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रविवार, 12 जनवरी 2014

नसरीन उर्फ लड़की, समय उर्फ तेज़ाब..

ज़रूरी नहीं कि हर वो बात या किस्सा जो आप लिखना चाहें, आप ही लिखें..प्रेम भारद्वाज ने एक लेख पाखी के संपादकीय के लिए लिखा, उसी का एक हिस्सा ये कहानी है जो आपबीती के पाठकों के लिए शेयर कर रहा हूं..पढ़िए और महसूस कीजिए इस समय को जो हमारे चेहरे पर तेज़ाब डालने को बेताब है..ये एक सच्ची घटना है..

नसरीन नाम किसने रखा, ठीक से नहीं मालूम, मगर जब होश संभाला तो पाया कि लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं। होश संभालने पर मैं इस हकीकत से वाकिफ हुई कि जो मेरे अब्बा-अम्मी हैं, उन्होंने मुझे जन्मा नहीं। जब तीन साल की थी तब मुझे गोद लिया गया। जिन्होंने गोद लिया वे कुरैशी हैं। जामा मस्जिद के पास की तंग गलियों के बाशिंदे। अब्बा प्यार करते थे, मगर अम्मी...। वे हर बात पर मारतीं... इसलिए कि वह अपने रिश्तेदारों में से किसी को गोद लेना चाहती थीं... अब्बा नहीं माने थे... अम्मी मेरे लंबे बालों की खींचकर मारतीं...। अंधेरे कमरे में बंद कर देतीं...मुझे मारने के लिए अलग-अलग साइज की छड़ियां थीं... गलती के हिसाब से छडि़यों का चुनाव होता, पिटाई के वास्ते। अम्मी के छूते ही मैं दहशत से भर जाती... हड्डियों को कंपा देने वाली सिहरन होती। थोड़ी बड़ी हुई तो पहला एहसास यह हुआ कि मुझ जैसे बदनसीबों के सितम भी उम्र के साथ बड़े हो जाते हैं। जब 12-13 साल की थी तब किसी न की गई गलती पर अम्मी ने मुझे नंगी कर घर से घंटा भर के लिए बाहर कर दिया था। 15-16 साल के होते ही शादी की बात होने लगी... मौसी के बेटे का रिश्ता आया जिसके साथ शादी करने से मैंने मना कर दिया। ऐसा करने के लिए मौसी के बेटे ने ही मुझसे कहा था। इससे नाराज होकर अम्मी ने बहुत मारा। दुःखी होकर मैंने खुदकुशी की कोशिश की, लेकिन खुदा के दरवाजे मेरे लिए बंद थे। सत्रह साल की उम्र में एक रंगाई-पुताई करने वाले आदमी के साथ मेरा निकाह कर दिया गया।

शादी के बाद शौहर मेरे जिस्म का मालिक था... मालिक ने जिस्म को रौंदा। कोख में उसने बीज बोए। दो बेटियों की शक्ल में फसल भी काटी। औरत का अपना जिस्म, अपनी कोख, उससे जन्मने वाली औलाद अपनी कहां होती है। वह तो जमीन होती है-- कभी उपजाऊ, कभी ऊसर, कभी लावारिस, कभी सरकारी। जमीन की खुद पर मिल्कियत कहां, वह हमेशा ही दूसरों के लिए खोदी जाती है, उस पर फसलें उगाईं और काटी जाती हैं, खरीदी और बेची जाती हैं। इस जमीन की अच्छी फसल बेटा माना जाता है, जो नगदी होता है। इस नगदी फसल की हसरत में शौहर ने बीज फिर बोया। मगर कुछ गड़बड़ी हो गई। मैं दर्द से सारी रात छटपटाती रही... वह बगल में लेटा मेरे दर्द को ड्रामेबाजी बता औरत को रुसवा करता रहा। अगले दिन खुद ही अस्पताल गई। अबोर्सन या मिसकैरिज हो गया था। मां के पास पहुंची। जवाब मिला, अब हम कुछ नहीं जानते, तुम जानो। मैं अब शौहर के पास लौटना नहीं चाहती थी। बेटियां भी उसी के पास थीं। एक पार्क की बेंच पर बैठी घंटों रोती रही। चुप कराने वाला कोई भी नहीं था। बहते आंसुओं के बीच संकल्प लिया कि चाहे जो हो जाए उस नर्क में नहीं लौटना है, वहां पल-पल मरने से बेहतर है खुद को खड़ा करने की कोशिश में मिट जाऊं।

