रविवार, 29 दिसंबर 2024

आने लगी हैं इन दिनों हिचकियां बहुत

कोई भरे है मेरे लिए सिसकियां बहुत
आने लगी हैं इन दिनों हिचकियां बहुत

आपका ही क़द मुझे मुझसे बड़ा मिला 
वरना तो मिलता ही रही हस्तियां बहुत

जब से असल में शेर की दहाड़ देख ली
गदहे भी ले रहे हैं अब मुरकियां बहुत

वो आंसुओं की ओस में भीगते मौसम
ये तन्हा, बेसुवाद, अजब सर्दियां बहुत

ये कौन है जो शहर को वीरान कर गया
हिलती रही हवाओं से भी खिड़कियां बहुत

जोकर तो हंसाता रहा वोट मांग कर
बस्ती में कैसे उठ रही चिंगारियां बहुत


निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

दिल्ली मेट्रो - मेरा मेट्रो

मैंने अपने मीडिया के करियर में कम से कम नौ नौकरियां बदली हैं। दो साल से ज़्यादा कहीं टिक पाया तो वो संस्थान था दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन लिमिटेड। एक कार्यकर्ता के तौर पर आपने संस्थान को क्या दिया, इसे मापना हो तो आप ये देखें कि संस्थान आपके जाने के बाद भी आपको किस तरह याद करता है।

पिछले साल निजी कारणों से दिल्ली मेट्रो छोड़ने के बाद दिल्ली शहर भी छूट गया। बिहार में पटना की एक यूनिवर्सिटी में नई नौकरी शुरू हुई, जो पिछली सब नौकरियों से अलग थी। डेढ़ दो साल में एक भी दिन ऐसा नहीं आया जब मैने दिल्ली मेट्रो के वर्क कल्चर को याद न किया हो। देश के बहुत कम ऐसे संस्थान हैं, जहां पंक्चुअलिटी (समयबद्धता) एक धर्म की तरह वहां काम करने वालों की नसों में बहता हो। ये कमी मुझे बाकी सब संस्थानों में खली, बेहतरीन नेशनल ज्योग्राफिक चैनल में भी जहां शाम 6 बजे के बाद कोई न कोई मीटिंग शुरू होती थी।

दिल्ली मेट्रो में कई कार्यक्रमों का मंच संचालन करने के भरपूर मौके मिले। दुनिया के कई देशों के अतिथियों को मेट्रो घुमाने का मौका भी मिला, उनसे बहुत कुछ सीखने का भी। जब मेट्रो से नौकरी छूटी तो लगा ये सब नए सिरे से शुरू करना होगा।

इसी मेट्रो में रहते हुए पत्नी को कैंसर हुआ, तब भी मेट्रो ने मेरा भरपूर साथ दिया। पत्नी को बचाया नहीं जा सका लेकिन मेट्रो का साथ देना ज़िंदगी भर याद रहेगा। जितने स्टेशन थे, मेरे लगभग उतने घर थे। चूंकि काम बहुत व्यस्तता भरा था, तो पत्नी को डॉक्टर के पास ले जाना हो या कीमो का सेशन हो, जिसे कहा वो दोस्त की तरह सेवा में हाज़िर हो गया ।

करीब दो साल के बाद अचानक मेरे बॉस अनुज दयाल का फोन आया कि दिल्ली मेट्रो में एक दो दिनों का सांस्कृतिक कार्यक्रम है, और हमें तुम्हारे बाद कोई ढंग का एंकर नहीं मिल पा रहा जो "समां" बांध सके। जल्दी फ्लाइट लो और दिल्ली चले आओ। जितना सुख अनुज सर के बुलाने का था, उससे ज़्यादा ये कि आपका किया हुआ अच्छा काम दो साल बाद भी लोग नहीं भूलते। ये एक ऐसा एहसास था, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता था।

जब मंच संचालन को दिल्ली पहुंचा तो एक एक मेट्रो कर्मी से ऐसे प्यार मिला कि उसे बयां नहीं किया जा सकता। यह इस साल के सबसे अच्छे दो दिन थे। 
शुक्रिया दिल्ली मेट्रो। 



























निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

नन्हें नानक के लिए डायरी

जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है।

ये पोस्ट मेरे दो साल के बेटे को देखकर मन में जगी। क्या उसे याद भी रहेगा कि जैसे उसके उठने से लेकर सोने तक उसकी 70 साल की दादी उसके साथ बच्चा बनी फिरती है।

कैसे उसके 76 साल के दादा, नहीं चल पाने की तमाम मजबूरियों के बीच भी उसके साथ थोड़ी देर ज़रूर चलना चाहते हैं। 

मेरे होने को लेकर वो इतना खुश होता है कि दुआ करने का मन होता है कि उसे कभी मां की कमी खले ही नहीं। सोना, रोना, रूठना, मान जाना सब मुझ पर आकर ख़त्म हो जाता है।

पूरे घर के अकेलेपन को उसने अपनी किलकारियों से भर दिया है। वो कहता है कि कबूतर थूकता है तो हमें लगता है ये क्या पारखी नज़र से अपनी भाषा और समझ गढ़ रहा है। वो अपनी साइकिल को चलाता नहीं, उसमें खड़ा होकर सब कमरों का सफर करता है तो लगता है साइकिल चलाने का सिर यही तरीका हो सकता था।

लोई, जो उससे कम से कम आठ साल बड़ी है, उसके बाल वो इस हक़ से खींचता है कि डांटते हुए भी प्यार आता है। जब डांटा तो कहेगा अब नहीं खींचेगा,जैसे ही डर गया फिर आकर कहेगा "खींचूंगा"। परेशान लोई भी उसकी इस अदा पर हंस पड़ती है।
ये डायरी इसीलिए ज़रूरी है कि समय की आपाधापी में जब हम ये लम्हे भूलने लगें तो पलट कर देखने से लगे कि दुनिया कितनी मासूम होकर भी जी जा सकती है।


निखिल आनंद गिरि

रविवार, 1 दिसंबर 2024

राष्ट्रपति

'हम घर के लिए चुनते हैं 
पैर पोंछने की चटाई
तब भी गिन-परख कर पोंछते हैं।

ककरी ख़रीदने पर भी देखते हैं
ज़रा-सा चख कर
कोई तीतापन तो नहीं आ गया झोले में।

बेकार चीज़ों को घर से दूर
फेंक आते हैं कहीं।

नदी में जहां ज़रा-भी मैला हो पानी
हथेली से दूर कर देते हैं
उतरने से पहले।

और राष्ट्रपति ऐसे चुनते हैं 
जैसे बकरीद पर चांपने के लिए 
पालते-पोसते हों बकरी।

जैसे चुनते हों कान साफ करने के लिए
सबसे कमज़ोर लकड़ी।
सुनो जनगण सुनो'

(यहां 'राष्ट्रपति' की जगह 'वाईस चांसलर' या राज्यपाल या कोई और लाभ का पद भी पढ़ सकते हैं)


निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 5 नवंबर 2024

भोजपुरी सिनेमा के चौथे युग की शुरुआत है पहली साइंस फिक्शन फिल्म "मद्धिम"

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि - कथाकार विमल चंद्र पांडेय की भोजपुरी फिल्म "मद्धिम" शानदार थ्रिलर है। 

वरिष्ठ पत्रकार अविजित घोष की "सिनेमा भोजपुरी" किताब में भोजपुरी सिनेमा के अलग अलग दशकों को कंटेंट के लिहाज़ से तीन युगों में बांटा गया था। उसके बाद भोजपुरी सिनेमा में कुछ बहुत नया या उल्लेखनीय हुआ, याद नहीं आ रहा।
चूंकि यह भोजपुरी की पहली साइंस फिक्शन फिल्म बताई जा रही है। इस लिहाज से हम इसे भोजपुरी सिनेमा का नया या चौथा युग भी कह सकते हैं। 

एकदम कसी हुई कहानी, अफसोस ये कि सिर्फ 47 मिनट में ख़त्म हो जाती है। कहीं से नहीं लगता कि ये निर्देशक की पहली भोजपुरी फिल्म है। कास्टिंग और एक्टिंग दोनों बहुत सधी हुई। 
निर्देशक विमल जी ने बातचीत में बताया कि इस साइंस कल्पना का आधार बचपन में पढ़ी गई "विज्ञान प्रगति" जैसी पत्रिका है तो और अच्छा लगा कि हमारे समकालीन भोजपुरी निर्देशकों को पढ़ने लिखने का महत्व समझना चाहिए। 
ये मर्डर मिस्ट्री किसी भी भाषा में बनती तो इसका असर कम नहीं होता। मगर विमल ने इसे अपनी बोली भोजपुरी में बनाने का साहस दिखाया, ये भोजपुरी सिनेमा के लिए

बहुत सम्मान करने लायक बात है। कोई फूहड़ दृश्य या गाना या संवाद पूरी फिल्म में कहीं नहीं मिलेगा।
क्लाइमैक्स में एक झोल लगा कि पुलिस अपनी तफ़्तीश के सबसे तनावपूर्ण मौक़े पर संदिग्धों के साथ कब मीटिंग रखती है, वो भी बिना हथकड़ी या बंदिश के। ख़ैर, थोड़ा बहुत चलता है, "मद्धिम" को ज़ोर से बधाई।
इसी फिल्म से एक स्क्रीनशॉट, जिसमें निर्देशक ने ख़ुद को पर्दे पर लाने का मोह नहीं छोड़ा है।
ज़िंदाबाद

