जगजीत सिंह को कई लोग ग़ज़लजीत सिंह भी बुलाते हैं...क्यों कहते हैं, ये बताने की ज़रूरत नहीं। कई बार बचपन में लगता था कि उनकी गाई ग़ज़लें गाकर एक-दो बार प्रेम किया जा सकता है, तो उनकी कितनी प्रेमिकाएँ रही होंगी। ग़ज़लों के हिंदुस्तानी देवता को आखिरी सलाम...उनकी याद में मोहल्ला पर ये छोटी-सी पोस्ट भेजी थी...यहां भी लगा रहा हूं..
जगजीत सिंह पहली बार ज़िंदगी में दाखिल हुए ‘होठों से छू लो तुम’ के ज़रिए...तब ग़ज़लों से दिल के तार जुड़े नहीं थे और विविध भारती पर बजने वाले फिल्मी गीत कंठस्थ याद करने का सुरूर चढ़ा था। जग ने छीना मुझसे, मुझे जो भी लगा प्यारा, सब जीता किए मुझसे, मैं हरदम ही हारा...इतनी सादी-सच्ची बात कि लगता इतना सुनाने के बाद किसी को किसी से भी प्यार हो सकता है। पहली बार इस गाने को दूरदर्शन पर देखा और देखते ही राज बब्बर से प्यार हो गया। लगा कि राज बब्बर कितना बढ़िया गाते हैं। फिर थोड़ा बड़ा हुआ और अपने दोस्त के यहां गया तो उसके यहां ग़ज़लों का अथाह कलेक्शन पड़ा मिला। नया-नया कंप्यूटर आया था तो उस पर दोस्त को एक सीडी चलाने को कहा....शायद ग़ालिब की कोई ग़ज़ल थी। मैंने उससे कहा, ये तो राज बब्बर की आवाज़ है। दोस्त ने कहा, नहीं जगजीत सिंह हैं। ये देखो सीडी पर फोटो। फिर, जगजीत सिंह ज़िंदगी में यूं शामिल होते गए कि गुज़रने के बाद भी नहीं गए।
रोमांस की सारी नहीं तो बहुत सारी समझ जगजीत के स्कूल में ही कई पीढ़ियों ने सीखीं। हमने ग़ालिब की ग़ज़लें जगजीत से सीखीं, अपने बचपन से इतना प्यार जगजीत ने करना सिखाया, दोस्तों (ख़ास दोस्तों) को बर्थडे के कार्ड्स पर कुछ अच्छा लिखकर देने का ख़ज़ाना जगजीत की ग़ज़लों से ही मिला। जगजीत हमारी प्रेम कहानियों में कैटेलिस्ट या एंप्लीफायर की तरह मौजूद रहे। पहली, दूसरी या कोई ताज़ा प्रेम कहानी, सब में। वो न होते तो हमारे बस में कहां था अपनी बात को आहिस्ता-आहिस्ता किसी के दिल में उतार पाना। तभी तो गुलज़ार उन्हें ‘ग़ज़लजीत’ कहते हैं, फाहे-सी एक ऐसी आवाज कि दर्द पर हल्का-हल्का मलिए तो थोड़ा चुभती भी है और राहत भी मिलती है।
झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम में नक्सली बम विस्फोट में जब एक साथ कई थानों के पुलिसवाले मारे गए थे, तो उसमें पापा बच गए थे। मैं तब प्रभात ख़बर में था, एकदम नया-नया। मैंने पापा से कहा कि अपने अनुभव लिखिए, मैं यहां विशेष पेज तैयार कर रहा हूं, छापूंगा। उन्होंने जैसे-तैसे लिखा और भेज दिया, शीर्षक छोड़ दिया। अगले दिन के अखबार में पूरा बॉटम इसी स्टोरी के साथ था। एक आह भरी होगी, हमने न सुनी होगी, जाते-जाते तुमने आवाज़ तो दी होगी। उफ्फ, जगजीत आप कहां-कहां मौजूद नहीं हैं, भगवान की तरह।