एक कमरा लिया। वह बार-बार लौटने के लिए कहता रहा। मैंने मना कर दिया। अपने पैरों पर खड़े होने को शौहर ने मेरी गुस्ताखी समझा। उसने तलाक ले लिया। मुझे मेरी बेटियां भी छीन लीं। छह महीने बाद उसने फोन किया कि बेटियां याद कर रही हैं। मैं खुद भी बेटियों से मिलना चाहती थी। हम दिल्ली के इंद्रप्रस्थ पार्क में मिले। वह उन्नीस जून 2007 का एक गर्म दिन था जो मेरी जिंदगी में सबसे भयानक और दर्दनाक मोड़ लाने वाला था। उसने फिर वापस लौटने की जिद की, पर फिर मेरा इंकार। मैं बेटियों के साथ खुश थी कि तभी मौका पाकर उसने पीछे से मेरे चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। मैं दर्द से चीखने-चिल्लाने लगी। लोग मदद को आगे बढ़े। वह भाग गया। पुलिस आई। मेरे बदन का मांस गल रहा था। चेहरा, कंधा, पीठ, सीना, पेट, कमर... सब खदबद हो रहा था। उस दर्द को बयान करने के लिए अल्फाज नहीं हैं मेरे पास। मुझे सफदरजंग ले जाया गया... अस्पताल ने भर्ती करने से इंकार कर दिया। उसी हाल में रिश्तेदारों, मां, बुआ, मौसी सबके पास मदद के लिए गई। सबने दरवाजे बंद कर लिए। तीन दिनों तक अकेली पड़ी जलती और गलती रही। जहां-जहां तेजाब पड़ा था वहां से धुआं उठ रहा था। मोहल्ले के कई दरवाजों पर भी दस्तक दी। कोई दरवाजा नहीं खुला? गली में एक बड़े आदमी थे। उनके पास एक पुराना खंडहरनुमा मकान खाली था जिसमें हड्डी का चूर्ण बनाने का कारोबार था। उन्होंने रहम किया और तीसरी मंजिल पर रहने की इजाजत दे दी। जहां मैंने पनाह पाई... वहां न कोई दरवाजा था... न बल्ब, न रोशनी, न बिस्तर, न मैं सो पा रही थी... न सोच पा रही थी...। उस खंडहर में पड़ी रही। मेरे बदन से मवाद तीन महीने तक बहता रहा था। घाव फैल रहे थे। तीखी दुर्गंध। कोई पास नहीं। आना भी नहीं चाहता था। यहां तक कि जख्म वाले हिस्से में चींटियां रेंगने लगी थीं। मैं अपने ही जिस्म पर रेंगने वाली चींटियां को बहुत गौर से देखती रही। वे चींटियां मुझे खाती थीं। तब मैं कुछ भी नहीं सोच पा रही थी... न जिंदा रहने के बारे में, न मरने के बारे में। और न उस खुदा के बारे में ही जिसने हमें बनाया और हमारी तकदीर लिखी। कभी कोई कुछ खाने को दे जाता, कभी कई दिनों तक भूखी रहती। एक दिन उस खंडहर से भी मुझे जाने का हुक्म मिला क्योंकि उस खंडहर को तोड़कर नया मकान बनाया जाना था। कहां जाती? कुछ समझ में नहीं आया तो जामा मस्जिद चली गई। फकीरों की पंक्ति में बैठी इमाम बुखारी साहब से मिलने का इंतजार करती रही, मदद की उम्मीद में। महीनों मैंने उनसे मिलने की कोशिश की, मगर नहीं मिल पाई। एक दिन उनकी सुरक्षा में खड़े पुलिस वाले से कहा कि अगर आज नहीं मिले तो खुदकुशी कर लूंगी। तब जाकर बुखारी साहब से मिलवाया गया। उन्होंने मेरी मदद की और मेरा इलाज शुरू हो गया। इसी बीच बिहार का एक गुंडा टाइप का लड़का मेरी मदद के लिए आगे बढ़ा। मगर जल्द ही मुझे समझ आ गया कि वह बाकी बचे हुए जिस्म को हासिल करना चाहता था। कमरा मुझे छोड़ना पड़ा। फिर एक आंटी के यहां शरण। वहां भी वह लड़का पहुंच गया। उसे मेरा बाकी बचा हुआ जिस्म चाहिए था। उसने गले हुए जिस्म के इलाज में इसलिए मदद की थी कि ताकि बाकी बचे जिस्म को गिद्ध की तरह खा सके। एक दिन वहां से भी भगा दी गई। इसके बाद एक 75 साल के बुजुर्ग ने पनाह दी। वे फुटपाथ पर ताबीज वगैरह बेचते थे। वे मुझे बाहर से ताला लगाकर जाते थे। मैं खुले जख्मों पर दुपट्टा डालकर दिन भर पड़ी रहती। हफ्ता भर भी नहीं बीता था कि उनके चेहरे से भी नकाब हट गया। दादा की उम्र वाले बुजुर्ग ने शादी का प्रस्ताव रखा। मैं वहां से भी निकली...। अब कहां जाऊं? दुनिया बहुत बड़ी है, मगर उसमें मेरी जगह कहीं नहीं थी। वह बारिश का दिन था। मैं बाहर निकल पड़ी, जख्म के टांके खुले थे। मैं रो रही थी। मेरे आंसुओं को बारिश की बूंदें धो रही थीं या बारिश की बूंदों को मेरे आंसू, यह तय कर पाना मुश्किल था। शाम को कुछ लोगों से चंदा किया। एक प्रॉपर्टी डीलर कमरा देने को राजी हुआ इस शर्त पर कि उसकी पत्नी बन जाऊं, मैंने इंकार किया। पत्नी की पीड़ा मैं झेल चुकी थी। दुश्वारियों से लड़ती-जूझती मैं गिरती रही, उठती रही। रोना जरूर भूल गई थी। कुछ करना था, लेकिन क्या यह ठीक से मालूम नहीं था। इसी जद्दोजहद में फातिमा दीदी से भेंट हुई। अब उन्हीं के साथ रहती हूं, उनके ही कुछ काम करती हूं। कठपुतलियों का शो करती हूं। मैं खुद भी कठपुतली हूं जिसके धागे पता नहीं किन हाथों में हैं। जिंदगी का एक ही ख्वाब है कि बेटियों को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बना दूं। मगर है तो यह सपना ही... सपना देखने का हौसला मैंने नहीं छोड़ा। अभी भी मुझे ठीक होने के लिए लाखों रुपए चाहिए जो एक नामुमकिन चाहत है, चाहत से ज्यादा जरूरत...।
...

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

मांएं डरने के लिए जीती हैं..

हमारा बचपन ऐसा नहीं कि
गाया जा सके उदास रातों में...
हमारे नसीब में नहीं थे सितारे,
जिन्हें तोड़कर टांक सकें स्याह रातों में
उम्र बढ़नी थी, कोई रास्ता नहीं था....
वरना उस एक मोड़ पर रोक लेते खुद को,
कि जहां से ज़िंदगी सबसे उबाऊ और मजबूर रास्ते लेती है..

पूछो अपनी मांओं से,
पूछो पिताओं से....
कि जब कोई रास्ता नहीं रहा होगा....
तो मजबूरी में करनी पड़ी होगी शादी...
और फिर शाकाहारी पत्नियां मांजती रही होंगी बर्तन,
और परोसती रही होंगी मांस अपने पतियों को...

और फिर बेटे हुए होंगे,
बंटी होंगी मिलावटी मिठाईयां..
और बेटियां होने पर सास ने बकी होगी गालियां...
पत्नियां खून का घूंट पीकर रह जाती होंगी...
और पति चश्मा इधर-उधर करते हुए...
पतिव्रता पत्नियां फ़रेब के किस्सों से ज़्यादा कुछ भी नहीं...

बड़े होते बेटों से रहती होगी उम्मीद,
कि उनकी एक हुंकार से सिहर उठेगी दुनिया,
जबकि असल में वो इतना डरपोक थे कि
कूकर की सीटी से भी लगता रहा डर,
कहीं फट न पड़े टाइम बम की तरह...
दीवार पर छिपकली आने भर से..
मूत देते थे सुकुमार लाडले...