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 20 अक्टूबर 2024

स्त्री 2 - सरकटे से डर नहीं लगता साहब, फ़ालतू कॉमेडी से लगता है



हिंदी सिनेमा में आखिरी बार आपने कटा हुआ सिर हाथ में लेकर डराने वाला विलेन कब देखा था। मेरा जवाब है "कभी नहीं"। ये 2024 है, जहां देश का प्रधानमंत्री इतना शक्तिशाली है कि चीन अमरीका सबके प्रधानमंत्री मिलते ही गले लग लेते हैं और आप मानकर चल रहे हैं कि इस फिल्म में आपको डरने जाना है, भले ही वो कुछ भी दिखाते रहें। 

अगर आप ऊबकर अपना सर सिनेमा हॉल में दाएं बाएं घुमाएंगे तो देखेंगे कि हर तरफ कोई सरकटा सीट के किनारों में बैठा है और कोई न कोई स्त्री उसके "चंगुल" में बैठी हुई है। शायद खुशी खुशी। दुविधा ये है कि आप मल्टीप्लेक्स की गुफ़ा में ख़ुद शहर के रक्षक बनकर सभी स्त्रियों को देखेंगे या असली फिल्म में हॉरर के नाम पर जो कॉमेडी हो रही है, वह भी देखेंगे। 

फिल्म वाला सरकटा थोड़ी देर और करता तो मेरे बगल वाली सीट पर बैठा पुरुष अपने साथ लाई स्त्री को तीसरी बार भी अपनी जांघ पर बिठा लेता।  लेकिन मैं यू सब आपको क्यूं बता रहा हूं, मुझे तो फिल्म पर बात करनी थी। चलिए शुरू करते हैं - 
यह फिल्म नहीं, आग उगलते लावा में अपने पैसे फेंक कर जला देने का आत्मघाती प्रयास है।

2024 में मेरी उम्र इतनी हो चुकी है कि अब हॉरर से डर नहीं लगता साहब, ख़राब कॉमेडी से लगता है। इस फिल्म में कॉमेडी ऐसी है जिससे नहीं, जिसपर हंसी आती है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता याद होगी - "अगर आपके घर के एक कमरे में आग लगी हो, और दूसरे में आप चैन से सो रहे हों तो मुझे कुछ नहीं कहना"। यहां एक "राक्षस" औरतों को उठाकर ले जा रहा है और वहां उस लड़की का प्रेमी और उसके दोस्त कॉमेडी में व्यस्त है । वो दिल्ली से अपने दोस्त को खतरे के मुंह में झोंकने के लिए बुलाकर लाते हैं कि उसे अकेला छोड़ देंगे और भूत जब उसे मार डालेगा तो सबको मज़ा आएगा। ये हमारे समाज की कॉमेडी का स्तर है, तो फिर मुझे किसी से कुछ नहीं कहना।
कुछ दृश्य ज़रूर अच्छे हैं जैसे डर के मारे हाथी के पुतले में घुसकर उधर उधर रास्ता भटकते दोस्तों का परेशान होना।
और क्या कहा जाए। पंकज त्रिपाठी अभी भी कालीन भैया के टोन से बाहर नहीं आ सके हैं। लड़कियों को बचाने के लिए लड़कियों का क्या क्या नहीं बनवा दिया है फिल्म में। कॉमेडी और भूत(नी) के नाम पर कॉमेडी को याद करना हो तो "I M kalam" याद कीजिए, जब भाटी के यहां काम करने वाले लड़के छोटू को उसका बड़ा स्टाफ लपटन अपने कमरे में सोने नहीं देता और वो बाहर से डरावनी आवाज़ें निकालकर कैसे डराता है। डर वहां कॉमेडी की शक्ल में है और कितना सुंदर भी है।

स्त्री -2 में ऐसा कुछ भी नया नहीं, जिसे आपने पहले की भुतहा फिल्मों में न देखा हो। और तो और, जब भूत-भूतनियां आपको डरा नहीं पातीं  तो निर्देशक इस बार आपको अक्षय कुमार से डराएगा कि बेटा जी डर जाओ वरना ये कहीं भी किसी भी फिल्म में कुछ भी बनकर आ सकता है। अगली बार तो मुख्य किरदार बनकर आने वाला है।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

मैं लौटता हूं

 प्रिय दुनिया,
बहुत दिनों तक भुलाए रखने का शुक्रिया!
मैं इतने दिन कहां रहा
कैसे बचा रहा
यह बताना ज़रूरी नहीं
मगर सब कुछ बचाते बचाते
खुद न बचने का डर वापस लाया है।

इस बीच एक लंबी रात थी
जो शायद अब भी है
मगर अंधेरे में दिखने लग जाता है
लंबी रातों में।
एक बार उदासी कुछ यूं थी कि
मैंने किसी गिलास को पकड़ने के बजाय
एक औरत की गर्दन पकड़ ली
बहुत देर बाद मालूम हुआ
अंधेरा कितना खतरनाक,
कितना अंधेरा हो सकता है।

मुझे अंधेरे में कई हाथ दिखते हैं
कई गर्दनें दिखती हैं
संभव है ज्यादातर औरतों की गर्दनें हों
मुझे लगता है कि जब देखूंगा
उजाले में उन हाथों को
क्या उनके हाथ में उजाले की गर्दन भी होगी?

इन भुलाए गए बहुत दिनों में
मैं एक बंद कमरे को दुनिया समझता रहा
ऐसा कई लोग करते हैं अपने उदास दिनों में
मगर कहने की हिम्मत नहीं करते।

इसी बीच कुछ प्यार करने का मन हुआ
तो मैंने अपनी चीख से प्यार किया
उस लड़की का चेहरा भी दिमाग में आया
जिसे कभी किसी से प्यार की उम्मीद नहीं रही।
मैं कई बार लड़ा अपने डर से
दवाईयों से, घर से
कई बार तो डॉक्टर से।

तो मैं कहना चाहता हूं जो
सिर्फ इसी भाषा में संभव है
कि दुनिया में कुछ भी इतना प्यारा नहीं
जितना भुलाए जाने का डर।

मैं लौटता हूं
अपने तमाम डर के साथ
कविता की तरह नहीं
बरसों बाद लौटी चीख की तरह।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 17 अगस्त 2024

बेस्टसेलर होने के पीछे की अंधेरी दास्तान है "टिप टिप बरसा पानी"


आजकल फिल्मी गीतों या नामों पर हिंदी साहित्य में किताबों के नाम रखे जाने का ट्रेंड है। 

हाल ही में मैंने अपने साथी तोमोजित भट्टाचार्य की एक अंग्रेज़ी पुस्तक पढ़ी "Destination Delhi"। उसमें भी एक अनोखा प्रयोग ये था कि किताब के हर अध्याय का नाम हिंदी फिल्मी गानों का टाइटल था - जैसे "एक अकेला इस शहर में", "हम आए हैं यूपी बिहार लूटने", "वो शाम कुछ अजीब थी" आदि।

वरिष्ठ कवि व कथाकार अभिज्ञात के नए हिंदी उपन्यास का शीर्षक 'टिप टिप बरसा पानी' भी ' '90 के दशक की मशहूर फिल्म "मोहरा" से उठाया गया है, जो रवीना टंडन पर बेहद लुभावने अंदाज़ में फिल्माया गया था। सिर्फ शीर्षक ही नहीं, पूरा उपन्यास ही "मोहरा" की तरह नए-नए उतार चढ़ाव से भरा पड़ा है। 

इस उपन्यास का शीर्षक "मोहरा" भी रख देते तो शायद ज़्यादा सार्थक होता क्योंकि पूरी कहानी में हर पात्र किसी न किसी की बिसात पर बिछा मोहरा ही है। उपन्यास के लेखक की उम्र अगर न बताई जाए तो लगेगा कि नई वाली हिंदी के किसी अभी-अभी उगे लेखक ने बेस्टसेलर होने की जुगत में इस उपन्यास को लिखा है। सिर्फ भाषा ही नहीं, कच्ची उम्र के कुछ दृश्य भी ऐसी ताज़गी से रचे गए हैं कि आप एक साथ अनुभवी साहित्य में लुगदी का आनंद ले सकते हैं।

अभिज्ञात हिंदी साहित्य में लंबा अनुभव रखते हैं। इस कहानी में उन्होंने बड़ी चतुराई से अंग्रेज़ी साहित्य के भीतर का काला संसार रचा है और हिंदी वालों को क्षणिक क्लीन चिट दे दी है। मुख्य पात्र अंग्रेज़ी का एक बेस्टसेलर लेखक है, जिसका मुख्य काम शोहरत के लालच में किसी भी तरह से संपर्क साधना और अय्याशी के लिए इस्तेमाल करना है। अपने उपन्यास के प्लॉट के लिए वो अपने संपर्क में आए कुछ युवाओं को ऐसे जाल में फंसाता है कि आप अगर अपनी भाषा के लेखक हैं, तो आप अपनी मर्यादा का थर्मोमीटर ज़रूर चेक करने लगेंगे कि आपने बुलंदियों की सीढियां चढ़ने के लिए जाने अनजाने किसी का इस्तेमाल तो नहीं किया है।

शुरू में आपको लगता है कि आप ये साधारण भाषा वाली अति साधारण कहानी पूरी क्यूं पढ़ेंगे जबकि आपके पास अपने बाल कटाने, गाड़ी धुलवाने, बच्चों को खेलने-खिलाने जैसे कई अधूरे काम पूरे करने हैं, फिर अचानक एक मोड़ तक पढ़ चुकने के बाद ये कहानी आपको नहीं छोड़ती। हर पन्ने पर कहानी मीलों का सफ़र तय करती है। कोलकाता से अमरीका तक। और इस बीच में क्या-क्या नहीं होता।

