मंगलवार, 8 नवंबर 2022
मेट्रो से दुनिया
शनिवार, 22 मई 2021
इच्छाओं का कोरस
शनिवार, 15 अगस्त 2015
खिड़की
शनिवार, 20 जून 2015
कचरा
शनिवार, 14 फ़रवरी 2015
लौटना
मंगलवार, 17 जून 2014
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनेस के खिलाफ
बहुत पुराने मित्र हैं मनु बेतख़ल्लुस..फेसबुक पर उनकी ये ग़जल पढ़ी तो मन हुआ अपने ब्लॉग पर पोस्ट की जाए.आप भी दाद दीजिए.
अपने पुरखों के, कभी अपने ही वारिस के ख़िलाफ़
ये तो क्लीयर हो कि आखिर तुम हो किस-किस के ख़िलाफ़
इस हवा को कौन उकसाता है, जिस-तिस के ख़िलाफ़
फिर तेरा वो दैट आया है, मेरे दिस के ख़िलाफ़
मैंने कुछ देखा नहीं है, जानता हूँ सब मगर
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनस के ख़िलाफ़
जब भी दिखलाते हैं वो, तस्वीर जलते मुल्क की
दीये-चूल्हे तक निकल आते हैं, माचिस के ख़िलाफ़
उस चमन में बेगुनाह होगी, मगर इस बाग़ में
हो चुके हैं दर्ज़ कितने केस, नर्गिस के ख़िलाफ़
कोई ऐसा दिन भी हो, जब इक अकेला आदमी
कर सके जारी कोई फरमान, मज़लिस के ख़िलाफ़
कितने दिन परहेज़ रखें, तौबा किस-किस से करें
दिलनशीं हर चीज़ ठहरी, अपनी फिटनस के ख़िलाफ़
हर जगह चलती है उसकी, आप गलती से कभी
दाल अपनी मत गला देना, कहीं उसके ख़िलाफ़
मनु बेतखल्लुस
बुधवार, 2 अप्रैल 2014
उदासी का गीत
उदास हो जाते हैं कई मौसम..
मछलियां भूल जाती है इतराना..
नावें भूल जाती हैं लड़कपन..
पनिहारिनें भूल जाती हैं ठिठोली..
मिट्टी में दब जाते हैं मीठे गीत...
गगरी भूल जाती है भरने का स्वाद..
सूरज परछाईं भूलता है अपनी,
पंछी भूल जाते हैं विस्तार अपना..
किनारे भुला दिए जाते हैं अचानक...
लाचार बांध पर दूर तक चीखता है मौन..
कुछ भी लौटता नहीं दिखता..
नदी के जाने के बाद..
कहीं कोई ख़बर नहीं बनती,
नदी के सूख जाने के बाद..
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 25 अगस्त 2013
कुछ है, जो दिखता नहीं..
जब ठठाकर हंस देती है सारी दुनिया,
बिना किसी बात पर..
अचानक कंधे पर बैठ जाती है गौरेया
कहीं किसी अंतरिक्ष से आकर..
चोंच में दबाकर सारा दुख
उड़ जाती है फुर्र..
फिर न दिखती है,
न मिलती है कहीं..
मगर होती है
सांस-दर-सांस
प्रेम की तरह..
गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013
हमारी रातों में सपने हैं, नींद नहीं...
और आंखों को आंसू आते हैं...
देश में कहीं कोई हड़ताल भी नहीं हुई,
और आप कहते हैं बेवफाई बड़ी चीज़ है...
जहां राजनीति नहीं, वहां सिर्फ प्यार है..
और प्यार से कवि बना जा सकता है
लेखक बना जा सकता है...
बहुत हुआ तो वैज्ञानिक भी,
मगर एक ऐसा आदमी नहीं,
जिसे गणमान्य समझा जाए।
मेरे पिता से पूछिए,
उन्हें गणमान्य आदमी कितने पसंद हैं..
वो चाहते रहे हमें एक ख़ास आदमी बनाना...
लाल बत्ती न सही, गाड़ी ही कम से कम...
और हम पैदल चलते रहे सड़कों पर,
पांच रूपये की मूंगफली और हथेली थामे...
हम दोनों एक ही अखबार पढ़ते हैं...
अलग-अलग शहरों में....
पिता का समाज और है,
हमार समाज कुछ और...
फिर भी हम एक परिवार के सदस्य तो हैं....
जहां मां जोड़ती है दोनों को..