और समझिए ऐसे दोगले समय में,
गूंथी हुई चोटियां हथेली में लेकर,
कैसे किया होगा हमने प्यार...
और समझो कितनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ी होगी,
ये कहने के लिए, बिन पिए...
कि तुम्हारी नंगी पीठ पर एक बार फिराकर उंगलियां....
लिखना चाहता हूं अपना नाम

हालांकि एक मर्द है मेरे भीतर,                                                            
जो कर सकता है हर किसी से नफरत..
गुस्से में मां को भी माफ नहीं करता
हालांकि ये भी सच है कि...
मांएं डरने के लिए ही जीती हैं,
पहले मजबूर पिताओं से,
फिर मर्द होते बेटों से..

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक मेंप्रकाशित)

सोमवार, 16 जुलाई 2012

कई संपादक अब चीयरलीडर होते जा रहे हैं..


राजदीप सरदेसाई
भारतीय पत्रकारिता की सबसे बड़ी हस्तियों में से एक स्व प्रभाष जोशी की 76वीं सालगिरह पर उन्हें याद करते हुए CNN-IBN के एडिटर-इन-चीफ राजदीप सरदेसाई से हुई हमारी (प्रेम भारद्वाज और मेरी) ये  बातचीत पाखी पत्रिका के प्रभास जोशी विशेषांक में छपी है...चूंकि राजदीप अंग्रेज़ी के पत्रकार हैं, तो इस पूरी बातचीत को लगभग हिंदी में उतारने का काम आपके इस ब्लॉगर साथी निखिल आनंद गिरि ने किया है..आप पढ़कर अपनी राय दे सकते हैं...


हम ये जानना चाहेंगे कि प्रभाष जोशी जिस मूड की पत्रकारिता करते थे, जिस सरोकार की,या मूल्यों की..या फिर जिनसे उनकी टकराहटें थीं..उस तरह की पत्रकारिता में उनके जाने के बाद जो वैक्यूम या शून्यता पैदा हुई है..या क्या हुआ है? वो चीज़ें बढ़ी हैं, घटी हैं...किस रूप में देखते हैं उनकी पत्रकारिता को...
देखिए, मैं..25 साल का था 1990 में और मुझे मेरे अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया ने तब कहा, आडवाणी जी की जो रथयात्रा थी, उसको आप रिपोर्ट कर लीजिए..समय था 1990 का और सोमनाथ से लेकर भोपाल तक मैंने वो रथयात्रा कवर की थी। उस समय पहली बार मैंने प्रभाष जोशी के जो लेख थे, उस समय, वो पढ़े और काफी प्रभावी रहे मेरे लिए। क्योंकि जिस तरह का माहौल बन रहा था, जिस तरह का, एक तरह से एक नई सोच आ रही थी, उस पर या तो ज़्यादातर लोग उस लहर में आकर उसके साथ चल रहे थे या तो हम केवल उसको देखकर रिपोर्ट कर रहे थे। प्रभाष जोशी, उस समय जिस तरह से उन्होंने उस समय पत्रकारिता की, जिस तरह के लेख लिखे, उस लहर से एक तरह विपरीत होकर, उसमें आखिर में बड़ी तस्वीर क्या है..क्या हो रहा है देश में, किस वजह से इतने लोग बाहर आ रहे हैं आडवाणी की रथयात्रा के साथ..और उस रथयात्रा और भारतीयता और राष्ट्रवाद के जो प्रश्न उठ रहे थे, उन पर जिस तरह से उन्होंने सवाल उठाये, जिस तरह के लेख लिखे, उस पर एक रिपोर्टर की हैसियत से मैं प्रभावित रहा। और फिर आप देखेंगे कि 1991-92 का जो पूरा पीरियड है, मस्जिद की डिमॉलिशन (विध्वंस) तक...लगातार उन तीन सालों में जो लेख उन्होंने लिखे, उसमे एक चीज़ साफ थी कि राष्ट्रवाद की जो उनकी एक कल्पना थी..


उस पर उन्होंने एक किताब भी लिखी बाद में...
हां, किताब भी लिखी..लेकिन जनसत्ता में जो उन्होंने उस वक्त आर्टिकल्स (लेख) लिखे, सबसे बड़ा सवाल उन्होंने यही पूछा था कि राष्ट्रवाद यानी क्या। ये नेशनलिज़्म (राष्ट्रवाद) पर जो डिबेट (बहस) होना चाहिए, वो किस तरह का डिबेट होना चाहिए। सेक्युलरिज़्म पर, धर्मनिरपेक्षता क्या है..और अच्छी बात क्या थी कि वो केवल एक इंग्लिश स्पीकिंग, वेस्टर्नाइज़्ड एजुकेटेड (अंग्रेज़ी बोलने वाले, पश्चिम से प्रभावित शिक्षाप्राप्त) जो एक क्रिटिसिज़्म (आलोचना) होती है उस मूवमेंट की, उस नज़रिए से वो नहीं लिख रहे थे। वो लिख रहे थे, वो ख़ुद एक रिलीजियस (धार्मिक) आदमी थे, He was proud of his Hinduism, वो कोई Atheist नहीं थे। तो उन्होंने...क्या कहेंगे उसको...He was rooted in the reality of India..उनका जो 40-50 साल का अपना तजुर्बा था, उन्होंने उसको लेकर जो लिखा है, मुझे लगता है शायद बहुत कम ऐसे लोग होंगे जिन्होने उस समय , उस हालात में उस तरह की writing (पत्रकारिता) की हो।
और ये करना जब उनके पर्सनल रिलेशन्स (निजी संबंध) बड़े अच्छे थे। आडवाणी जी के साथ, अटल जी के साथ...क्योंकि इमरजेंसी में उनका रोल रहा था। प्रभाष जी इन सबको जानते थे। लेकिन, मुझे लगता है कि उन्होंने पत्रकारिता में ये दिखाया कि मेरे पर्सनल रिलेशन जो भी हों, लेकिन मेरे लिखने पर उसका कोई असर नहीं होगा। और आपको मैं अगर क्रिटिसाइज़ (आलोचना) करता हूं तो मैं मेरी neutral independent position से, मुझे जो सही लगता है, उस हैसियत से करता हूं। क्योंकि एडिटर या एक कमेंटेटर की जो विशेषता होती है, कि आप जब किसी इशु (मुद्दे) पर लिखते हैं, आप उसे अपने पर्सनल इक्वेशन (निजी संबंधों) से दूर रखकर एक बड़ी तस्वीर लोगों के सामने लाने की कोशिश करते हैं। तो जिस एग्रेशन (आक्रामकता) से उन्होंने लिखा, जिस डायरेक्शन (नज़रिए) से लिखा..हालांकि, कुछ लोग कह सकते हैं कि वो उनके लिए एक 'finest hour' था। कई लोग कहते हैं कि इमरजेंसी में जिस तरह से उन्होंने जुड़कर जेपी के साथ काम किया था, वो तो बात अलग है..लेकिन उन दो-तीन सालों में जो उन्होंने लगातार लेख लिखे और जिस तरह से उन्होंने प्रश्न उठाए, एक तरह से 'That would be his finest hour' हम कह सकते हैं।


