौड़ जाती है,
सुबह का सूर्य थकता है तो खंभों पर चमक उठती हैं शामें,
यहाँ हर शाम प्यालों में लचकती है, नहाती है...
दुःख ठिकाना ढूँढता है, सुख बहुत रफ़्तार में है..
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है..............
यहाँ कोई धूप का टुकडा नही खेला किया करता है आंगन में,
सुबह होती है यूं ही, थपकियों के बिन,कमरे की घुटन में,
नित नए सपने बुने जाते यहां हैं खुली आंखों से,
और सपने मर भी जाएँ, तो नही उठती है कोई टीस मन में
घर की मिट्टी, चांद, सोना, सब यहाँ बाज़ार में है...
माँ मगर वो....................
ओ मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
हम भला इस शोर की नगरी में कैसे आस्था अपनी बचाते,
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है...
हाँ! मगर वो............
कह री दिल्ली? दे सकेगी कभी मुझको मेरी माँ का स्नेह-आँचल,
दे सकेंगे क्या तेरे वैभव सभी,मिलकर मुझे, दुःख-सुख में संबल,
क्या तू देगी धुएं-में लिपटे हुये चेहरों को रौनक??
थकी-हारी जिन्दगी की राजधानी,देख ले अपना धरातल,
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
माँ मगर वो........................
निखिल आनंद गिरि
(दिल्ली आकर लिखी गई शुरूआती कविताओं में से एक)
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी...
वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास
एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...
गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...
एक कटोरी हुआ करती थी,
जो कभी खत्म नहीं होती....
पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...
रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...
कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता
जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन
ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...
एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,
अड़हुल, कनैल और चमेली भी...
दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..
और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....
और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....
भगवान होने में कितना बचपना था...
एक छत हुआ करती थी,
जहां से दिखते थे,
हरे-उजले रंग में पुते,
चारा घोटाले वाले मकान...
जहां घाम में बालों से
दीदी निकालती थी ढील....
जूं नहीं ढील,
धूप नहीं घाम....
और सूखता था कोने में पड़ा...
अचार का बोइयाम...
एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,
ज़िल्द वाली किताबों में...
मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...
और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....
छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,
छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...
आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....
वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई
और उसका रंग भी काला है...
इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,
मगर पिता बूढ़े होने लगें,
तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....
निखिल आनंद गिरि
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मंगलवार, 28 सितंबर 2010
मैं ज़िंदा हूं अभी...
हिलाइए-डुलाइए,
झकझोरिए ज़रा...
लगता है कि मैं ज़िंदा हूं अभी...
चुप्पी मौत नहीं है,
चीख नहीं है जीवन,
मैं अंधेरे में चुप हूं ज़रा,
भूला नहीं हूं उजाला...
ये शहर कुछ भी भूलने नहीं देगा...
नौ घंटे की बेबसी,
दुम हिलाने की....
फिर चेहरा उतारकर
गुज़ारते रहिए घंटे...
फोन पर मिमियाते रहिए प्रेमिका से,
उसे हर वाक्य के खत्म होते खुश होना है...
मां से बतियाने में ओढ लीजिए हंसी,
कितनी भी...
पकड़े जाएंगे दुख...
कुछ चेहरे हैं
जिनसे बरतनी है सावधानी...
कुछ नज़रें हैं..
जिन्हें पलट कर घूरना नहीं है..
दिन एक थके-मांदे आदमी की तरह है..
हांफ रहा है आपके साथ..
रात के आखिरी पहर तक...
बिस्तर पर लेटकर निहारते रहिए दीवारें..
क्या पता शून्य का आविष्कार,
इन्हीं क्षणों में हुआ हो..
26 साल की बेबस उम्र
नींद की गोली पर टिकी है...
गटक जाइए गोली,
विश्राम लेंगे दुख...
बदलते रहिए केंचुल,
शर्त है जीने की...
निखिल आनंद गिरि
ये पोस्ट कुछ ख़ास है
नन्हें नानक के लिए डायरी
जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...
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कौ न कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ ...
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हिंदी सिनेमा में आखिरी बार आपने कटा हुआ सिर हाथ में लेकर डराने वाला विलेन कब देखा था। मेरा जवाब है "कभी नहीं"। ये 2024 है, जहां दे...
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छ ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़...