आसान दिखती कहानी के पात्र बहुत कसाव के साथ एक दूसरे के साथ बंधे हुए हैं जो समय समय पर ज़रूरत के हिसाब से उग आते हैं। ऐसी कहानियों पर कोई फिल्म या आज के ज़माने में कोई वेबसीरीज बने तो ताज्जुब नहीं होगा। चूंकि उपन्यासकार अभिज्ञत अभिनेता भी हैं तो वेबसीरीज के नायक "अनिमेष" की भूमिका भी ख़ुद उन्हें ही निभानी चाहिए क्योंकि एक साहित्यिक यात्रा में जितने शेड्स लेखक की निजी ज़िंदगी में होते हैं, अभिज्ञात ने वो सब जिए ही होंगे। 

तो अगर आप नई वाली हिंदी के नाम पर भाषा की खिचड़ी के साथ कहानी का सूखा पापड़ नहीं खाना चाहते तो अभिज्ञात को पढ़िए। वो पुरानी वाली हिंदी के आदमी हैं, मगर उनकी रची प्रेम कहानी पढ़कर नए वाले लौंडे बहुत दिनों तक पानी भरेंगे।

(युगवार्ता में प्रकाशित)
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

चालीस की सड़क

दुनिया अब बाज़ार में बदल गई है
दोस्त अब आत्महत्याओं में बदल गए हैं
मंच अब मंडियों में बदल गए हैं
कविताएं अब पंक्तियों में बदल गई हैं

तुम्हारी याद एक बच्चे की नींद में बदल गई है
मेरा रोना अब लोरियों में बदल रहा है।
इस वक्त जो मैं खड़ा हूं
चालीस की तरफ जाती एक सड़क पर
जिसका नाम जीवन है
और जो एक पीड़ा में बदल गया है - 

मैं बदलना चाहता था एक प्रेमी में
एक अकेले कुंठाग्रस्त कवि में बदलता जा रहा हूं

दुनिया बदल जाती केले के छिलके में 
तो कितना अच्छा होता
फिसल जाते हम सब।

दुनिया एक प्लेस्कूल में बदल गई है
जहां मेरे दो बच्चे पढ़ते हैं
चहचहाते हैं, नई भाषाएं सीखते हैं
दुनिया का नक्शा काटते हैं।
और मैं उनके लौटने का इंतज़ार 
करता हूं सड़क के उस पार

मैं एक भिक्षुक में बदलना चाहता था
जिसके कटोरे में मीठी स्मृतियां होतीं 
मगर मैं एक चौकीदार में 
बदलता जा रहा हूं
सावधान की मुद्रा में खड़े
उम्र के बुझते हुए लैंप पोस्ट के नीचे

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 31 जुलाई 2024

रिंगटोन

एक सस्ता फोन मां के पास है
जो चाह कर भी नहीं टूटता
पिता के पास भी है फोन
वह ख़ुद भी टैंपर्ड ग्लास की तरह
टूटने से बचाते हुए हमें
हमारी सुरक्षा के भ्रम में हैं।

एक लैंडलाइन अब तक है 
हमारे यहां जो कुछ दिन में
इतिहास बन जाएगी।

जितने लोग हैं दुनिया में
उनसे कहीं ज़्यादा हैं फोन
ग़लत नंबर वालों के कॉल सबसे ज़्यादा
कर्ज़ वालों के भी
थाई मसाज कराने के लिए भी 
कर लेता है कोई अजनबी संवाद।
कोई वोट मांगने के लिए भी
कर लेता है झूठमूठ याद। 

जो असल में याद आते हैं
बहुत प्रतीक्षा करने पर भी 
नहीं आता उनका कोई फोन कॉल

विज्ञान तुम आगे बढ़ो इतना कि
जीवन-मृत्यु के दो संसारों में 
बंट गए अभिन्न लोग
एक बार कॉल कर सकें एक-दूसरे को
या किसी रिंगटोन के सहारे ही
खोल दो उनकी अनंत नींद

कविता में याद करने की अपनी सीमाएं हैं।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 17 जुलाई 2024

पुकार


देखो मां!
तुमसे मिलने कौन आया है

मुझे गिराओ किसी पत्ते की लंगड़ी से
मैं चूमूंगा मिट्टी 
पत्ते फूल की तरह झड़ेंगे

मैं आंगन में अकेला टहलता हूं
एक बूढ़ी अलगनी है, 
एक उदास कुआं है
मिट्टी के चूल्हे में सिर्फ धुआं है
इस वीराने में रोऊंगा नहीं
जानता हूं
तुम यही छिपी हो कहीं

देखो ये किसके नन्हें पांव है
जो अपने पुरखों को गुदगुदी करते हैं

आओ खेलें लुकाछिपी
एक दो तीन चार
...
धप्पा करो एक बार

सुनो मेरी पुकार
ढूंढ रहा हूं अनंत तक तुम्हें।

                                                                          
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 मई 2024

याद का आखिरी पत्ता

विजय
छल पर निश्छल की
कोलाहल पर शांति की
युद्ध पर विराम की
अनेक पर एक की
हंसी पर आंसू की 
मृत्यु
एक उपलब्धि है
जिस पर गर्व करना मुश्किल है

तुमने वह पा लिया मुझसे पहले
जिसके बाद कुछ पाने की इच्छा नहीं बचती
मृत्यु बुद्ध हो जाना है
रोना, कलपना, मिलना बिछड़ना
सब छोड़ शुद्ध हो जाना है

मन एक साथ इतनी आवाज़ें करता था
अब शांत है
स्मृतियां धीमे धीमे टहलती हैं

हमारी याद में एक नंबर पर चलती गाड़ी है 
एक फिरोज़ी रंग की नहीं खरीदी गई साड़ी है
एक रिसता हुआ नल है
सीलन वाली दीवार है
एक नहीं सुनी गई पुकार है
और कभी न खत्म होने वाला इंतजार है

उस पत्ते पर अब तुम्हारा चेहरा है
जो बोधिवृक्ष से टूट कर गिरा था
हमारी याद में एक पत्ता खड़कता है
और उसे छू लेने को
मुझ सा कोई अनंत तक लपकता है।

निखिल आनंद गिरि

मरने की फुरसत

गो कि यही चलन है मेरी दुनिया का
जीते जी भुला दिए जाते हैं लोग
अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो

ख़ैर बताओ बातें अपनी दुनिया की
कुछ तो अलग दिखाई देता होगा सब
क्या वहां भी पैदल चलना पड़ता है
चलते चलते चप्पल टूट भी जाती है
क्या वहां भी मुझसा कोई हाथों में
टूटी चप्पल लेकर मीलों चलता है

क्या वहां भी छोटी मोटी अनबन पर
साथी यूं ही रूठ जाया करते हैं
या फिर जैसे तुम्हें थी जल्दी जाने की
वहां भी ऐसे हाथ छुड़ाया करते हैं
फिर सालों तक आंसू वाली रातों में
सपने बनकर आया जाया करते हैं?

वहां किताबें तो होंगी ना पढ़ने को
जिसमें कोई फूल की पत्ती रहती हो?
बाग बगीचे घुघू पाखी की चीचीं 
और नदी भी कोई धीमे बहती हो?
यहां नदी में उतरी थीं तो पार गईं 
वहां नदी से आने की ज़िद करती हो?

मेरा क्या है मैं तो जैसा तैसा हूं
तुम्हें ही ज़्यादा सर्दी गर्मी लगती थी
मीठी वाली गोली तुम्हें खिलाने को
मन बहलाने को रखनी ही पड़ती है
वहां की दुनिया में भी क्या बीमारी से
अच्छे भलों की दुनिया रोज़ उजड़ती है?

अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो
इस दुनिया से उस दुनिया की दूरी का
कोई भी अंदाज़ा मुझको मिल जाता
तो मैं बच्चों के साथ कुछ ना कुछ करके
तुमसे मिलने ट्रेन पकड़ के आ जाता

ठीक से रहना, तुम्हें ठीक की आदत थी
मैं तो जैसे तैसे ठीक ही रहता था
तुमको जाने की जल्दी थी चली गईं
वक्त के आगे किसकी लेकिन चलती है
यहां तुम्हारी उम्र भी मुझको जीनी है
मरने की फुरसत ही नहीं निकलती है।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 24 अप्रैल 2024

जाना

तुम गईं..

जैसे रेलवे के सफर में

बिछड़ जाते हैं कुछ लोग

कभी न मिलने के लिए

 

जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो

जैसे नए परिंदों से घोंसले

जैसे लोग जाते रहे

अपने-अपने समय में

अपनी-अपनी माटी से

और कहलाते रहे रिफ्यूजी

 

जैसे चला जाता है समय

दीवार पर अटकी घड़ी से

जैसे चली जाती है हंसी

बेटियों की विदाई के बाद 

पिता के चेहरे से


तुम गईं

जैसे होली के रोज़ दादी

नए साल के रोज़ बाबा

जैसे कोई अपना छोड़ जाता है

अपनी जगह 

आंखों में आंसू


निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

नदी तुम धीमे बहते जाना

नदी तुम धीमे बहती जाना 
मीत अकेला, बहता जाए
देस बड़ा वीराना रे
नदी तुम..

बिना बताए, इक दिन उसने
बीच भंवर में छोड़ दिया
सात जनम सांसों का रिश्ता
एक झटके में तोड़ दिया
एक नदी भरकर आंखों में
फिरता हूं दीवाना रे
नदी तुम.. 

वही पुरानी गलियां सारी
वही शहर के रस्ते हैं
वही फूल जो तुमने रोपे
मुझे देखकर हंसते हैं
किसे दिखाएं जीते जीते
घुट घुट कर मर जाना रे
नदी तुम..

