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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

मौन रहिए

वो तीन में भी हैं
और तेरह में भी
शाम में भी
सवेरे में भी

आप कहिए कि एक नई किताब लिखनी है
वो कहेंगे किताबे तो हमने कई लिखी
इतनी लिखी कि नाम भी याद नहीं सबके

कहिए कि अख़बार में छपी है फलाने की फोटो
तो बोलेंगे कि ये सब कब का छोड़ दिया हमने
एक पेज मेरी ही तस्वीरों से छपा करते थे अख़बार 
पूछिए किस नाम का था अख़बार 
तो कहेंगे बताएंगे अगली बार

आप कहिए कि भोपाल एक अच्छा शहर है 
पहली बार गया मैं
कहेंगे पहली बार तो मैं गया था भोपाल
गया से थी मेरी ट्रेन
जब जाते ही झीलें भर गई थीं बारिश से
फल्गू नदी तभी पहली बार सूखी 
या फिर बशीर बद्र ने फलां शायरी उन्हीं के स्वागत में लिखी थी

कहिए कि मुझे सीने में दर्द की शिकायत है
वो कहेंगे सीने में दर्द क्या होता है
अजी इस युवा जीवन में तीन बार दिल का दौरा पड़ा
खड़ा हूं अब तक अपने पैरों पर
ये खड़प्पन है मेरा।

आप कहिए
कहिए मत कहने के लिए सांस भी लीजिए
तो कहेंगे सांस तो हम..

आप कहेंगे आंख
वो रतौंधी
नाक
तो नकसीर
आप कहेंगे पेट
वो कहेंगे बवासीर

बेहतर है आप कुछ न कहिए 
मौन रहिए
क्योंकि उन्होंने सिर्फ शोर करना सीखा है
मौन की भाषा में निरक्षर हैं
वह नहीं जानते कि समय शोर करने वालों का नहीं
समय आने पर बोलने वालों का ही होता है।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 5 जनवरी 2011

ठूंठ पीढ़ियां, बेबस माली...

जिन पेड़ों ने फल नहीं दिए,

उन्हें भी सींचा गया था सलीके से

भरपूर खाद-पानी और देखभाल के साथ..

हवा भी उतनी ही मिली थी उन्हें,

जितनी बाक़ी पेड़ों के नसीब में थी....

उम्मीद के लंबे अंतराल ने दिया

माली को ठूँठ पेड़ों का दुख..


ये दुख नहीं बना चर्चा का विषय

बुद्धू बक्से के बुद्धिजीवियों के बीच

या किसी भी अखबार के पन्ने पर,


पीढ़ी दर पीढ़ी उगते रहे ठूंठ

और घेरते रहे जगह,

फलदार पेड़ों के बरक्स....


फलदार पेड़ों को क्या था..

झूमकर लहराते रहे अपनी किस्मत पर....

ठूंठ पेड़ों से बिना उलझे,

मुंह घुमाकर समझते रहे,

कि हर ओर हरी है दुनिया....


उधर मालियों ने फिर भी सींचा,

नए बीजों को, नई उम्मीद से...

जब तक नीरस नहीं हुई पूरी पीढ़ी...


फिर बेबस मालियों ने सोचा उपाय

ठूंठ पेड़ों से कुछ काम निकाला जाये..

गर्दन में फंसाकर फंदे,

वो झूल गए इन्हीं पेड़ों पर...

और थोड़े-से फलदार पेड़ देखते रहे

अपनी तयशुदा मौत का पहला भाग...


काश! फलदार पेड़ों ने किया होता प्रतिरोध

ज़रा-सा भी,

तो ठूंठ पेड़ों में फल तो नहीं आते,

मगर वो समय रहते शर्म से

टूटकर गिर ज़रूर जाते,


ज़िंदा रहते माली

ताकि,

फलदार पेड़ों की भी हरी रहती डाली....


निखिल आनंद गिरि

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