और बालों का ख़ालीपन भी...
उन्हें नींद नहीं आती हमारी फिक्र में ...
हमें नहीं आती कि हमारे पास सपने हैं...
जो पूरे नहीं होंगे कभी...
और देखिए किसी सरकारी दफ्तर की तरह,
हर तरफ रातें हैं,
मगर किसी काम की नहीं....
वो सुबह का वक्त था
कि एक दिन पटरियों के दोनों ओर,
पांव फैलाकर चल रहे थे हम
और तुम्हारी हथेली थी मेरी आंखों पर..
मैंने पहली बार एक सपने की आवाज़ सुनी थी...
देखना एक दिन हम भी अमीर हो जाएंगे
और हमारे बच्चे आवारा....
उन्हें मालूम होगा सिर्फ ख़ून का रंग
और फिर भी शरीफ कहे जाएंगे
उस सपने को चुराकर बनेगी फिल्म
तो नाम क्या रखा जाएगा ?
निखिल आनंद गिरि
(संवदिया पत्रिका में प्रकाशित)
रविवार, 4 नवंबर 2012
एक डरे हुए आदमी का शब्दकोष
जिसकी प्रेमिका मेज़ पर पड़ा ग्लोब घुमाती है
तो वो भूकंप के डर से
भागता है बाहर की ओर
पसीने से तरबतर,
बाहर लालची जेबें हैं लोगों की
जेब में ज़बान है और मुंह में पिस्तौलें...
बाहर कहीं आग नहीं है
मगर बहुत सारा धुंआ है..
गाड़ियों का बहुत सारा शोर है
जैसे पूरा शहर कोई मौत का कुंआ है...
मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है
जो शहर में अपनी पहचान बताने से डरता है
और गांव में अब कोई पहचानता नहीं है....
सिर्फ इसीलिए बचा हुआ है वह आदमी
कि नहीं हुए धमाके समय पर इस साल...
कि कुछ दिन और मिले प्यार करने को...
कुछ दिन और भूख सताएगी अभी...
उसने हाथ से ही उखाड़ लिया है
दाईं ओर का आखिरी दुखता दांत
सही समय पर दफ्तर पहुंचना मजबूरी है
और दानव डाक्टर की फीस से बचना भी ज़रूरी है....
दुखे तो दुखे थोड़ी देर आत्मा...
बहे तो बहे थोड़ी देर खून....
अपरिचित नहीं है ख़ून का रंग
अभी कल ही तो कूदा था एक स्टंटमैन
पंद्रह हज़ार करोड़ में बने एक मॉल से...
और उसकी लाश ही वापस आई थी ज़मीन पर...
पंद्रह हज़ार के गद्दे बिछे होते ज़मीन पर
तो एक स्टंटमैन बचाया जा सकता था...
मगर छोड़िए, इस बेतुकी बहस को
कविता में जगह देने से
शिल्प बिगड़ने का ख़तरा है...
तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
जिसका अर्थ किसी हिंदू हिटलर की मूंछ है....
और उसके दांतों से वही महफूज़ है...
जिसके शरीर पर जनेऊ है
और पीछे एक वफादार पूंछ है...
डरा हुआ आदमी सड़क पर देखता सब है
सड़क पर जल उठी लाल बत्ती
एक भूखा, मासूम हाथ
काले शीशे के भीतर घुसा
भीतर बैठे कुत्ते ने काट खाया हाथ
कब कैसे पेश आना है
ख़ूब समझते हैं एलिट कुत्ते
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोश में
गांव सिर्फ इसीलिए सुरक्षित है
कि वहां अब भी लाल बत्ती नहीं है
दरअसल उस डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
भिखारी की फटी हुई जेब है
ख़ाली हो रहे हैं दिन-हफ्ते
और भरे जाने का फरेब है...
एक डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
पल रहे बच्चे का पहला रुदन है...
जो गांव की सब ज़मीन बेचकर
पालकी में लादकर
उबड़-खाबड़ रास्तों से लाया गया
शहर के इमरजेंसी वार्ड में
जिसने एक बोझिल जन्म लेकर आंखे खोलीं
ख़ूब रोया और मर गया....
उस डरे हुए आदमी के दरवाज़े पर
हर घड़ी दस्तक देता बुरा समय है
जो दरवाज़ा खुलते ही पूछेगा
उसी भाषा, गांव और जाति का नाम
फिर छीन लेगा पोटली में बंधा चूरा-सत्तू
और गोलियों से छलनी कर देगा...