उफनती लहरों से बचकर
मछलियों लेना उसको धर
बड़ा भोला है वो दिलबर
नदी तुम रहना मां बनकर
नदी वो लंबी नींद में होगी
उसको हौले से सुलाना रे
नदी तुम धीमे बहती जाना रे..



निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

प्रेतशिला

प्रिय जो छोड़ गया शरीर 
उसे जलाने के बाद
धूप में तपती सीढियां चढ़कर 
जलाने होते हैं तलवे
उसकी याद को छोड़ आना होता है 
सात सौ सीढ़ियों के उस पार
....
....
तब जाकर मुक्ति देती है प्रेतशिला

प्रेतशिला मुक्ति का द्वार है 
एक बार मुड़े तो
पीछे मुड़कर देखना तक मना है
छोड़नी होती हैं
मिलने की तमाम अधूरी इच्छाएं
रोते रोते छोड़नी होती हैं
हंसी खुशी बिताई तमाम स्मृतियां

अब उसे कितना बुखार?
किस मौसम में कैसा व्यवहार
कितने कपड़ों को साफ किया उसने
कितने बर्तन धोए जले जले
कितनी रातें तन्हा चांद तले!
सब कुछ छूट जायेगा

उतरती सीढियों में टकराती हैं निगाहें
ऊपर चढ़ते बिलखते नए चेहरों से
उनको हौसला भरकर झूठ कहना होता है
"बस कुछ सीढियां और"
कितनी सीढियां, कितने बिछोह!
किस किस से पूछा जाए
किसने कैसे साथ छोड़ा, ओह!

किसी की पत्नी जलकर मरी
किसी की डूबकर नदी में
किसी की पत्नी को लील गई
कम उम्र में ही बीमारी
सब सीढ़ियों पर रोएंगे

हर साल हर महीने हर हफ्ते हर घड़ी
कोई न कोई आएगा प्रेतशिला
अपने-अपने प्रिय प्रेतों के लिए 
नए कपड़े लेकर
प्रिय पकवान, कोई फोटो या कोई हंसती तस्वीर
रोते रोते लाएगा, छोड़ जायेगा
सशरीर

यह प्रेतशिला नहीं
आंसुओं का टीला है
जहां आंसुओ के आरपार
जीवन और मृत्यु के धागे उघड़ रहे हैं।

(प्रेतशिला गया के पास एक जगह है जहां अपने प्रिय की मृत्यु के बाद मुक्ति के लिए आने का रिवाज है)

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं
जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह 
लटकी थी देह
उधर लुढ़क गई।
मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने
एक शरीर की मृत्यु को।

रोते हुए सगे संबंधियों के बीच
मैंने देखा वो एक चेहरा 
जिसके पास रोने को कोई उपयुक्त वजह नहीं थी।
वह उस औरत का दुधमुंहा शिशु था
जिसे दूध पिलाकर शरीर छूट गया मां का।

वह शिशु अब दूध के लिए रोता नहीं
उसने मृत्यु को समझा आठ महीने में
अब जीवन को समझेगा
निर्बाध।

वह अपनी बड़ी बहन को देखेगा तो मां याद आयेगी
बड़ी बहन उसे देखेगी तो मां याद आयेगी
दोनों पिता को देखेंगे तो मां याद आयेगी
पिता रोने की उपयुक्त जगह ढूंढकर
रोएंगे तो सब याद आएगा ।

कोई बस ख़ाली सी
कोई मंदिर सूना सा
कोई किताब चेहरे जितनी 
कोई पर्दा अकेला सा
कोई गली अनजानी सी
कोई समय अनमना सा
क्यों नहीं मिलता 
हंसते मज़बूत दिखते पिताओं को

पिताओं के पास रोने की जगह क्यूं नहीं होती 
दुनिया में?

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 25 जनवरी 2024

चालीस की ओर

मैंने एक डायरी खरीदी
कविताएं लिखने के लिए
फिर उसमें रोज़ का खर्चा लिखने लगा
मोटी डायरी थी
और खर्च करने को पैसे नहीं थे
प्रेम था थोड़ा बहुत
कविताएं उससे भी कम।

समय हमारी इच्छाओं से चलता हुआ घोड़ा नहीं
समय केले का छिलका है
फिसल रहे हैं हम सब
दुनिया प्रेमिका की तरह है
एक दिन भुला देगी।

पहले पिता फिसलेंगे या मां
यह डर इतना बड़ा है कि
सोचते सोचते मेरे पांव भी अब छिलके पर हैं
बच्चे सुरक्षित हैं फिलहाल
लेकिन बस मेरे खयालों में ही।

बच्चों के लिए क्या है दुनिया
सिवाय प्लेस्कूल के
शोर बहुत है और उसी से सीखना है।

चालीस की तरफ़ आते आते लगता है
जीवन में कोई ईशान कोण नहीं
सब दिशाओं में वास्तु का दोष है

जब दाढ़ी नहीं उगती थी
तो दाढ़ी उगना आख़िरी इच्छा की तरह थी 
अब दाढ़ी बनाने में 
सुबह का सबसे कीमती समय ज़ाया होता है।

तानाशाह की दाढ़ी सिर्फ बच्चा खींच सकता है
चालीस की ओर का कोई आदमी 
सिर्फ गोली खा सकता है
गोली या तो डॉक्टर लिखेगा
या विद्रोह में शामिल होने पर
कोई हमउम्र पुलिस अफ़सर

इस उम्र पर बहुत कुछ लिखा गया
मगर लिख देने से क्या होता है
मेरी प्रेमिका ये उम्र नहीं देख सकी

जब लगा मर जायेगी
बच गई
जब लगा बच जाएगी 
मर गई


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 18 जनवरी 2024

दुख का रुमाल

इस सर्दी में कंबल ज़रा-सा सरका
तो सुन्न पड़ गया अंगूठा
हवा के साथ सुर्र से घुस आई
तुम्हारी याद दुख बनकर
कोई सुख ओढ़ाने नहीं आया।

लू वाली गर्मियों में
हाथ वाले पंखे की खड़-खड़ बन
बारिश के मौसम में
चप्पलों की छप छप बन
ऐसे ही आती रहेगी याद।

टिफिन में मीठे अचार का टुकड़ा बनकर भी 
याद आ सकती है
या अजनबी दिल्ली में पहली बार
ग़लत बस में चढ़ने की डांट बनकर

तुम्हारा जाना बड़ा दुख है
इससे बड़ा दुख है
तिल-तिल याद का आना

ज़िंदगी एक दुख भरे गाने की तरह है
जिसके रियाज़ में आते हैं आंसू
आ जाती है तुम्हारी याद भी
आंसू पोंछते हुए रुमाल की तरह

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 31 दिसंबर 2023

अब विदा लेता हूं


काश हमें अपनी आख़िरी मुलाकातों का पता हो 
तो हम कितना बेहतर बना देते अपनी मुलाकातें
शिकायतों से नहीं मिलते
अगली बार मिलने की इच्छा लिए भी नहीं
गले लगते तो देर तक रोते नहीं
पीछे मुड़ मुड़ कर नहीं देखते लौटते हुए

कोई रोता तो पोंछते आंसू
और समझाते
बिछड़ना ही सच है मेरे साथी
कोई मुलाकात नहीं ऐसी कि बिछड़ना न हो जिसमें
फिर रोना क्यूं
मुस्कुराकर मिलें आखिरी मिलना भी

हम याद करते अपनी पिछली मुलाकातों की हसीन गलतियां
कैसे झूले पर बैठने से पहले लड़े हम
कैसे गिरी चम्मच से खाने की कोशिश में 
नई कमीज़ पर चटनी
फिर मेरा गुस्सा तो तुम जानती ही हो

कैसे एक मुलाक़ात में 
हमने एक दूसरे का रोल प्ले किया था
तुमने दवा की दुकान पर जब मांगी थी एक गोली
कि दुकानदार देर तक पोछता रहा पसीना

कैसे मुड़ते ही बेटी के
तुमने चूम लिया था पहली बार मेरा माथा
और चूमना एक नया आविष्कार था हमारे लिए

आज मैं याद करता हूं एक मुलाकात को
जिसमें तुमने मरने का अभिनय किया था
देर तक लेटी रहीं मेरी गोद में
मैं रोने का अभिनय करता रहा
कि अब उठोगी
अब उठो.. गी
अब!!