ज़ी न्यूज़ में कुछ ख़ास तारीखों पर काम करना बड़ा अच्छा लगता था….जैसे 8 फरवरी (जगजीत सिंह का बर्थडे)...हर रोज़ ज़ी यूपी के लिए रात 09.30 बजे आधे घंटे की एक ‘स्पेशल रिपोर्ट’ प्रो़ड्यूस करनी होती थी। जगजीत के लिए काम करते वक्त लगता ही नहीं कि काम कर रहे हैं। लगता ये एक घंटे का प्रोग्राम क्यों नहीं है। आज उनके जाने पर नौकरी छो़ड़ने का बड़ा अफसोस हो रहा है। कौन उतने मन से याद करेगा जगजीत को, जैसे हम करते थे। आपकी ग़ज़लों के बगैर तो फूट-फूट कर रोना भी रोना नहीं कहा जा सकता।
निखिल आनंद गिरि
कहां तुम चले गए... |
रोमांस की सारी नहीं तो बहुत सारी समझ जगजीत के स्कूल में ही कई पीढ़ियों ने सीखीं। हमने ग़ालिब की ग़ज़लें जगजीत से सीखीं, अपने बचपन से इतना प्यार जगजीत ने करना सिखाया, दोस्तों (ख़ास दोस्तों) को बर्थडे के कार्ड्स पर कुछ अच्छा लिखकर देने का ख़ज़ाना जगजीत की ग़ज़लों से ही मिला। जगजीत हमारी प्रेम कहानियों में कैटेलिस्ट या एंप्लीफायर की तरह मौजूद रहे। पहली, दूसरी या कोई ताज़ा प्रेम कहानी, सब में। वो न होते तो हमारे बस में कहां था अपनी बात को आहिस्ता-आहिस्ता किसी के दिल में उतार पाना। तभी तो गुलज़ार उन्हें ‘ग़ज़लजीत’ कहते हैं, फाहे-सी एक ऐसी आवाज कि दर्द पर हल्का-हल्का मलिए तो थोड़ा चुभती भी है और राहत भी मिलती है।
झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम में नक्सली बम विस्फोट में जब एक साथ कई थानों के पुलिसवाले मारे गए थे, तो उसमें पापा बच गए थे। मैं तब प्रभात ख़बर में था, एकदम नया-नया। मैंने पापा से कहा कि अपने अनुभव लिखिए, मैं यहां विशेष पेज तैयार कर रहा हूं, छापूंगा। उन्होंने जैसे-तैसे लिखा और भेज दिया, शीर्षक छोड़ दिया। अगले दिन के अखबार में पूरा बॉटम इसी स्टोरी के साथ था। एक आह भरी होगी, हमने न सुनी होगी, जाते-जाते तुमने आवाज़ तो दी होगी। उफ्फ, जगजीत आप कहां-कहां मौजूद नहीं हैं, भगवान की तरह।
ज़ी न्यूज़ में कुछ ख़ास तारीखों पर काम करना बड़ा अच्छा लगता था….जैसे 8 फरवरी (जगजीत सिंह का बर्थडे)...हर रोज़ ज़ी यूपी के लिए रात 09.30 बजे आधे घंटे की एक ‘स्पेशल रिपोर्ट’ प्रो़ड्यूस करनी होती थी। जगजीत के लिए काम करते वक्त लगता ही नहीं कि काम कर रहे हैं। लगता ये एक घंटे का प्रोग्राम क्यों नहीं है। आज उनके जाने पर नौकरी छो़ड़ने का बड़ा अफसोस हो रहा है। कौन उतने मन से याद करेगा जगजीत को, जैसे हम करते थे। आपकी ग़ज़लों के बगैर तो फूट-फूट कर रोना भी रोना नहीं कहा जा सकता।
निखिल आनंद गिरि