इस बुरे समय की सबसे अच्छी बात ये है कि
एक डरा हुआ आदमी अब भी
सुंदर कविता लिखना चाहता है...
निखिल आनंद गिरि
(यह कविता पाखी के अक्टूबर-नवंबर अंक में छपी है। इसके साथ ही एक और कविता ''लिपटकर रोने की सख्त मनाही है'' को भी पत्रिका में जगह मिली है।)
शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011
सुनो मठाधीश !
हिंदी की साहित्यिक मैगज़ीन पाखी के अक्टूबर अंक में प्रकाशित कविता। रांची से एक पाठक और फेसबुक फ्रेंड प्रशांत ने ये कविता पढ़ी और मुझे ये स्कैन कॉपी भेजी..उनका शुक्रिया.. |
और फिर झुक जाएं अपने घुटनों पर...
और आप तने रहें ठूंठ की तरह,
भगवान होना इस सदी का सबसे बड़ा बकवास है हुज़ूर !
काश! पीठ पर भी आंखे होती आपकी
मगर आपके तो सिर्फ कान हैं...
जिनमें भरी हुई है आवाज़
कि आप, सिर्फ आप महान हैं...
काश होती आंखे तो देख पाते
कि कैसे पान चबा-चबा कर चमचे आपके,
याद करते हैं आपकी मां-बहनों को...
क्या उन्हें लादकर ले जाएंगे साथ आखिरी वक्त में...
सब छलावा है, छलावा है मेरे आका !
वो कुर्सी जो आपको कायनात लगती है,
दीमक चाट जाएंगे उसकी लकड़ियों को,
और उस दोगली कुर्सी के गुमान में
आप घूरते हैं हमें..
हमारी पुतलियों के भीतर झांकिए कभी...
हमारे जवाब वहीं क़ैद हैं,
हम पलटकर घूर नहीं सकते।
अभी तो पुतलियों में सपने हैं,
मजबूरियां हैं, मां-बाप हैं...
बाद में आपकी गालियां हैं, आप हैं...
चलिए मान लिया कि सब आपकी बपौती है...
ये टिपिर-टिपिर चलती उंगलियां,
उंगलियों की आवाज़ें...
ये ख़ूबसूरत दोशीज़ा चेहरे
जिनकी उम्र आपकी बेटियों के बराबर है हाक़िम...
हमारी भी तो अरज सुनिएगा हुज़ूर...
निखिल आनंद गिरि
(http://www.pakhi.in/oct_11/kavita_nikhil.php)
बुधवार, 5 अक्टूबर 2011
मुझे ये शहर तो ख़्वाबों का कब्रिस्तान लगता है..
वही चेहरा मुझे अक्सर मेरा भगवान लगता है..
हमारे गांव यादों में यहां हर रोज़ मरते हैं,
मुझे ये शहर तो ख़्वाबों का कब्रिस्तान लगता है..
ज़रा फुर्सत मिले तो देखिए उसको अकेले में,
वो गोया भीड़ में अच्छा-भला इंसान लगता है..
उजाले ही उजाले हों तो कुछ घर सा नहीं लगता..
अंधेरों के बिना भी घर बहुत वीरान लगता है..
मेरे ख्वाबो की गठरी को समंदर में बहा डालो,
मेरे कमरे में रद्दी का कोई सामान लगता है..
मैं किसको उम्र के इस कारवां में हमसफर समझूं.
मुझे हर शख्स बस दो दिन यहां मेहमान लगता है..
ज़रा मेरी तरह पत्थर पे सजदे करके भी देखे
जिसे भी इश्क नन्हें खेल सा आसान लगता है....
मैं ज़िंदा हूं तुम्हारे बिन, यक़ीं ख़ुद भी नहीं होता,
यहां पहचान साबित ना हो तो चालान लगता है..
निखिल आनंद गिरि
मंगलवार, 6 सितंबर 2011
अंधेरे में सुनी जाती हैं सिर्फ सांसें...
और ये भी नहीं कि आप जी रहे हैं भरपूर
मोहल्ले का आखिरी मकान
जहां बंद होती है गली
जहां जमा होता है कचरा
या शहर के आखिरी छोर पर
जहां जमा होता है डरावना अकेलापन
वहां जाकर पूछिए किसी से एक सांस की क़ीमत
या फिर वहां जहां जात पूछ कर रखे जाते हैं किराएदार
और ग़लती से आपका मकान मालिक
एक दिन पूछ देता है नाम
और जब आप सांसे भर कर बताते हैं सिर्फ नाम
तो अगली सांस भरने से पहले ही 'बाप' का नाम
यानी जन्म लेने भर से ही ज़रूरी नहीं
कि आप जब तक जिएं हर जगह सांस ले सकें...