एक पल नहीं
एक दिन नहीं
एक महीना नहीं
एक जीवन भी नहीं
पर्याप्त
उस विदा को भूलने में

यह साल का आख़िरी दिन है
और मैं इस साल से वो दृश्य अपने साथ लेकर
कई सालों तक थामूंगा
कभी तो उठोगी 
या फिर मैं ही लेट जाऊंगा 
जीवन का अभिनय करते करते
मेरी ज़िद तो तुम जानती ही हो।

अब विदा लेता हूं।


निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

दिसंबर में मई की याद

इस साल मई तक ठीक चला कैलेंडर
फिर एक जलते हुए दिन से 
धुआं इतना उड़ा कि
ख़ाक हुए सब दिन 
आगत विगत सब

बांस से पीट पीट कर बहाए अधजले मास
लात मारी 
ठोकरें ही ठोकरें
गंगा में जबरन धकेल दिया सब कुछ
सब कुछ का भरम धकेला शायद

स्मृतियां चिपक गईं आत्मा से
नहीं गईं महंगी शराब पीकर भी
नहीं गईं गहरी नींद के बाद भी
नहीं गई चुटकुलों से, गानों से या लोरियों से भी
नहीं गईं शहर बदलकर भी
कहां कहां नहीं गया मैं
नहीं गईं तो नहीं ही गईं
स्मृतियां

जून में मई की स्मृति गर्म थी
जुलाई में नरम
अगस्त सितंबर भी भीगे रहे स्मृतियों से
अक्टूबर नवम्बर डूब गए
दिसंबर आते आते
मई की स्मृतियां पहाड़ सी हो गई हैं

अब मैं इन स्मृतियों के साथ ही नए वर्षों में जाऊंगा
यह कोई संकल्प नहीं
एकमात्र विकल्प है।



निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 23 दिसंबर 2023

दिसंबर के नाम एक ख़त

प्रिय दिसंबर, 

तुम्हें देखकर बहुत अफ़सोस होता है। हर किसी की तमन्ना होती है कि तुम चले जाओ। जबकि ठंड इसी महीने परवान चढ़ती है। जबकि क्रिसमस इसी महीने आता है। जबकि स्कूली बच्चे एक हफ्ते ठंड में सुबह उठने और स्कूल जाने से बच जाते हैं। 
जबकि तुम पूरे इकतीस दिन के हो। फरवरी तो अक्सर अट्ठाइस दिन का ही होता है मगर लोग उस महीने में कितना प्यार करते हैं। 
ऐसी भी क्या ख़ास बात है बाकी महीनों में। जनवरी का इंतजार सब करते हैं लेकिन जनवरी आते ही सब रज़ाई में दुबकने के अलावा कुछ नहीं करते। आलसियों का महीना है जनवरी।
दिसंबर, तुम पर तरस नहीं प्यार आता है। महीनों की लाइन में तुम कई बरसों से, सदियों से सबसे पीछे खड़े हो फिर भी कोई विद्रोह तुम्हारे मन में कभी नहीं देखा।
तुम कभी मत जाना मेरे दिसंबर। कहीं मत जाना। तुम गए तो ये साल चला जायेगा। वो सब लोग, उनकी यादें इस साल के जाते ही कहीं गायब हो जाएंगी। जैसे मैं अपनी बीवी से आख़िरी बार इसी साल मिला। दरअसल, इस पूरे साल उससे सिर्फ दो बार ही मिला। कोई कहे तो माना जा सकता है कि एक ही बार। दूसरी बार गया तो वो जा चुकी थी। महीनों की गिनती से बहुत दूर। उसका जाना एक तारीख बनकर मेरे सीने में दफ़न हो गया। ये सोचकर बहुत डर लगता है दिसंबर कि तुम उस तारीख़ वाले साल की आख़िरी उम्मीद हो। 
मत जाना दिसंबर। मुझे पता है नहीं मानोगे। जाओ तुमसे नाराज़ होता हूं। अब मैं भी उन लोगों में शामिल हूं जो तुम्हें ख़त्म होते देख खुश होते हैं। तुमने मेरी यादों को ख़त्म किया इसीलिए तुम्हारा चले जाना ही बेहतर।

अलविदा!

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 13 दिसंबर 2023

पटना पुस्तक मेला - कवियों से पटी हुई भू है, पहचान कहां इसमें तू है!


दिल्ली में जगह जगह पर सस्ती किताबों के ठेले लगते हैं। सौ से अधिक लोग तो किसी ख़ाली दिन किताबें पलटने के लिए जुटे ही रहते हैं। आम तौर पर इन सस्ती जगहों पर भी अंग्रेज़ी की किताबें महंगी मिलती हैं। हिंदी की या तो नहीं मिलती या बेहद कम दाम में मिलती हैं। मैंने कई पुराने हिंदी उपन्यास इन्हीं सस्ते मेलों से खरीदे हैं।
पटना के गांधी मैदान में दिसंबर के पहले हफ्ते में लगने वाले सालाना पुस्तक मेले में पहली बार जाना हुआ। लोग उतने ही थे जितना दिल्ली वाले सस्ते ठेलों पर जुटते थे। सोशल मीडिया पर प्रचार ज़्यादा था।
कई साल बाद बिहार लौटने पर बिहार की स्मृति अब भी 16 साल पुरानी ही बनी हुई थी।  अख़बार को चाट चाट कर पढ़ने वाले लोग, एक एक पन्ना बांट बांट कर सामूहिक पाठ की कंजूस आदत वाला मेरा राज्य। पुस्तक मेले में 20 रुपए का प्रवेश टिकट लेकर घुसना थोड़ा आधुनिक महसूस करवा रहा था। वो भी तब जब मुझे मेले के एक मंच से कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया गया था।  मुझे लगा चलो सबके लिए ये बराबरी अच्छी ही है।
अंदर पहुंचकर मित्र आयोजकों ने टिकट लेकर मेरे अंदर आने पर अफ़सोस ज़ाहिर किया। 
20 रुपए इतने भी नहीं होते कि मैं उसके ना मिलने पर नाराज़ हो जाऊं या किसी साथी को फोन करूं। जुगाड़ वाले लोग मेले में सिर्फ आत्माओं की तरह भटकते हैं, चवन्नी की किताबें भी नहीं खरीदते; ये निजी अनुभवों से कह रहा हूं।
किताबें खरीदने के लिए बहुत ज़्यादा विकल्प थे भी नहीं। वाणी, राजकमल, सेतु और प्रभात वगैरह को छोड़ दें तो मोमो चाट के स्टॉल बराबर कुछ किताब की दुकानें और थीं बस।
पटना पुस्तक मेला ठंड में एकदम सिकुड़ा हुआ था। पटना की जगह पूर्णिया या फारबिसगंज में होता तो भी इससे बड़ा होता।
तिस पर एक और मेला गांधी मैदान में ही लगा हुआ था "मेरी कमीज़ उसकी कमीज़ से सफ़ेद" वाली तर्ज़ पर। कौन असली मेला है, कौन नकली, गब्बर सिंह को कुछ पता नहीं।
कार्यक्रमों के आयोजन ठीक थे मगर टाइमिंग इतनी ख़राब थी कि दो दो कविता पाठ अलग अलग मंचों से एक ही समय में शुरू होते थे। श्रोता वही, कवि वही तो कार्यक्रम दो जगह क्यों!
शारदा सिन्हा के साथ फ़ैज़ की कविताओं को भिड़ा दिया गया तो न शारदा सिन्हा को सुन पाए न फैज़ को बिना शोर के सुना पाए।
इस तरह की कई कमियों के बावजूद पटना पुस्तक मेले में जाना सुखद रहा। नए कवि मित्र बने। पटना शहर में कवियों की आबादी दिल्ली शहर से अधिक है, ये मेरी कविगणना में मालूम पड़ा। 
अब मेला खत्म हो चुका है। गांधी मैदान में अब फिर से गांधी की मूर्ति के नीचे धड़धड़ रील्स बनेंगी। दिल को कुछ दिन तक मेला याद आयेगा फिर किसी अगले मेला की तरफ झुक जायेगा। यही संसार का नियम है।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 12 दिसंबर 2023

जीवन दुख का विस्तार है

बिछड़ना एक क्रिया हो तो ठीक, प्रतिक्रिया हो तो बहुत दुखद है।
मृत्यु दुख देती नहीं, दुख के रूप में मृत्यु के साक्षियों में बस जाती है। 
जो मृतक के जितना क़रीब होता है, उसमें दुख उतने अनुपात में क़ैद हो जाता है।
जीवन क्या है, एक छोटे दुख का विस्तार ही तो है।
बेटी को बड़ा होते देखना आईना देखने जैसा है।
जब सब कुछ शांत होता है, एक मौन दूसरे मौन से बातें करता है।
मेरी मां सच्चे अर्थों में कवि है। बस उसे लिखना नहीं आता।
मेरा बेटा सुंदर कविताएं लिखना सीख रहा है। बस उसकी भाषा हमें समझना नहीं आता।
अकेलापन एक भ्रम है। भ्रम में जीना अलग मज़ा है।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 30 अक्टूबर 2023

मैं अब खाता भी हूं आधा निवाला छोड़कर

वो थोड़ी देर को निकली थी कमरा छोड़कर
कहां मालूम था, चल देगी दुनिया छोड़कर

मैं सहरा हूं, मुकद्दर में लिखा है प्यासा रहना
नदी बहती रही बस एक सहरा छोड़कर

किताबे ज़िंदगी को यूं अधूरा छोड़कर
मेरे कंधे पे यूं आगे का ज़िम्मा छोड़कर

गई वो बेटी को किसके भरोसे छोड़कर
अपने दुधमुंहे बच्चे को रोता छोड़कर

मेरा हंसना भी, रोना है तुम्हारी याद में अब
मैं खाता भी हूं अब आधा निवाला छोड़कर

अधूरी रह गईं कितनी लड़ाई बीच में
तुम्हें जाना नहीं था, मुझको तन्हा छोड़कर

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 22 अगस्त 2023

तुम तक जाने का कोई गूगल मैप नहीं

कभी कभी दिन बहुत तेज़ भागते हैं। गर्म उमस भरे दिन। कुछ याद करने का मन नहीं करता। एक निश्चित दूरी पर लगता है सब वैसा ही होगा। अचानक इतवार आएगा और एक फोन पर तुम्हारा दुख चीख-चीख कर मुझे छील देना चाहेगा। जबकि मैं पहले ही इतना भीतर तक चोटिल हूं कि अब सिर्फ तुम्हें सुनता हूं, महसूस करने की ताक़त छिन गई है। सब लूप में चलता दिखता है। वही उमस, वही गर्मी, वही संडे और वही तुम्हारा एकतरफा फोन कॉल। 

