जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....
अभी वक्त की मारामारी है,
कुछ सपनों की लाचारी है,
जगती आंखों के सपने हैं...
राशन, पानी के, कुर्सी के...
पल कहां हैं मातमपुर्सी के....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....
अभी वक्त पे काई जमी हुई,
अपनों में लड़ाई जमी हुई,
पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,
ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,
इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....
जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....
उम्र का क्या है, बढ़नी है,
चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...
घर में मां अकेली पड़नी है,
बाबूजी का क़द घटना है,
सोचूं तो कलेजा फटना है,
इक दिन टूटेगा......
उसने हद तक गद्दारी की,
हमने भी बेहद यारी की,
हंस-हंस कर पीछे वार किया,
हम हाथ थाम कर चलते रहे,
जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...
जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,
सर्वस्व समर्पण करते रहे,
तुम मोल समझ पाए ही नहीं,
ख़ामोश इबादत जारी है,
हर सांस में याद तुम्हारी है...
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...
अभी और बदलना है ख़ुद को,
दुनिया में बने रहने के लिए,
अभी जड़ तक खोदी जानी है,
पहचान न बचने पाए कहीं,
आईना सच न दिखाए कहीं!
जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....
अभी रोज़ चिता में जलना है,
सब उम्र हवाले करनी है,
चकमक बाज़ार के सेठों को,
नज़रों से टटोला जाना है,
सिक्कों में तोला जाना है...
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....
इक दिन नीले आकाश तले,
हम घंटों साथ बिताएंगे,
बचपन की सूनी गलियों में,
हम मीलों चलते जाएंगे,
अभी वक्त की खिल्ली सहने दे...
जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..
मां की पथरायी आंखों में,
इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,
मेरे आने की आस लिए..
उस उम्र का हर पल बोलेगा....
टूटे चावल को चुनती मां,
बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,
दिन भर का सारा बोझ उठा,
सूना कमरा, सिर धुनती मां....
टूटे ऐनक की लौटेगी
रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...
मां तेरे आंचल में सिर रख,
मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,
मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....
तू चूमेगी, पुचकारेगी,
तू मुझको खूब दुलारेगी...
इस झूठी जगमग से रौशन,
उस बोझिल प्यार से भी पावन,
जन्नत होगी, आंचल होगा....
मां! कितना सुनहरा कल होगा.....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....
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बुधवार, 8 दिसंबर 2010
गुरुवार, 4 नवंबर 2010
आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब..
हम रोज़ाना चौंकने के लिए खरीदते हैं अखबार,
हम मुस्कुराते हैं एक-दूजे से मिलजुलकर,
पल भर को...
जैसे आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब...
सबसे निजी क्षणों को तोड़ने के लिए
हमने बनाई मीठी धुनें,
सबसे हसीन सपनों को उजाड़ दिया,
अलार्म घड़ी की कर्कश आवाज़ों ने...
जिन मुद्दों पर तुरंत लेने थे फैसले,
चाय की चुस्कियों से आगे नहीं बढ़े हम..
शोर में आंखें नहीं बन पाईं सूत्रधार,
नहीं लिखी गईं मौन की कुंठाएं,
नहीं लिखे गए पवित्र प्रेम के गीत,
इतना बतियाए, इतना बतियाए
अपनी प्रेमिकाओं से हम...
उन्हीं पीढ़ियों को देते रहे,
संसार की सबसे भद्दी गालियां,
जिनकी उपज थे हम...
जिन पीढ़ियों ने नहीं भोगा देह का सुख,
किसी कवच की मौजूदगी में...
ज़िंदगी भर की कमाई के बाद भी,
नहीं खरीद सके इतना समय,
कि जा पाते गांव...
बूढ़े होते मां-बाप के लिए,
हम नहीं बन सके पेड़ की छांव...
रात की नींद बेचकर,
हमने ढोया,
मालिकों की तरक्की का बोझ...
हम बनते रहे खच्चर...
एक पल को भी नहीं लगा,
कि हमने जिया हो इंसानों-सा जीवन....
जब तक जिए,
भीतर का रोबोट ज़िंदा रहा...
मर चुका देह की खोल में आदमी..
बहुत-बहुत साल पहले....
निखिल आनंद गिरि
हम मुस्कुराते हैं एक-दूजे से मिलजुलकर,
पल भर को...
जैसे आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब...
सबसे निजी क्षणों को तोड़ने के लिए
हमने बनाई मीठी धुनें,
सबसे हसीन सपनों को उजाड़ दिया,
अलार्म घड़ी की कर्कश आवाज़ों ने...
जिन मुद्दों पर तुरंत लेने थे फैसले,
चाय की चुस्कियों से आगे नहीं बढ़े हम..
शोर में आंखें नहीं बन पाईं सूत्रधार,
नहीं लिखी गईं मौन की कुंठाएं,
नहीं लिखे गए पवित्र प्रेम के गीत,
इतना बतियाए, इतना बतियाए
अपनी प्रेमिकाओं से हम...
उन्हीं पीढ़ियों को देते रहे,
संसार की सबसे भद्दी गालियां,
जिनकी उपज थे हम...
जिन पीढ़ियों ने नहीं भोगा देह का सुख,
किसी कवच की मौजूदगी में...
ज़िंदगी भर की कमाई के बाद भी,
नहीं खरीद सके इतना समय,
कि जा पाते गांव...
बूढ़े होते मां-बाप के लिए,
हम नहीं बन सके पेड़ की छांव...
रात की नींद बेचकर,
हमने ढोया,
मालिकों की तरक्की का बोझ...
हम बनते रहे खच्चर...
एक पल को भी नहीं लगा,
कि हमने जिया हो इंसानों-सा जीवन....
जब तक जिए,
भीतर का रोबोट ज़िंदा रहा...
मर चुका देह की खोल में आदमी..
बहुत-बहुत साल पहले....
निखिल आनंद गिरि
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