पिता जब ताकते हैं आखों में
शाम को देर से आने पर
या मां पकड़ लेती है कोई गलती
जो नहीं की जाती हर किसी से साझा
सांसें हो जाती है सोने-चांदी से भी क़ीमती
अगर भूल गए हों आप कोई नाम
या भूलने लगे हों खुश रहने के तरीके
तो बंद आंखों से एक सांस भरना
ज़रूरी हो जाता है बहुत
सांसें तब भी ज़रूरी हैं
जब ज़रूरी नहीं लगता जीना
या फिर सबसे ज़्यादा ज़रूरी लगता हो
यानी तब जब आप सच के साथ हों
एकदम अकेले....एक तरफ
और पूरी दुनिया दूसरी तरफ
या तब भी जब आखिरी कुछ सांसे ही बची हों
और मिलना बाकी हो उनसे
जिन्होंने आपके साथ बांटी हो सांसें....
एकदम अंधेरे में...
जब दिखता नहीं कुछ भी
और सिर्फ सुनी जा सकती हो सांसें...
निखिल आनंद गिरि
सोमवार, 27 जून 2011
रो चुके बहुत...
उन लड़कियों से भी जिनसे कभी मिले नहीं...
और मिलना संभव भी नहीं...
जहां हम नहाते हैं,
उसकी दीवारों पर एक बिंदी देखती है लाल रंग की...
शर्म से लाल है शायद...
बताइए क्या प्यार करने को इतनी वजह काफी नहीं...
क्या हंसना सिर्फ इसीलिए नहीं होता
कि रो चुके होते हैं हम बहुत....
बहुत रो चुके होते हैं हम....
और भूल जाते हैं अगली बार रोना।
कभी-कभी अकेले में
हम सबसे बुरे होते हैं...
और तब मरने के लिए इतनी वजह काफी होती है कि
जीने का तरीका ही नहीं आया
कभी-कभी मरना शौक की तरह ज़रूरी लगता है...
कोई डांटे इस बुरी लत पर
और हम आधा छोड़कर मरना, जी उठें...
और सुनिए, यहां गोली मार देने के लिए
ये ज़रूरी नहीं कि आपका झगड़ा हो...
इतनी वजह काफी है कि
आपके पास बंदूक है...
निखिल आनंद गिरि
(इस कविता को हिंदी मैगज़ीन पाखी के जून अंक में भी जगह मिली है)
शुक्रवार, 14 जनवरी 2011
बाईं तरफ चलने में मौत है...
तो चलते थे बाएं होकर....
सख्त हिदायत थी किताबों में...
फिर थोड़ी समझ बढ़ी,
देखने का मन हुआ...
कि अगर बाईं ओर सारे पैदल हैं,
तो दाईं ओर कौन है...
बीच में इतनी गाड़ियां, इतने धुएं
और इतने चुंबन थे कि,
सच कहूं कुछ देखने का मन ही नहीं किया...
कुछ सोचने का भी नहीं,
कि गांव का टुन्ना जिसने आज तक सड़क नहीं देखी,
वो किस ओर चलता है...
और जिनके घरों के बाईं ओर,
वास्तु के हिसाब से या तो नालियां थीं,
या फिर कूड़ेदानों की जगह...
यूं कुछ दिन तक हम चलते रहे लेफ्ट में...
जो पैदल मिला, मुस्कुरा दिए...
गुमान था कि कायदे से चलते हैं...
फिर एक दिन अचानक,
हमारे ठीक आगे का आदमी,
जो चल रहा था बाएं...
खिसक लिया बीच वाली कार में बैठकर....
एक और सड़क के बीचोंबीच चिल्लाने लगा,
और उसे कुचल दिया गया तेज़ी से...
कुछ ने सहानुभूति में खूब बकीं गालियां...
कुछ ने तमाशा किया और चल पड़े...
कि उन्हें समय से घर लौटना था,
बीवियों का ब्लाउज़ और बच्चों का डेरी मिल्क लेकर....
हालांकि बाद में मालूम हुआ,
सड़क पर एक नोट गिरा था,
जिसे लपकने गया था कुचला हुआ आदमी....