एक गर्मी में तुम्हारी बीमारी असहनीय हो गई थी। मैं दौड़ते भागते एक एसी लेकर आया था। तुम्हारे प्राण उसके रिमोट में बंद थे। अब एसी जस का तस है। डिब्बे में बंद। चूहे उसके भीतर अंताक्षरी खेलते हैं। मैं गर्मियों को महसूस करता हूं। पसीने से लथपथ शरीर को आंसुओं की कतार छू रही है। तुम्हें महसूस करने की आदत छूटनी नहीं चाहिए। 

अब सब बंद है। इतवार इतवार की तरह नहीं आता। मैं दुखी होने के वक्त घड़ी की तरफ तड़प कर देखता हूं। कोई कॉल नहीं, कोई चीख नहीं। मेरी ईगो से इतना खेलना ठीक नहीं। तुम्हें फोन करना चाहिए। एक खुशफहमी बनी रहती तो अच्छा होता।

जब कभी बारिश होती है, बिजली कौंधती है, तूफान आता है, मुझे तुम्हारी फिक्र होती है। नदी किनारे पतली लाल साड़ी में लिपटी अकेली उदास दर्द में सोई तुम। गंगा के किनारे कौन खयाल रखता होगा तुम्हारा। कोई गूगल मैप उस रास्ते तक नहीं ले जाता मुझे। कोई गाड़ी भी उधर की नहीं दिखती। मैं क्या करूं कि यकीं आए कि ठीक हो तुम। अब कौन सी हवा जासूस बनकर मेरी खबर पहुंचाती होगी तुम्हें। 

अभी तीन महीने भी नहीं बीते। कोई एक दिन, एक लम्हा नहीं जब तुम्हारा चेहरा न उभरा हो। एकदम शांत, बर्फ के ढेर पर लेटी हुई। मैं देखता हूं सजल आंखों से तुम्हें। तुम्हें मेरा रोना पसंद नहीं, इसीलिए बंद कर ली आंखें तुमने। मैं तुम्हारे बाल सहलाता हूं, तुम्हारी नींद और गहरी हो गई है। कई रतजगे बंद हैं इन आंखों में। मैं कितने रतजगों में भूल पाऊंगा पता नहीं। शायद कभी नहीं। जितना दिन बीतेंगे, उतना टीस और गहरी होगी। ये कैसा बदला है?

आज नानक को टीके लगाने को गया। जन्मदिन था कल। उसने पहला शब्द "मां" सीखा है। गाय देखकर मां कहता है। दाएं बाएं सब देखकर मां कहता है। मुझे देखकर भी। अगर तुम उसके आसपास हो तो मुझे क्यों नहीं दिखती। यहां कोई कुछ नहीं कहेगा। मैं कुछ कहने के लायक ही नहीं रहा। 

एक बात जो सबसे बुरी हुई है वो ये कि लोई ने मां कहना छोड़ दिया है।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 23 जून 2023

आधा-अधूरा

1) बीमारियां सब बुरी
मगर सबसे बुरी वो
जो पिता को हो

स्मृतियां सब बुरी
मगर सबसे बुरी वो
जिनमें ठुकराए जाने का दृश्य हो

2) अक्षर मिले कई
लुभावने शब्द भी
अर्थ नहीं मिला लेकिन

तुमने जितना लिखा
उतना ही पढ़ा गया मैं
आधा-अधूरा

3) मेरा अंतहीन आकाश बुलाता है
मैं दौड़ता चला जाऊंगा बच्चे की तरह
पीछे से आते
गुर्राते 
कुत्ते रह जाएंगे यहीं।

समय से पहले चला जाऊंगा दुनिया से
इतनी तीव्र इच्छा से दौडूंगा मृत्यु की तरफ

4) लाख चाहता हूं कि तुमसे
अलग करूं ख़ुद को, लेकिन
तुम जैसे मेरे घुटनों का काला धब्बा

हर कोशिश के बाद मुझे
दिख ही जाती हो
और ज़रा सा शर्मिंदा भी
कर जाती हो।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 22 जून 2023

कैसे कटेगा जीवन, बोलो?

कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

तुम ही से अभिमान था सारा
आंखों का सम्मान था सारा
सारा गौरव चूर कर दिया
तुमने जब से दूर कर दिया
बिना बात के कर ली अनबन, बोलो
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

दुनिया में मारा-मारा फिरता रहता हूं
बिल्कुल तन्हा, आवारा फिरता रहता हूं
किसकी खातिर, मेरे मीता?
मुझे हराया तो क्या जीता?
मुझे मान बैठी हो दुश्मन, बोलो?
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

ठीक से देखो, मैं वो एक परिंदा हूं
पंख कटे हैं दोनों, लेकिन ज़िंदा हूं
घर जैसे मीलों तक कोई मरघट है, वीराना है
और मुझे घुट घुट कर प्यासा ही मर जाना है
कब आओगी लेकर मेरा सावन,बोलो
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

एक गोद में नानक, एक में लोई है
अभी जगी थी, रोते रोते सोई है
मां की बातें, इन्हें कहानी लगता है
मेरा सोना-जगना सब बेमानी लगता है
कैसे जुटाऊं जीवन गाड़ी का ईंधन, बोलो
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 1 जून 2023

घर पर कोई नहीं है

आप उससे मिलने आए हैं
अभी वो घर पर नहीं है
रात भी नहीं थी
ना बाएं करवट थी, ना दाएं करवट

वो मुस्कुरा कर मिलती थी स्वागत में
पर नहीं है..

वो सबसे अच्छी चाय पिलाती थी
मगर फिलहाल यह संभव नहीं है

मैं भी घर पर नहीं था
तभी वह बाहर निकली
किसी ज़रूरी काम से निकली होगी

आप तो जानते ही हैं 
वो कैसे निपुणता से सब काम करती थी
पढ़ती और पढ़ाती थी
सुंदर खाना खिलाती थी
मुझसे लंबी बहस करती थी
और मुझे भय होता था कि कहीं बाहर न चली जाए

उसे शायद एक लंबी यात्रा पर जाना था
उसने अपने लिए चार कंधे तैयार किए
फूल धूप गंध आंसू विलाप सब रास्ते में साथी रहे
उसने लकड़ियों को अपने वज़न के अनुपात में जुटाया
फिर गांव कस्बे शहर के व्यस्त जाम में निर्बाध बढ़ती रही आगे
सब उसे जानते थे तो रास्ता देते गए
उसे जहां पहुंचना था उसका समय तय था

वो तय समय पर पहुंची और धुआं हो गई
वह बादलों से देखती है
घर पर निगाह रखती है।
मेरा जन्मदिन ज़रूर याद रखती है।

मेरी पत्नी अब घर पर नहीं रहती

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 29 मई 2023

अचानक नदी में उतरी लड़की के लिए


वो नाराज़ हुई तो तो उठकर चली गई
किसी दूसरे कमरे में 
फिर किसी और कमरे में 
फिर एक दिन घर से बाहर चली गई
फिर एक दिन दुनिया से बाहर
कभी नहीं लौटी।

उसने अपने गुस्से की ईमानदारी बरतते हुए
अपने आसपास ऐसे लोग खड़े किए 
जो मुझे उससे दूर रख सकें
उन लोगों के चेहरे ठीक ठीक याद नहीं
मगर नीयत देखकर लगता था कि
वो अपने काम में सफल होंगे

उन्होंने कंटीली झाड़ियां उगाईं चारों तरफ
ज़हरीले सांप छोड़े मेरे पीछे
फिर खुद
बेहद बदबूदार, हिंसक और क्रूर जानवर में बदल गए
जिन्हें ख़ून का स्वाद पसंद था

वो मेरे सपनों में अपने असली रूप में आए 
और उसके सपनों में मेरा रूप धरकर
उसे मेरी कमी पूरी करने का भ्रम दिया
फिर उसका भ्रम टूटा तो
उसके सपने तक डरावने हो गए

उसने कंटीली झाड़ियों को पार करने की कोशिश की
लहुलूहान हुई 
फिर उसके आसपास के लोग 
जो हिंसक, क्रूर और बदबूदार थे
जिन्हें ख़ून का स्वाद पसंद था

उन्होंने उसके छलनी शरीर को चाटना शुरू कर दिया
फिर उसे भरोसा दिलाया कि इससे दर्द कम होगा
फिर खून चूसने लगे
फिर भरोसा दिलाया कि इससे सब ठीक होगा
उसने चीखना चाहा, जैसा कि उसकी रोज़ाना आदत थी
मगर अब चीख नहीं पाई

मैं गया तो उसे कंटीली झाड़ियों पर लेटा हुआ पाया
उसका खून सूख चुका था

उसे कुछ याद नहीं कि कब आंधी आई, आग उठी, तूफ़ान आया, बारिश हुई..
एक अद्भुत शांति थी उसके चेहरे पर
वह कई लोगों का ज़हर खींच कर बुद्ध की मुद्रा में थी

मैंने हल्के से आवाज़ दी तो नहीं उठी
थोड़ा तेज़ आवाज़ दी तो भी अनसुना कर दिया
मैं समझने को मजबूर हुआ कि अब वो मुझे इस तरह कभी नहीं सुनेगी।

अब हम सिर्फ मौन की भाषा में चीखते हैं
जिसे और कोई सुन नहीं सकता
हम दोनों साफ़-साफ़ सुनते हैं
और रो-रोकर मुस्कुराते हैं।

मैं उसे पलट कर देखता हूं
वो अब भी सो रही है
उसे दर्द में आराम है अब
मेरे देखने भर से ही।

मैं उसे पलट पलट कर देखता हूं
अब वो वहां नहीं लेटी है
शायद गंगा में उतरी होगी
उसे नदी का पानी बहुत पसंद था

