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शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

चालीस की सड़क

दुनिया अब बाज़ार में बदल गई है
दोस्त अब आत्महत्याओं में बदल गए हैं
मंच अब मंडियों में बदल गए हैं
कविताएं अब पंक्तियों में बदल गई हैं

तुम्हारी याद एक बच्चे की नींद में बदल गई है
मेरा रोना अब लोरियों में बदल रहा है।
इस वक्त जो मैं खड़ा हूं
चालीस की तरफ जाती एक सड़क पर
जिसका नाम जीवन है
और जो एक पीड़ा में बदल गया है - 

मैं बदलना चाहता था एक प्रेमी में
एक अकेले कुंठाग्रस्त कवि में बदलता जा रहा हूं

दुनिया बदल जाती केले के छिलके में 
तो कितना अच्छा होता
फिसल जाते हम सब।

दुनिया एक प्लेस्कूल में बदल गई है
जहां मेरे दो बच्चे पढ़ते हैं
चहचहाते हैं, नई भाषाएं सीखते हैं
दुनिया का नक्शा काटते हैं।
और मैं उनके लौटने का इंतज़ार 
करता हूं सड़क के उस पार

मैं एक भिक्षुक में बदलना चाहता था
जिसके कटोरे में मीठी स्मृतियां होतीं 
मगर मैं एक चौकीदार में 
बदलता जा रहा हूं
सावधान की मुद्रा में खड़े
उम्र के बुझते हुए लैंप पोस्ट के नीचे

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 8 जनवरी 2017

जितना संभव था

जितना संभव था
बचाया जाना चाहिए था।

जीने के लिए सांसें,
प्रेम के लिए मौन
जगमग रातों के लिए अंधेरे
मौन अपराधों के लिए क्षमा।

शोर में बचायी जानी थी
एंबुलेंस के सायरन की आवाज़
ब्रह्मांड में रोने की आवाज़
शहर के लिए हरियाली
और कम से कम एक थाली
या निवाला भर ही
चिड़ियों के लिए।

बचाने को बचायी जा सकती थीं सब स्मृतियां
कम से कम कुछ इमारतें ही
जिन्हें बुलडोज़रों के आगे घुटने टेकने पड़े।

सड़क पर पैदल चलने की जगह
बूढ़ी महिला के लिए हर डिब्बे में एक सीट
भीड़ में थोड़ी विनम्रता
हरे-भरे पार्क शहरों में
जहां पढ़े जा सकें असंख्य प्रेम गीत।

वर्णमाला के कुछ अक्षर भी बचाए जाने थे
कम से कम हलंत या विसर्ग ही।
हाशिये बचाये जाने थे कागज़ों पर
जितना संभव था कागज़ भी।

बहुत अधिक व्यस्त या क्रूर समय में से
थोड़ा-सा समय
निर्दोष बच्चों के लिए।
या इतना तो बचाया ही जा सकता था समय ;
कि बचा पाना सोचते उतना
जितना संभव था।

हिंदी मैगज़ीन 'तद्भव' में प्रकाशित) 
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 7 दिसंबर 2016

पहले क़दम से पहले

पहली बार चलना सीख रही है मेरी बच्ची
फिर गिरेगी, उठना सीखेगी
लड़की को चलना सीखना ही पड़ता है
इस तरह दुनिया का शुक्रिया।

उस तरफ चलना मेरी बच्ची
जिधर सूरज सबके लिए बांहें फैलाए खड़ा हो
उस भीड़ का हिस्सा कभी मत बनना
जहां आग लगाकर चल रहे हैं लोग
उधर नहीं जहां चलने से पहले देखने पड़े ख़तरे
जो भटक गए हैं चलकर, उन्हें थामना
चलना सबको साथ लेकर।

इस तरह चलना
कि क़दमों की आहट से डरे न कोई
ऐसे जैसे चलकर आती है सुबह की पहली किरण
या कोई मीठी याद चुपके से सपनों में
जो बहुत तेज़ चल रहे घबराना नहीं उनसे
ठंडी ओस की तरह छूना ज़मीन को
बुलडोज़र की तरह नहीं मेरी बच्ची।

जहां सबसे अधिक जाम था सड़कों पर
पैदल चलने वाले ही पहुंचे सबसे पहले मंज़िल पर।
दुनिया जो बहुत तेज़ चल रही है
उससे कोई गिला नहीं रखना
चलते-चलते कोई नहीं उड़ सका आज तक
इसीलिए चलना चलने की तरह।
थक कर सुस्ताना किसी नरम घास पर।

दुनिया के सब रहनुमाओं
सब योद्धाओं, मसीहाओं से प्रार्थना है मेरी
जो चल रहे हैं किसी का घर जलाने
किसी से लड़ने बीच सड़क पर
गालियां बकने किसी के मोहल्ले में
या बिना बात कई खेमों में बंटने
मार काट करने
कुछ देर आराम कर लें
शोर न करें अपनी आहट से।

मेरी बच्ची ने अपना पहला क़दम
चलना सीखा है

और अब थक कर सोना चाहती है। 

निखिल आनंद गिरि
('तद्भव' में प्रकाशित)

मंगलवार, 16 जून 2015

चश्मा

 चश्मा कितना भी सुंदर हो
आंखे कितनी भी कमज़ोर
चश्मे का मतलब दो नयी आंखों का होना नहीं होता
इसके अलावा
सही नंबर का चश्मा जरूरी है
सही नंबर की आंखो पर
सही नंबर की दुनिया देखने के लिए
चश्मे से दुनिया साफ दिख सकती है
सुंदर नहीं
कई तरह के चश्मे लगाकर भी नहीं।
आंखे नहीं हो पहली जैसी
और दुनिया हो भी
तब भी नहीं। 

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

सौ बार मर गया...

इस बार कुछ उम्मीद से मैं अपने घर गया...

वीरान चेहरे देखकर, चेहरा उतर गया..


बाबूजी थे खामोश, मां अजनबी लगी,

हर एक पल में सच कहूं, सौ बार मर गया...


ज़ख्मों को देख और भी नमकीन हुए लोग,

ऐ ज़िंदगी, मैं तेरे तिलिस्मों से डर गया..


ये पीठ थी, रक़ीब के खंजर के वास्ते

शुक्रिया ऐ दोस्त, ये अहसान कर गया...


सब झूठ है कि रूह को देता है सुकूं इश्क,

मैं जिस्म तक गया, वो तल्खी से भर गया....


सर्दी पड़ी, अमीरी रज़ाई में छिप गई...

फिर मौत का इल्ज़ाम ग़रीबी के सर गया...

निखिल आनंद गिरि
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ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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