फिर इतना डर, इतनी घिन्न
कि सड़क पर चलना छूट गया....
हमने ढूंढी वो नसीहत भरी किताबें...
और चीरकर उड़ा दी दाएं-बाएं...
सारा झगड़ा सड़क पर चलने का है जनाब....
आकाश में उड़ने वाले न दाएं चलते हैं न बाएं..
वो देखते हैं सड़क पर मौत
और चीरते जाते हैं हवाएं...
जितना हवाओं में ज़हर भरता है,
उनकी उम्र लंबी होती है...
निखिल आनंद गिरि
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रविवार, 28 नवंबर 2010
एक उदास कविता...जैसे तुम
गांव में एक उम्मीद भी है,
गांव में है शहर का रास्ता
और गांव में मां भी है...
शहर सिर्फ खो जाने के लिए नहीं है..
धुएं में, भीड़ में...
अपनी-अपनी खोह में...
शहर सब कुछ पा लेना है..
नौकरी, सपने, आज़ादी..
नौकरी सिर्फ वफादारी नहीं,
झूठ भी है, साज़िश भी...
उजले कागज़ पर सफेद झूठ...
और जी भरकर देह हो जाना भी..
देह बस देह नहीं है...
उम्र की मजबूरी है कहीं,
कहीं कोड़े बरसाने की लत है...
सच कहूं तो एक ज़रूरत है..
और सच, हा हा हा..
सच एक चुटकुला है....
भद्दा-सा, जो नहीं किया जाता
हर किसी से साझा...
बिल्कुल मौत की तरह,
उदास कविता की तरह....
और कविता...
...................
सिर्फ शब्दों की तह लगाना
नहीं है कविता,..
वाक्यों के बीच
छोड़ देना बहुत कुछ
होती है कविता...
जैसे तुम...
निखिल आनंद गिरि
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गुरुवार, 4 नवंबर 2010
आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब..
हम मुस्कुराते हैं एक-दूजे से मिलजुलकर,
पल भर को...
जैसे आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब...
सबसे निजी क्षणों को तोड़ने के लिए
हमने बनाई मीठी धुनें,
सबसे हसीन सपनों को उजाड़ दिया,
अलार्म घड़ी की कर्कश आवाज़ों ने...
जिन मुद्दों पर तुरंत लेने थे फैसले,
चाय की चुस्कियों से आगे नहीं बढ़े हम..
शोर में आंखें नहीं बन पाईं सूत्रधार,
नहीं लिखी गईं मौन की कुंठाएं,
नहीं लिखे गए पवित्र प्रेम के गीत,
इतना बतियाए, इतना बतियाए
अपनी प्रेमिकाओं से हम...
उन्हीं पीढ़ियों को देते रहे,
संसार की सबसे भद्दी गालियां,
जिनकी उपज थे हम...
जिन पीढ़ियों ने नहीं भोगा देह का सुख,
किसी कवच की मौजूदगी में...
ज़िंदगी भर की कमाई के बाद भी,
नहीं खरीद सके इतना समय,
कि जा पाते गांव...
बूढ़े होते मां-बाप के लिए,
हम नहीं बन सके पेड़ की छांव...
रात की नींद बेचकर,
हमने ढोया,
मालिकों की तरक्की का बोझ...
हम बनते रहे खच्चर...
एक पल को भी नहीं लगा,
कि हमने जिया हो इंसानों-सा जीवन....
जब तक जिए,
भीतर का रोबोट ज़िंदा रहा...
मर चुका देह की खोल में आदमी..
बहुत-बहुत साल पहले....
निखिल आनंद गिरि
शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
लाशों के शहर में...
फट जाएंगी नसें...
सिकुड़ जाएगा शरीर,
खून उतर आएगा आंखों में...
हम पड़े होंगे निढ़ाल,
अपने-अपने कमरों में...
कोई नहीं आएगा रोने,
हमारे लाशों की सड़ांध पर,
अगल-बगल पड़ी होंगी
अनगिनत लाशें....
शहरों के नाम नहीं होंगे तब,
लाशों के शहर होंगे सब
फिर हम बिकेंगे महंगे दामों पर,
हम माने, हमारी लाशें...
नंगे, निढ़ाल शरीर की
लगेंगी बोलियां...
हमारी चमड़ी से अमेरिका पहनेगा जूते..
हमारी आंखों से दुनिया देखेगा चीन...