अब मैं अपनी आंखों में हरदम एक नदी रखूंगा।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 26 मई 2023

चिट्ठी जो हरदम अधूरी पढ़ी जाएगी

क्या लिखूं?  कैसी हो? जानता हूं, कैसी हो।  अपने आसपास ज़हरीले सांपों से घिरी हुई। मुझसे दूरी रखने के तमाम उपाय जुटाकर मुझसे मिलने को बेताब। 
तुमसे मिलने की इच्छा नहीं है। तुम हमेशा मेरे पास ही रही। अलग से क्या मिलना। दूर कभी लगी नहीं। फिर क्यूं बचता रहा तुमसे।
कोई नाराज़गी नहीं। तुम्हारे भीतर जिन भले दिखने वाले तुम्हारे शुभचिंतकों ने ज़हर भरा है, मैं उनसे नफ़रत भी नहीं करना चाहता। नफरत के लिए भी रिश्ता रखना पड़ता है। 
उन्होंने तुम्हारे और मेरे रिश्ते के बीच इतनी गहरी खाई खोद दी कि हम कभी एक साथ एक दूसरे के होकर बात ही नहीं कर पाए।
वो कान लगाकर सुनते रहे, गलत अफवाहें उड़ाते रहे। तुम्हारे यक़ीन पर चोट करते रहे, जो तुम्हें मुझ पर था। है।
बहुत अफसोस है। मैं हमारी दूरी को कम नहीं कर सका। मुझे लगा कि तुम जहां हो, वो मुझसे ज़्यादा हिफाज़त से रखेंगे तुम्हे। तुम्हारा गुस्सा, हमारी लड़ाईयां, सब क़ाबू में रहेंगी वहां।
मगर मैं दूर से ये नहीं देख पाया कि तुम वहां भी मेरा इंतज़ार ही करती रही। उन तमाम नकली लोगों, दोस्तों के घटिया चक्रव्यूह से घिरी होने के बावजूद।
तुम जहां भी हो, कोई ये नहीं देख पाएगा कि हमारा तुम्हारा क्या रिश्ता था। उनकी नीच समझ से बहुत अलग, पवित्र; वर्तमान की स्याह चादर से थोड़ा धुंधला।
तुम दरअसल गईं नहीं, अपने आसपास घिरे गिद्धों को मुक्त कर दिया। वरना वो इस रिश्ते को और नोच नोच कर खाते ही रहते।
उनकी चिंता मत करना। अब मेरा और तुम्हारा संवाद इतना निजी है कि निर्लज्ज नजरें उन्हें ताड़ नहीं पाएंगी।
मुझे माफ कर देना, मैं नहीं जानता था कि तुम्हें उनसे इस तरह आज़ाद करना होगा। अपने कंधे पर रखे हुए...
उन्हें माफ कर देना, वो नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।

जहां हो, वहां खुश रहना। मुझसे लड़ने के नए रास्ते खोजने में कोई कमी मत रखना। मुझे इसकी आदत पड़ी हुई है। 

इस आदत के बिना कैसे रहूंगा, बताओ..

निखिल

सोमवार, 22 मई 2023

मालदा से लौटकर

ऊपर कमीज़ है
नीचे गमछा
पीठ पर अमेरिकन टूरिस्टर का रफ़ू किया बैग।
दृश्य में वह आदमी
खेत की मेड़ पर उसी तरह बैठा है
जैसा बीस-पच्चीस साल पहले बैठा था।
जलकुंभियां उतनी ही स्थिर।

लड़कियां हैं पसीने से लथपथ
पढ़ाई कर लौटतीं
गोद में बच्चा लिए
निर्दोष आंखे लिए।

भैंसे लड़ रहे बीच सड़क पर
आदमी शांति से प्रतीक्षा में हैं
गाड़ियों के हैंंडल थामे
उन्हें कोई जल्दी नहीं।
लड़ाईयों के ख़त्म होने की प्रार्थना में
इसी तरह रहा जा सकता है
बिनी किसी हड़बड़ी।

एक सड़क है
जो कच्ची से पक्की हुई है
बैंक खुले हैं कई
कर्ज़ लेने वाले बढ़े हैं बहुत
और हॉर्न वाली मोटर साइकिलें

एक खुला हुआ रेलवे फाटक है
जहां सदियों का इंतज़ार है
ट्रेन के गुज़र जाने का।

गीत गाते बाउल भिक्षु हैं
बिना सुने खुदरा देते भले लोग
कानों में इयरफोन हैं।

हिंदुओं से ज़्यादा मुसलमान हैं
कहीं कोई आतंक नहीं फिर भी
ये ज़मीन अगर सदियों से है
तो हमारे मुल्क के नक्शे में
सबसे ज़्यादा दिखाई क्यूं नहीं देती।

कोई मेरी सरकार को पावर वाला चश्मा दे दो
या कागज़ वाला रेल टिकट।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 19 मई 2023

बिहार का सिनेमा कैसा होना चाहिए?

बिहार की भाषाओं, (भोजपुरी/मैथिली/मगही, इत्यादि) में बिहार में ही अच्छी फिल्में बनाने का फायदा और नुक्सान |
फायदा
1. स्थानीय कलाकारों को उनकी ही मातृभाषा में, बिहार में ही काम |
2. स्थानीय भाषाओं में ज्यादा से ज्यादा साहित्य रचने की शुरुआत |
3. पहले के लिखे साहित्य पढ़े जाएंगे, जो कोई बिरले ही पढता है और उनपर फिल्मे बनेंगी |
4. आप अपनी कहानी अपनी भाषा में कहकर उसमे वो रिअलिटी डाल सकते हैं जो आप मराठी, बांगला, असमिया, मलयालम इत्यादि फिल्मों में हम लोग देखते हैं |
5. कलकारों की भाषाओं में कलाकारों के लिए रोजगार खड़ा होने लगता है |
6. कलाकारों का पलायन रुकेगा |
7. सिनेमा के साथ रंगमंच भी बढ़ेगा |
8. रंगमंच के कलाकारों के पास पूरे साल भी काम रहेगा सिनेमा के माध्यम से |
9. आपको जबरजस्ती अपनी हिंदी ठीक करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी | आप सिर्फ अपनी मातृभाषा को और बेहतर कर सकते हैं ऐसा करके आप अपनी मातृभाषा को और समृद्ध बनाते हैं | जैसे दूसरे विकसित राज्य करते हैं |
10. तकनीक से जुड़े लोग जैसे की कैमरामैन, एडिटर इत्यादि के पास भी बिहार में ही काम |
11. सिनेमा और साहित्य बढ़ता है तो पहचान को भी सम्मान मिलने लगता है | जैसे बंगाल या दक्षिण या मराठी गुजराती के साहित्य/सिनेमा से उनकी अच्छी पहचान है |
12. आप बिहार की समस्या पर लगातार फिल्म बनाकर जनता में बदलाव का सन्देश दे सकते हैं, यहां तक की किसी मुद्दे पर आंदोलन भी खड़ा कर सकते हैं l
13. आप लगातार राष्ट्रीय पुरस्कार जीत सकते हैं | जैसे बंगाल के पास १०० से ज्यादा राष्ट्रीय पुरस्कार हैं | बिहार की भाषा में, बिहार में बनी सिर्फ एक फिल्म को है | ये एक सॉफ्ट पॉवर है l
14. बिहार में रहकर कमाने से आप ज्यादा समृद्ध हो सकेंगे और मुंबई में पलायन करके फ़्रस्ट्रेट होने से बच जाएंगे | देश के १२ - १५ राज्य के कलाकारों को बम्बई में भटकने की ज़रूरत नहीं पड़ती है |
15. फिल्मों की लागत बहुत कम हो जाती है और डिजिटल युग में कमाना आसान हो जाता है |
16. बिहार में होने वाले "अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव" में बिहार का सिनेमा भी दिखने लगेगा |
17. अश्लीलता धीरे धीरे कम हो जाएगी और बिहार की पहचान अश्लीलता और भोजपुरी की हलकी पोर्न फिल्मों से नहीं बल्कि अच्छी फिल्मों से होने लगेगी |
18. आम लोगों में अपने अच्छे बदले हुए सिनेमा को देखकर असली गर्व होगा | बिहार पर गर्व करने के असली कारण तब होंगे |
19. हिंदी में काम के लिए भटकने वाले लोग, बम्बई से बिहार आने लगेगें और उनके लिए अच्छी फिल्मों का ऑप्शन रहेगा |
20. बहुत से डायरेक्टर, लेखक, मेरी तरह वालों को बंबई में नहीं रहना पड़ेगा |
21. बिहार की कहानियों को ज्यादा दर्शक मिलेंगे, जैसे सत्यजीत रे की, दक्षिण इत्यादि के फिल्मों को मिलते हैं |
22. बिहार सरकार टैक्स से करोड़ों कमाएगी |
23. टूरिज्म बढ़ेगा |
24. दूसरे धंधे जैसे की केटरिंग, ट्रैवेलिंग, होटल इंडस्ट्री, इत्यादि, इत्यादि सब बढ़ेंगे |
25. हर क्षेत्र में रोज़गार बढ़ेगा |
नुकसान
एक भी नहीं |
😃🙏🥰🌹
- नितिन |

(नितिन नीरा चंद्रा बिहार की बोली और भाषा में फिल्म बनाए जाने को लेकर प्रतिबद्ध हैं और मिथिला मखान, देसवा, जैक्सन हॉल्ट जैसी बेहतरीन फिल्में भी बना चुके हैं।)

सोमवार, 15 मई 2023

'बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ' के शोर के बीच देखिए स्त्री होने की 'दहाड़'