अच्छा, क्रिकेट भी तो आप दोनों के बीच कॉमन रहा होगा।
जवाब - हां, वो क्रिकेट के बहुत शौकीन थे। जब मैं उनसे पहली बार मिला तो हमने क्रिकेट पर कई बातें की। और वो मेरे पापा (दिलीप सरदेसाई) के बहुत शौकीन थे। तो, कई बार मैं जब बात करना चाहता था 91-92 में जो हो रहा था, उस पॉलिटिक्स की, और वो बात करने लगते थे क्रिकेट की। मुझे ये भी हमेशा अच्छा ही लगता था। वो शायद तब की बात है जब मैं एक बार उनके साथ एक दौरे पर गया था, शायद पीएम का दौरा रहा होगा या ऐसा ही कुछ, तो मैं लगातार उनसे बात करना चाहता था पॉलिटिक्स के बारे में और वो बात करना चाहते थे क्रिकेट की।


और कोई ख़ास बात जो याद हो...
उन्होंने कभी ऐसा नहीं सोचा कि कोई यंग है या बुजुर्ग है..कभी उनमें ऐसी भावना नहीं थी। और वो मराठी बड़ा अच्छा बोलते थे। मुझे लगता है ये उनका इंदौर का प्रभाव रहा होगा कि वो हमेशा मुझसे मराठी में बोलते थे। मैं सवाल उनसे हिंदी में पूछता था मेरी हिंदी बेहतर करने के लिए और वो जवाब हमेशा दिया करते थे मराठी में। तो ये दो-तीन बातें मुझे उस समय की याद हैं। फिर लगातार संपर्क रहा उनसे। उनसे सीखने का काफी मौका मिला मुझे। उनमें कभी bitterness (कड़वाहट) नहीं देखी। उनमें हमेशा ये था कि उनका जो एक्सपीरिएंस था, वो हमेशा लोगों से बांटना चाहते थे। पिछले पांच-छह सालों में जो उनको गुस्सा आया होगा, वो मुझे लगता है, पेड न्यूज़ को लेकर।


हां, आपसे भी काफी टकराहटें हुई थीं इसे लेकर?
हां, कि पेड न्यूज़ क्या होना चाहिए। किस तरह का होना चाहिए। पेड न्यूज़ का मतलब क्या है। मेरा हमेशा ये कहना था कि disclosure (खुलासा) होना चाहिए। कि अगर आप कोई ख़बर कर रहे हैं और उस ख़बर के पीछे 'कोई' है तो आपको ज़रूर ये बताना चाहिए। उनको लिए तो पूरी तरह से Advertising (विज्ञापन) ही...

आपके क्या मतभेद रहे?
नहीं, मतभेद नहीं थे। मुझे लगता है कि उन्हें लगा कि कहीं न कहीं जो आज की पत्रकारिता इतनी भटक गई है..उन्हें डर था पेड न्यूज़ की वजह से आज की पत्रकारिता भटक गई है। मेरा ये कहना है कि आज के ज़माने में आप मार्केटिंग से दूर नहीं रह सकते। आप बेशक पेड न्यूज़ करें। मेरा कहना था कि आप लोगों के सामने डिस्क्लोज़र करें। आगर आपकी कोई ख़बर है और उसके पीछे किसी की स्पांसरशिप है तो लोगों को बताइए। आप सीधा रखिए। मैं आज भी वही मेंटेन करता हूं, कि पूरा डिस्कलोज़र होना चाहिए। पेड न्यूज़ तब है, जब आप लोगों से छल करते हो कि किसी के नाम से आप ख़बर छपवा लो और उसकी जानकारी viewer को नहीं दो। वो एक ऐसे ज़माने के पत्रकार थे जिसमें उनको मार्केंटिग और एडवर्टाइज़िंग (विज्ञापन) से कोई लेना-देना ही नहीं था।

मतलब, बाज़ार के खिलाफ था एकदम?
राजदीप - हां, उनको लगा एकदम बाज़ारीकरण हो रहा है। कमर्शियलाइज़ेशन हो रहा है। मेरा ये कहना है कि कमर्शियलाइज़ेशन को हम पूरी तरह से नकार नहीं सकते। और इसके कुछ benefits (फायदे) भी हैं। वो ज़माना चला गया कि आप जर्नलिज़्म को उस तरह से देख सकें। दुनिया कमर्शियल हुई है। क्या पत्रकार उससे पूरी तरह से हट सकता है। नहीं। क्या पत्रकार अलग रह सकता है। ज़रूर। पत्रकार अलग इस तरह से रह सकता है कि बाज़ारीकरण जो हो रहा है, उसमें आप मार्केंटिंग और एडिटोरियल में एक फर्क तो ज़रूर रखना पड़ेगा। एक चाइनीज़ वॉल रखनी ही पड़ेगी। उनका कहना था कि कोई ज़रूरत नहीं है एडवर्टाइज़िंग की। एडवर्टाइज़िंग से हमें कोई लेना-देना नहीं है। मेरा ये कहना है कि एडवर्टाइज़िंग से आपको कहीं न कहीं एक रिलेशनशिप बनानी पड़ेगी। लेकिन, उस रिलेशनशिप में आपका अपना दायित्व, अपना कर्तव्य viwer या पाठक के पास है, किसी एडवर्टाइज़र के पास नहीं है। तो आपके पास कोई ख़बर है तो वो ख़बर रहती है, आप कोई पीआर नहीं कर रहे। इसमें और उनमें कोई मतभेद नहीं है। उनका इतना ही कहना था कि ये जो भी हो रहा है वो बाज़ारीकरण है। और मैं समझता हूं कि हर चीज़ को अगर हम बाज़ारीकरण के रूप में लें तो वो ग़लत होगा।