किसी प्रयोगशाला में पड़े होंगे अंग
वैज्ञानिक की जिज्ञासा बनकर...
तुम देखना,
कितनी महंगी होगी मौत...
इस ज़िंदगी से कहीं बेहतर...
दो कौड़ी की ज़िंदगी....
तुम्हारे बिन.....
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 17 अक्टूबर 2010
प्यारी झुकी हुई रीढ़ के नाम....
हम तुम्हारी दी हुई रीढ़ से परेशान हैं....
गाहे-बगाहे झुक जाती है,
या झुका दी जाती है...
गलत उम्र में....
जिस उम्र में पिता के पांव छूने थे...
और बहुत से बुद्धिजीवी मुच्छड़ों के...
दिमाग ने कहा,
रीढ़ बन जा ढ़ीठ
तो तनी रही पीठ...
जिस उम्र में पढ़नी थी किताबें...
और रटने थे उबाऊ पहाड़े....
या फिर कंठस्थ करने थे सूत्र
कि ज़हरीली गैसों के निकनेम कैसे पड़े.....
हम खड़े रहे स्कूल की बालकनी में...
घंटों संभावनाएं तलाशते...
बांहों में बांहे पसारे....
इसी तनी रीढ़ के सहारे..
हम चले थे लेकर रौशनी की तरफ...
मां के कुछ मीठे पकवान,
और छटांक भर ईमान.....
जो शहर के लिए अनजाने थे...
अब ठीक से याद नहीं,
मगर तब भी रीढ़ तनी हुई थी...
फिर अचानक...
कुछ लोग थे जो गड़ेरिए नहीं थे...
वो शर्तिया पहली नज़र का धोखा रहा होगा..
मगर उन्हें चाहिए थे खच्चर...
कि जिनकी पीठ पर लाद सकें...
वो अपनी तरक्की का बोझ..
उन्होंने छुआ हमारी सख्त पीठ को...
और एक सफेद कागज़ पर लिए नमूने....
हमारी भोली ख्वाहिशों का....
वो ज़ोर से हंसे...
और हमने अपनी आंखे मूंद ली...
(और हमें दिखा अपने मजबूर पिताओं का चेहरा)
फिर अचानक झुक गई रीढ़...
और हम उम्र से काफी पहले...
हे ईश्वर! बूढ़े हो गए...
निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...
बुधवार, 13 अक्टूबर 2010
स्तब्ध कर देने का सुख...
खुश होने के तरीके...
जो भी दिखे सामने,
उछाल दें उसकी टोपी
और हंसें मुंह फाड़कर
बदहवासी की हद तक...
जिसे सदियों से जानने का भरम हो,
सामने पाकर ऐंठ ले मुंह
उचकाकर कंधे, बोलें-
'हालांकि, चेहरा पहचाना-सा है
मगर दिमाग का सारा ज़ोर लगाकर भी
माफ कीजिए, याद नहीं आ रहे आप'!
स्तब्ध कर देने का सुख,
फैशन है आजकल...
पिता की अक्ल भरी बातें,
सुनते रहें लगाकर कानों में हेडफोन,
और नाश्ते के लिए रिरियाती मां को
दुत्कार दें हर सुबह,
साबित कर दें भिखारन....
आह! सुख कितना सहज है..
आईए हम हो जाएं अश्वत्थामा
नहीं, नहीं, युधिष्ठिर
और खूब फैलाएं भ्रम
कि जो मरा वो हम थे...
आह! छल का सुख
मरते रहें अश्वत्थामा, हमें क्या...
पृथ्वी से निचोड़ ली जाएं
सब प्राकृतिक संपदाएं,
पेड़, फूल, जानवर और प्यार...
सब हो जाएं निर्वस्त्र...
ममता से बांझ धरती पर,
अभी-अभी नवजात जैसे...
आह! एक पीढ़ी का वर्तमान
बोझिल, सूना, नीरस
आह! एक बांझ भविष्य का रेखाचित्र...
खुश होने को गालिब ये खयाल अच्छा है....
निखिल आनंद गिरि
ये पोस्ट कुछ ख़ास है
नन्हें नानक के लिए डायरी
जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...
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कौ न कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ ...
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हिंदी सिनेमा में आखिरी बार आपने कटा हुआ सिर हाथ में लेकर डराने वाला विलेन कब देखा था। मेरा जवाब है "कभी नहीं"। ये 2024 है, जहां दे...
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छ ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़...