'दहाड़' देखने लायक वेबसीरीज़ है। तब भी जब पहला एपिसोड अंत आते-आते तक पकाऊ है। हर एपिसोड इतना लंबा  है कि आप एकाध झपकी मारकर फिर से देखने बैठ जाएं तब भी कुछ नया नहीं होता। तब भी जब इसमें लीड रोल में सोनाक्षी सिन्हा हैं, जिनकी एक्टिंग अपनी उम्र के हिसाब से मुझे कभी मेल खाती नहीं दिखी। तब भी जब पूरी कहानी में कई झोल हैं। जैसे पूरे राजस्थान में एक ही थाना इतनी बड़ी मर्डर मिस्ट्री सुलझा रहा है और राष्ट्रीय राजनीति या मीडिया में कहीं कोई चर्चा तक नहीं। तब भी जब पुलिस वाले और अपराधी का बेटा एक ही स्कूल में पढ़ते हैं और आगे जाकर इन्हीं दोनों को आपस में टकराना होता है। तब भी जब आपको लगता है कि ये कोई हरियाणवी ज़बान है लेकिन नहीं ये तो राजस्थान है।

इस तरह से लगेगा कि मैं सीरीज़ नहीं देखने के कारण ज़्यादा गिना रहा हूं। सबसे अच्छी बात जो इस सीरीज़ में है, वो है इसकी डिटेलिंग। कहानी में सिर्फ मर्डर मिस्ट्री नहीं है। कई परते हैं। जात-पात, पुलिस व्यवस्था, इंटरनेट की गिरफ्त में हम-आप, प्रेम संबंधों के बदलते रूप, 'बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ' प्रधान देश में बेटियों की स्थिति चाहे वो एक बैकवर्ड बहू हो, स्कूल जाती बच्ची हो या फिर एक दबंग पुलिस वाली। पूरी कहानी को लीड करती है पुलिस अफसर भाटी जो पिछड़े समुदाय से है। बड़ी जात वाले खाकी वर्दी में भी जात देखकर अपनी कोठी के भीतर घुसने की इजाज़त नहीं देते। बाकी पुलिस अफसर भी सिर्फ पुलिस अफसर नहीं हैं, बाप हैं, पति हैं, छोटी-छोटी कुंठाओं वाले सहकर्मी भी।

कहानी में इतने मुद्दे एक साथ हैं कि सबसे मुख्य कहानी जिसके आसपास बाकी कहानियां बुनी गई हैं, चुपचाप अपना काम करती रहती है। आप देखना चाहते हैं कि हिंदी का एक सीधा-सादा प्रोफेसर, जिसकी बीवी और एक बेटा है, कैसे अब अपना अगला शिकार किसी लड़की को बनाएगा। शुक्र है कि प्रोफेसर के साइकोपैथ होने में कोई बचपन का हादसा या फैमिली हिस्ट्री सीधे तौर पर ज़िम्मेदार नहीं ठहराए गए। बस वो बड़े इत्मीनान से हिंदी की कविताएं पढ़ता है, लड़कियां फंसाता है, हत्या की साज़िश रचता है और फिर किसी अगली हत्या के लिए तैयार होता है। 

प्रोफेसर आनंद के रोल में विजय वर्मा में कई बार मनोज वाजपेयी जैसी कसावट और इरफान ख़ान जैसी गहराई दिखती है। आजकल के अख़बार लगातार जिन सेक्सटॉर्शन, इंटरनेट ठगी, हनीट्रैप जैसी ख़बरों से लदे रहते हैं, ये सीरीज़ उन्हीं ख़बरों के पीछे का एक किरदार लेकर सामने आती है, जिसमें सादगी इतनी है कि कोई भी फिदा हो जाए और साइनाइड खाकर मर जाए। वो किसी पर रहम नहीं करता। न अपने बेटे पर, न भाई पर, न बाप पर। हिंदी साहित्य का इतना क्रूर प्रोफेसर क्या हमने अपने सिनेमा में कभी देखा है, मुझे तो याद नहीं आता।

ये सीरीज़ उन मां-बाप को भी देखनी चाहिए, जिनके घर में स्कूल जाते बड़े होते बच्चे हैं। उन मासूम बच्चों से कब, कैसे, कितनी बात की जाए, उसकी तमीज़ इसके कई किरदार सिखाते हैं। एक एपिसोड में कपीश, प्रोफेसर आनंद के लापता होने पर, इतनी मासूमियत से अपनी मां से पूछता है - 'घर के बाहर पुलिस क्यों आई है, क्या पापा खो गए हैं' कि दिल धक से हो उठता है। एक एपिसोड में थाने का इंचार्ज देवी सिंह अपने स्कूल जाते बेटे को जिस संजीदगी से मोबाइल पर अच्छा-बुरा देखने के बारे में समझाता है, वो हम सबके सीखने लायक है। एक बेटी, जो किसी काम्पटीशन में दिल्ली जाना चाहती है, मगर मां रोकती है, तो बाप बेटी का हौसला बढ़ाता है। 

'दहाड़' की सबसे अच्छी बात ये रही कि इसके सीक्वेल की कोई गुंजाइश कम ही दिखती है। मुझे सीक्वल बोर करते हैं, सोनाक्षी सिन्हा की तरह। माधुरी दीक्षित के जन्मदिन पर सोनाक्षी सिन्हा को देखकर काम चलाना बदनसीबी नहीं तो और क्या है। फिर भी, सोनाक्षी ने अपने करियर का सबसे अच्छा काम इसी सीरीज़ में किया है। शाहिद कपूर वाली सीरीज़ 'फर्ज़ी' से कम फर्ज़ी है, इसीलिए भी देखनी चाहिए।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 4 मई 2023

क्षणिकाएं


1) मुझे सुनने वाले कम रहे 
मगर अक्सर कहते हैं
जब मैं सबसे ज़्यादा चुप रहा
सबसे ज़्यादा कहने को था।

2) एक किताब पढ़ने में 
लग गए कई दिन 
और फिर भी कुछ हासिल नहीं हुआ
इस बार किसी बुज़ुर्ग से मिला हूं
दस किताबों का हासिल है 
मेरे पास।

3) रेलवे फाटक पर 
गाड़ियां अटकी हैं
साइकिल अटके हैं
पूरा गांव किसी बुज़ुर्ग की तरह
पहले निहारेगा जाने वालों को
फिर विदा करेगा

रेलगाड़ी एक बच्चे की तरह
इठलाती हुई गुज़र जाएगी


4)
कपड़े किसी और के
जूता किसी और का
घड़ी किसी और की
बस पुराना शहर मेरा है
और मैं किसी और का।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 23 जनवरी 2023

उदास मौसम का प्रेमगीत

ये सच है कि मेरे सपनों में 
जादू वाली परियां आती थीं बचपन में
मगर उनका चेहरा ग़ायब हो जाता था भोर से पहले
तुम्हारा होना किसी भोर के सपने का सच होना लगता है

तुम्हारा होना
संसार की सबसे सुंदर घड़ी का कलाई पर होना है
जिसमें बुरे से बुरा समय भी निखर कर आता है

तुम्हारा होना
किसी गुरुद्वारे में प्रवेश के पहले
पानी में पैर रखने जितना पवित्र
जहां से जीवन एक गुरुद्वारा लगता है

जैसे दिल्ली कोई बेहद निर्मम, भावहीन शहर नहीं
यह अथाह शोर की राजधानी नहीं
किसी संगत में बजती बानी में 
बदल जाता है
जहां घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर लौटना
सपनों का मर जाना नहीं लगता।

तुम्हारा होना मुझे इस क़दर मज़बूत करता है
जैसे मैं कोई दरवेश हो जाता हूं
और किसी आखिरी सांस ले रहे निर्जीव शरीर में भी 
जीवन फूंक देने के विश्वास से भर जाता हूं

मौन सबसे सुंदर भाषा हो जाती है
जब मैं होता हूं तुम्हारे साथ  
जब मेरे रुखे चेहरे को स्पर्श करते हैं 
तुम्हारी कटी-छिली उंगलियों वाले हाथ
यह देह का स्पर्श नहीं
आत्मा का मिलन लगता है

तुम्हारी बाहें दो पंख हैं
तुम्हारी पीठ पर किसी शिशु-सा कस कर बंधा मैं
पैदल चलते हुए हम अचानक
कितनी दूर निकल जाते हैं ब्रह्मांड में
 
अब मेरी दीवारों में कोई सीलन नहीं
मेरी दोस्तों से कोई अनबन नहीं
मेरे मोज़ों में कोई बदबू नहीं
मेरे पहियों में कोई पंक्चर नहीं
मेरे पिता को कोई बीमारी नहीं
इस दुनिया में कोई युद्ध नहीं

तुम्हारे साथ होना अपनी जड़ों में होने जैसा है
जहां कमियां कोई घाव नहीं लगतीं चरित्र का
हम पैसे खोने पर दुखी नहीं होते
हम रास्ता भटकने पर डरते नहीं
दुख कोई छिपाने जैसी मजबूरी नहीं लगती

जहां मैं एक ही वक्त में 
बेटा, भाई, पति, पिता,
मुजरिम, शराबी, फ़कीर
यानी जैसा चाहूं वैसे का वैसा 
हो सकता हूं

जहां मैं जब चाहूं अपनी मातृभाषा में 
देर तक रो सकता हूं 

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

आने लगी हैं इन दिनों हिचकियां बहुत

कोई भरे है मेरे लिए सिसकियां बहुत आने लगी हैं इन दिनों हिचकियां बहुत आपका ही क़द मुझे मुझसे बड़ा मिला  वरना तो मिलता ही रही हस्तियां बहुत जब ...