वो मीडिया के कारपोरेटाइज़ेशन के सख्त खिलाफ थे।
हां, मगर मेरा ये कहना है कि आप कारपोरेटाइज़ेशन को अगर रावण की तरह देखा करोगे, हर चीज़ जो कॉरपोरेट इंडिया करता है, वो ग़लत है तो ये भी कहना ग़लत होगा, मुझे लगता है। हां, उसके कई निगेटिव पहलू भी आए हैं। पेड न्यूज़ उनमें से एक है। पेड न्यूज़ के खिलाफ हम भी हैं, वो भी थे। मुझे लगता है पेड न्यूज़ किसी भी हालत में हमें मंज़ूर नहीं है। मगर पेड न्यूज़ की परिभाषा क्या है। पेड न्यूज़ मेरे ख़याल में वो है जबकि आप न्यूज़ छपवाते हैं किसी के इशारे पर और वो अपने पाठक या दर्शक को बताते नहीं हैं। उनकी परिभाषा में कोई भी ख़बर जिसमें एडवर्टाइज़र किसी भी तरह से शामिल हो या कोई प्रोग्राम स्पांसर्ड (प्रायोजित) हो, वो सब....

लेकिन, वो जिस हद तक ख़िलाफ थे पेड न्यूज़ के, वो पूरी आज़ादी से स्टैंड ले सकते थे, लेते रहे। आप उस आज़ादी से खिलाफ नहीं हो सकते। आप पर कहीं न कहीं से 'प्रेशर' (दबाव) रहेगा।
मुझे नहीं लगता। मैं तो दूसरी तरफ से देखता हूं। आपका प्रेशर तब कम होता है जब आप कमर्शियली स्ट्रांग (आर्थिक स्थिति मज़ूबत) हैं। आज ख़ास कर के रीजनल मीडिया में क्या हुआ है। रीजनल मीडिया में पेड न्यूज़ ज़्यादा क्यों बढ़ गया है। क्योंकि रीजनल मीडिया एक तरह से फाइनेंशियली इंडिपेंडेंट (आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर) नहीं है। जब तक आप इंडिपेंडेंट (आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर) नहीं है, तब तक आपको डर हमेशा रहेगा कि एडवर्टाइज़र जो है, वो डिक्टेट करेगा। आप कॉरपोरेटाइज़ेशन को ग़लत देखोगे तो मुझे लगता है कहीं न कहीं हम मिसटेक कर रहे हैं। मैं इस बात की...ये जो ख़बरें चलती हैं कभी-कभी टीवी पर, क्या ये कॉरपोरेटाइज़ेशन की वजह से हैं। कि शाहरुख को कहीं मोच आई या आप बिहार के फ्लड्स(बाढ़) की ख़बर नहीं करेंगे, कोई प्रेम कहानी करेंगे। तो मेरा उनसे उतना ही कहना था कि ये जो डिक्लाइन (पतन) हुई थी, और हमारे मीडिया में डिक्लाइन हुई है। एडिटोरियल पेज पर डिक्लाइन हुई है। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार में जो एडिटोरियल एक समय मज़बूत था, अब कमज़ोर हुआ है। उसकी वजह कॉरपोरेटाइज़ेशन नहीं है। उसकी वजह है कि हमारी जो रीढ़ है, हमारी जो बैकबोन है, वो कमज़ोर हुई है। हम ख़ुद कमज़ोर हुए हैँ। हम एक तरह से कॉरपोरेटाइज़ेशन का एक्सक्यूज़ (बहाना) दे रहे हैं कि सब कुछ (ग़लत) कॉरपोरेटाइज़ेशन की वजह से ही हो रहा है। तो वहां, उनमें और मुझमें थो़ड़ा फर्क था। उनका कहना था कि कॉरपोरेटाइज़ेशन को किसी भी हालत में आने नहीं देना चाहिए। मेरा ये कहना है कि कॉरपोरेटाइज़ेशन को आप अकेले ज़िम्मेदार मत ठहराइए। मीडिया में जो डिक्लाइन हो रहा है, उसके लिए हम उतने ही ज़िम्मेदार हैं, जितने कॉरपोरेट्स।

उस दौर की संपादकीय टीम में और आपके दौर की एडिटोरियल टीम में कैसा फर्क आया है। ख़बरों के चयन को लेकर जो बदलाव आए हैं, वो क्या यहीं से नहीं शुरू होते।
देखिए, एक तो मुझे लगता है कि ज़माना बदल गया है। आज मार्केट कांपटीशन बहुत है। कॉरपोरेटाइज़ेशन नहीं मार्केट कांपटीशन। टीवी चैनल जो हैं। अब आप 20-30-40 चैनल लाएंगे, हर चैनल अगर ब्रेकिंग न्यूज़ कर रहा है तो कहीं न कहीं आपका जो दिमाग है, वो ब्रेकिंग न्यूज़ की दुनिया में चला जाता है। वो ख़बरों से दूर हटकर नहीं देखता कि बड़ी तस्वीर क्या है। आप सिर्फ उस समय को भुनाने के चक्कर में चले जाते हैं। और छोटी ख़बर को बड़ी ख़बर करना कैसे है। क्योंकि दर्शक तो एक है। चैनल 25-30 हैं। तो उसको कैसे अपनी तरफ खींचें। और दर्शक का अटेंशन स्पैन (रुके रहने का सब्र) जो है, वो भी कम हुआ है। उसके पास दो घंटे नहीं हैं। जैसे एक ज़माने में पांच दिनों के टेस्ट मैच हुआ करते थे, आज टी-20 है। उसी तरह टीवी में भी हुआ है। एक ज़माने में आप एक घंटे की डॉक्यूमेंट्री करते थे, आज लोग चाहते हैं कि उनको सौ ख़बर दे दो एक मिनट में।


