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सोमवार, 20 दिसंबर 2010

दे दो न इसको आवाज़ साथी...

उम्र की कच्ची सड़कों पर जब, हम-तुम अल्हड़ मस्त चाल में;
सब कुछ पीछे छोड़ बढ़े थे...
तुमको भी सब याद ही होगा...

नर्म ज़ुबां में भोली नज़्में,
मैं गढ़ता था, तुम सुनती थीं..
एक नज़्म जो अटक गई थी,
नटखट थोड़ी, नकचढ़ी सी...
उम्र की सीढ़ी पर चुपके से...
मैंने तुम्हारे रस्ते में रख छोड़ी थी...
रिश्तों की पोशाक ओढ़ाकर.
थोड़ा-सा बहला फुसलाकर
तुमको भी सब याद ही होगा...

बहकी-बहकी नज़्म को तुमने,
ठोकर मारी और गुज़र गए...
अल्हड़, अगड़ाई लेती नज़्म वो
रिश्तों की पोशाक लपेटे,
सुबक-सुबक कर, कहीं दुबक कर...
उम्र के रस्ते में खोई थी...
तुमको भी सब याद ही होगा...

आज अचानक किसी गली में,
वक्त के लब पर...
वही नज़्म फिर से,
मुझे दिख पड़ी है...
मिसरे वही हैं, बहर भी वही है...
रिश्तों की पोशाक ज़रा-सी रफू हुई है...

वही शरारत, नज़्म में अब भी...
भोलापन, अंगड़ाई वही है...
तुम्हारी ठोकर से जो एक रिश्ता
हौले-हौले सुबक रहा था,
उम्र की कच्ची सड़कों पर,
बरसों से दुबक रहा था...

उन्हीं लबों की इसे फिर तलब है....
दे दो न इसको आवाज़ साथी....

निखिल आनंद गिरि

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सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

जिस्म की गिरहें....

कुछ लम्हे बेहद शातिर थे,
रिश्तों में दरारें कर डाली...
छीन ली नज़रों की नरमी,
मुस्कान वही पहले वाली....

मैं लाख छिपाता फिरता हूं,
इक सच का लम्हा आंखों में..
सब पढ़ लेते हैं चुपके से
इक गुस्ताखी तारीखों की...
मैं रुह समेटे लौटा था

वो आंसू का सैलाब ही था,
मैं जैसे-तैसे बच निकला,
इक सिलवट तब भी चुपके से,
मैं साथ ही लाया था....
चांद-सितारे सब चुप थे...
उन लम्हों की खामोशी में,,,

वो लम्हे चीख रहे हैं अब,
वो सिलवट तड़प रही है अब....
शातिर लम्हे, नटखट सिलवट...
रिश्तों में घुटन फैलाने लगे...

मैं बेबस आखिर क्या करता,
रोया, चीखा, चिल्लाने लगा...
मजबूरी थी, गुस्ताखी नहीं...
तुम इक ना इक दिन समझोगे,
उस लम्हे की सच्चाई को...
मैं रुह उठाकर ले आया....
पर जिस्म की गिरहें खुल न सकीं...

इस उम्र के रस्ते पर साथी,
ये जिस्म ही मील का पत्थर है...
आओ न मिटा दें सब दूरी,
है रूह की मंज़िल दूर बहुत...

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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