लेकिन, अख़बार क्यों टीवी बनता जा रहा है?
क्योंकि, अख़बार एक तरह से उस टीवी के प्रेशर में आकर, कि यही मेरा भी जो पाठक है, वो मेरे साथ एक घंटा नहीं गुज़ारेगा, उसके पास सिर्फ दस मिनट का समय है। तो आप जो ख़बर हज़ार शब्दों में देते थे 10-15 साल पहले, वही आप उसको सौ अक्षरों में दे दो। कहीं न कहीं टीवी का दबाव तो है। पर, मैं फिर कह रहा हूं कि इसके लिए ज़िम्मेदार हम हैं। हम इससे दूर हट सकते हैं। मैं अभी भी समझता हूं कि इतने बड़े देश में ऐसे भी दर्शक या पाठक होंगे जो चाहते हैं कि आप उनको अच्छी ख़बरें दें। आप उनको ख़बरें सोच-समझ कर दें।

लेकिन, यहां फिर वहीं लोग टीआरपी का रोना रोने लगते हैं।
देखिए, जर्नलिज़्म बॉक्स ऑफिस नहीं है। हमें ये बात अच्छी तरह से समझनी होगी। ये बॉक्स ऑफिस नहीं है कि हम हफ्ते के हफ्ते अपनी कलेक्शन देखें। और मैं समझता हूं कि यही एडवर्टाइज़र भी चाहेगा। कोई भी एडवर्टाइज़र किसी चड्डी-बनियान चैनल के साथ जुड़ना नहीं चाहेगा। एडवर्टाइज़र भी चाहता है कि सबसे बड़ी चीज़ हो उस चैनल या अख़बार की विश्वसनीयता। और विश्वसनीयता कोई एक हफ्ते में नहीं बढ़ती। विश्वसनीयता पाने के लिए आपको दिन पर दिन, साल भर साल लगे रहना होगा। हर दिन लोगों को दिखाना पड़ेगा कि किस तरह की ख़बर होती है। असम में बाढ़ आई तो इसका मतलब नहीं कि आप उसको फर्स्ट हेडलाइन (पहली ख़बर) नहीं बनाएंगे। दिल्ली में सात लोग मरते हैं आग में, आप उसको टॉप हेडलाइन बनाते हैं। असम में सौ लोग मरते हैं बाढ़ में, आप उस पर ध्यान नहीं देते। मेरा आपसे कहना है कि किसने आपको कहा कि असम की हेडलाइन मत बनाओ पहले। दर्शक तो नहीं कह रहा है। आप सोच रहे हैं कि दर्शक सिर्फ दिल्ली की ख़बर देखना चाह रहा है। मैं हमेशा ये कोशिश करता हूं कि इस तरह का 'daring' (चुनौतीपूर्ण) कदम लिया जाए। हमने कल अपनी पहली हेडलाइन असम बनाई थी। आज हमने बिजली के संकट को पहली हेडलाइन रखी है। कौन कहता है कि आप न बनाएँ। ताक़त तो आपके पास है। हां, ये हो सकता है कि कोई कहे, यार ये ख़बर सेक्सी नहीं है, चलेगी नहीं। पर अगर हम इस तरह से सोचें तो बेहतर है पिक्चर बनाएँ फिर। हम फिल्म बनाएं राउडी राठौर जैसी। हमें फिल्म बनानी है या हकी़कत दिखानी है, ये तय करना होगा।

यानी बाज़ार भी है, आपसी रेस भी है, और क्या संकट हैं पत्रकारिता के?
संकट तो हैं। ऐसा नहीं है कि सब कुछ इतना आसान है। कल अगर टीआरपी गिरी तो मार्केटिंग वाला एडिटर पर दबाव ज़रूर डालेगा, ये बात सही है। लेकिन कहीं न कहीं हमें उस मार्केंटिग वाले को भी सिखाना पड़ेगा कि आपके लिए भी, आपका जो स्पांसर है, वो विश्वसनीयता देखकर ही आपके पास आएगा।

तो इतने 'डेयरिंग' (साहसी) संपादक अब हैं कहां?
वही तो मुसीबत है ना। हुआ क्या है कि जो मैनेजमेंट है, उसने संपादक का जो रोल है, उसे ख़त्म कर दिया है। हमारी सेल्फ रिस्पेक्ट...। प्रभाष जोशी जो थे, एक ऐसे संपादक थे, जिनके पीछे गोयनका (रामनाथ गोयनका) भी थे, और उनसे मार्केटिंग वाले मिलने से डरते थे, कि प्रभाष जोशी जी हैं। एक 'वेट' (क़द) था। आज भी किसी संपादक के पास 'वेट' हो तो मार्केटिंग वाला दो बार सोचेगा उससे टकराव करने की। पर चूंकि मैनेजमेंट और मार्केंटिंग वालों ने ऐसे संपादकों या पत्रकारों को ख़त्म करने की कोशिश की है,जिस वजह से इतनी समस्या आई है। पर अगर संपादक 'टफ' हुआ तो..

तो प्रभाष जी भी कहीं न कहीं उसी चीज़ से डर रहे थे कि संपादक के व्यक्तित्व को ये कॉरपोरेट ख़त्म कर देंगे?
हां, लेकिन हम अपने आप पर ज़िम्मेदारी लें। जैसे इमरजेंसी के दौरान कुछ एडिटर्स ने उसका सामना किया, कुछ झुक गए। उसी तरह से कारपोरेटाइज़ेशन के साथ उसका सामना करें। मैं समझौता नहीं करुंगा पर उनके साथ बराबर का एक 'इक्वेशन' (समीकरण) बनाकर खड़ा रहूंगा। मगर कुछ लोग बिल्कुल झुक जाते हैं।

कुलदीप नैय्यर जी से बात हो रही थी तो उन्होंने बताया था कि कैसे इमरजेंसी के दौरान करीब 150 पत्रकार एकजुट हुए थे, मगर इंदिरा शासन के खिलाफ साइन करने की बात आई तो केवल 37 लोगों ने किया। इसका मतलब पत्रकार पहले भी डरते थे और अब भी डरते हैं।
डर है, जायज़ भी है। लेकिन पत्रकार की एक विशेषता यही होती है कि वो अपना वज़न बनाए रखता है। हमारा वज़न सोसाइटी से आता है। हमारा वज़न न तो सैलरी से आता है और न कहीं और से। हमारा वज़न सिर्फ हमारी राइटिंग (लेखन), हमारी पत्रकारिता से आता है। वो एक तरह से यूनीक है। और एक पास आपके पास वज़न हो, तो फिर कोई भी मार्केटिंग वाला भी आपके पास आएगा। क्योंकि आपमें जो विश्वसनीयता है, वो किसी और में नहीं है। स्पांसर एक तरह से आपकी विश्वसनीयता ख़रीदना चाहता है।

संकट तो और भी कई हैं। जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया में कई लोगों के शेयर लगे हुए हैं। तो कम से कम जिन कंपनियों के शेयर लगे हुए हैं, उनके ख़िलाफ तो वहां ख़बरे जाएंगी नहीं।
वही तो पेड न्यूज़ की समस्या है। कि कारपारेट आपको शेयर दे दे और उसके शेयर के बदले में आप उसके बारे में अच्छा लिखें तो कैसे चलेगा। क्योंकि आप अपने पाठक या दर्शक को तो नहीं बता रहे हैं कि यहां इनका शेयर है। मैं कहता हूं आप बताइए कि मेरा शेयर है और फिर स्टोरी करिए। वरना आप सबको धोखा दे रहे हैं। पर मैं ये नहीं मानता कि स्ट्रांग एडिटर्स (मज़बूत संपादकों) के लिए जगह नहीं है। रास्ता ज़रूर है। हां, एक फर्क ये है कि प्रभाष जोशी जी के ज़माने में जर्नलिस्ट (पत्रकारों) के लिए रिस्पेक्ट (सम्मान) था। आज रिस्पेक्ट चला गया है। 'फियर' (डर) है। लोग हमसे डरते हैं। लेकिन, हमें रिस्पेक्ट नहीं करते। ये फर्क है। उस समय लोग पत्रकारों से डरते नहीं थे।

उस समय पत्रकारों में एक तरह से 'एक्टिविज़्म' भी था। प्रभाष जी ख़ुद भी घूम-घूम कर पत्रकारिता किया करते थे। पहले समाज से बहुत जुड़े हुए थे पत्रकार, अब तो गूगल से ही काम चल जाता है?
देखिए, एक्टिविज़्म का क्या है मतलब। कुछ लोग कहेंगे कि उस ज़माने में जो एक्टिविज़्म थी, वो एक तरह से पार्टिज़न (पक्षपाती) भी थी। कुछ लोग ये भी कहेंगे कि आप कैंपेन हमारे खिलाफ चला रहे थे। जैसे प्रभाष जी एक्टिविज़्म करते थे, दूसरे कुछ और भी कहते।

आप लोगों ने भी तो गुजरात में एक स्टैंड लिया था?
देखिए, आप एक्टिविज़्म कब कर सकते हैं। जब आपको बिल्कुल आपमें विश्वास हो कि जो हो रहा है, वो एकदम ग़लत है। वो लोगों के सामने आप दिखाएं। मेरा ये कहना है कि अब कांग्रेस ग़लत करती है, आप कांग्रेस के खिलाफ एक्टिविज़्म करें। जब बीजेपी ग़लत करती है, आप बीजेपी के खिलाफ एक्टिविज़्म करें। अब ये एक्टिविज़्म है या जर्नलिज़्म है। मेरे ख़याल में जर्नलिज़्म है। मैं अपने आप को एक्टिविस्ट नहीं मानता। एक्टिविस्ट जो होगा, वो अक्सर दूसरे (पक्ष) की बात सुनने से हिचकिचाएगा। क्योंकि उसको लगता है कि दूसरा जो है, वो ग़लत ही है। कभी-कभी मुझे लगता है कि हम जर्नलिस्ट जब एक्टिविस्ट बनने लगते हैं तो हम हमारी निष्पक्षता भूल जाते हैं। मैं एक्टिविज़्म में विश्वास नहीं करता। मैं समझता हूं आपके जर्नलिज़्म में इतना दम होना चाहिए कि वो अपने आप एक्टिविज़्म जैसा हो जाए। मैं नहीं समझता कि मैंने जो गुजरात में किया वो एक्टिविज़्म था। तीस्ता सीतलवाड एक्टिविस्ट हैं। इसीलिए अगर मैं आज कहूं कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात में कृषि के लिए अच्छा काम किया है, तो तीस्ता नहीं मानेंगी क्योंकि उनकी एक्टिविज़्म के मुताबिक नरेंद्र मोदी 'विलेन' हैं। मैं पत्रकार हूं। मैंने उनको कहा भी कुछ दिन पहले, जब ये SIT की रिपोर्ट आई और मैंने उनसे कुछ सवाल पूछे, उन्होंने मुझे कहा कि आप क्या कर रहे हैं। आप तो नरेंद्र मोदी के साथ अब हो गए हैँ। मैंने कहा कि साथ का सवाल नहीं है। अगर रिपोर्ट आई है, रिपोर्ट में कुछ सवाल उठे, तो पत्रकार का दायित्व है कि वो सवाल उठाए। दरअसल, जो Tolerance (सहनशीलता) थी, वो अब नहीं है। वो बहुत ही कम हुआ है। और हमारे पत्रकार भी politicized हो गए हैं। और एक्टिविस्ट भी हो गए हैं। इसकी वजह से हम कैंप्स (गुटों) में बंट गए हैं। नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाला कैंप या उसके पक्ष में। मैं कहता हूं जो अच्छी बातें हैं हम कहेंगे, जो बुरी बातें हैं वो भी कहेंगे। लेकिन जब हम अच्छी बातें कहते हैं आप कहेंगे हम बिक गए हैं।

चलिए, मोदी से हटकर बात करते हैं। आपके बारे में एक सीनियर जर्नलिस्ट कह रहे थे कि आप कई जगहों पर अंबानी के साथ खड़े दिखते हैं, उनके फैमिली फंक्शन में भी रहते हैं। तो ऐसे में आपकी पत्रकारिता या 'एक्टिविज़्म' वहां कमज़ोर नहीं पड़ जाती है? 
नहीं, नहीं। देखिए, मैं पत्रकार हूं। अगर मैं अंबानी के साथ खड़ा रहूं फंक्शन में और उसके बाद अगर कोई स्टोरी आए अंबानी की और मैं उस स्टोरी को दबा दूं तो आप मुझे कह सकते हैं। देखिए, पत्रकार जो है कई लोगों से मिलेगा। उनके कई रिलेशनशिप्स (संबंध) होंगे। लेकिन, आखिर में आप अपने चैनल पर क्या चलाते हैं या एडिटोरियल में क्या लिखते हैं, उससे फर्क पड़ता है। अब मैंने एक आर्टिकल लिखा तीन दिन पहले नीतीश पर। नीतीश जी और मोदी की तुलना करते हुए। अब नीतीश जी गुस्सा हैं। वो कह रहे हैं कि आपने मेरी कंपैरिज़न (तुलना) मोदी के साथ कर दी। अब कल तक वही नीतीश जी मुझे कह रहे थे कि आप बड़े धर्मनिरपेक्ष जर्नलिस्ट हैं। मेरी यही तो मुसीबत है। अगर सबको मुझसे दिकक्त है और सब मुझ पर आक्षेप लगाते रहें तो ये ठीक ही है। मुझे न नरेंद्र मोदी से लेना-देना है, न नीतीश कुमार से। तो प्रॉब्लम यही है कि नेताओं में भी tolerance (सहनशीलता) बहुत घटी है पहले की तुलना में। प्रभाष जोशी भले ही कुछ भी लिखते रहे आडवाणी या वाजपेयी जी के खिलाफ, ख़ास कर वाजपेयी जी पर, इसका मतलब ये नहीं कि वाजपेयी जी और उनके निजी संबंध ख़राब हो गए। या वाजपेयी जी ने उनकी स्टोरीज़ को दबाने की कोशिश की या कहा हो कि प्रभाष जोशी आप बिक गए हैं। लेकिन अगर मैं आज उसी तरह की पत्रकारिता करने की कोशिश करूं तो लोग कहेंगे कि आप बिक गए हैँ। तो सोच का फर्क है। ज़माना बदल गया है। प्रभाष जोशी का जो ज़माना था, वो एक तरह से बदल गया है।

प्रभाष जोशी का ज़माना ख़त्म हो गया है या बदल गया है?
नहीं. बदल गया है। ख़त्म भी कह सकते हैं। देखिए, अब दर्शक बदल गये हैं, नेता बदल गए हैं, संपादक बदल गए हैं, बाज़ार बदल गया है।

अब उस दौर की कोई ज़रूरत है क्या ?
देखिए, इंटेग्रिटी (इमानदारी) की ज़रूरत तब भी थी, आज भी है। Integrity के लिए अभी भी स्पेस है। अपनी पर्सनल इंटेग्रिटी के लिए जो जगह 20-30 साल पहले थी, वो आज भी है। आज थोड़ा मुश्किल है। हमारे सामने चुनौतियां और हैं। क्योंकि स्थितियां और भी जटिल हो गई हैं। प्रॉफिट का प्रेशर होता है। बाज़ार का प्रेशर होता है। ये सब चुनौतियां हैं। पर इसके बावजूद ये कहना कि क्या उनकी ज़रूरत नहीं है, बिल्कुल है। मैं समझता हूं आज ज़रूरत ज़्यादा है। क्योंकि इस प्रोफेशन को अगर हम पटरी पर लाना चाहें तो ये तभी ला सकते हैं जब जो आइडियलिज़्म (आदर्श), जो सोच प्रभाष जोशी जी में था, वो वापस लाएं। तो राह से हम भटक गए हैं ये बात सही है लेकिन अगर वापस पटरी पर आना है तो उस तरह की पत्रकारिता एक बार फिर करनी पड़ेगी। भले ही जो भी दबाव या चुनौतियां हों।

आइडियलिज़्म के लिहाज से पूछूं तो अभी हाल ही में जो एकाध आंदोलन देश में होते दिखे, उसमें संपादक कितने एक्टिव या इनएक्टिव दिखे?
देखिए, अन्ना के आंदोलन की बात कर रहे हैं तो मेरा तो एक तरह से क्रिटिसिज़्म (आलोचना) है उस पर। हम (कई संपादक) अन्ना के चीयरलीडर बन गए। तो मैं कहना चाह रहा हूं कि एक्टिविस्ट की भूमिका में जर्नलिस्ट आ जाए तो डेंजरस (ख़तरनाक) है। क्योंकि जब आप एक्टिविस्ट बन जाते हैं तो उस मूवमेंट की जो कमियां हैं, वो लोगों के सामने नहीं लाते। या तो आपको दिखाई देती हैं और आप लाते नहीं हैं या आप देखना नहीं चाहते। हमने देखा कि कैसे कुछ संपादक अन्ना के मूवमेंट में चीयरलीडर बन गए थे और मुझे वो अच्छा नहीं लगा। अच्छा, मेरे साथ प्रॉब्लम ये हो गई कि मैंने क्रिटिसाइज़ किया तो लोग कहने लगे कि अरे, आप करप्ट के साथ जुड़ गए हैं। अब मैंने अगर जनलोकपाल बिल पर कुछ प्रश्न उठाए तो इसका मतलब ये तो नहीं कि मैं करप्ट हूं। दरअसल, हम ये फर्क नहीं सोच पाते एक पत्रकार और एक्टिविस्ट का। मैं चीयरलीडर नहीं हूं। मैं टीम अन्ना का सदस्य नहीं हूं। मुझे नहीं होना है। अगर होना होता तो मैं शामिल हो जाता फिर। हां, जब आप संपादकीय लिखें तो उसमें ज़रूर लिख सकते हैं कि अन्ना जो कर रहे हैं वो सही है पर हर रोज़, ये दिक्कत है।

अच्छा, ये तो बता दीजिए कि प्रभाष जोशी और सचिन के बीच क्या जादुई रिश्ता था।
वो सचिन के बहुत शौकीन थे। उनकी हमेशा सचिन से मिलने की बहुत ख़्वाहिश थी। और देखना भी चाहते थे सचिन को। मुझे जहां तक याद है 1992 में हमलोग वर्ल्डकप के लिए साथ में ऑस्ट्रेलिया गए थे। और वहां हम सचिन से मिले थे। वो बहुत खुश हुए थे। मैं टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए लिख रहा था और वो जनसत्ता के लिए। सचिन को देखना उनके लिए एक तरह से मोक्ष ही था।

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