प्रेम से सराबोर मेरी फिक्र
तेरा पीछा करती रही
दिन, रात, सुबह, शाम
हर घड़ी, हर मौसम
सालों से सदियों तलक..
शहर दर शहर
घर, गली-कूचे, मोहल्ले
जितने भी तूने बदले
कभी पसीने से लथपथ रास्तों पर
तेरे इंतज़ार में खड़ी रही
तो कभी सर्द हवाओं में
तेरे दरस के लिए
घर के बाहर ठिठुरती रही
लाख समझाया इस ढीठ को
कि कनु का को बख्श दे..
सुकून से जीने दे उसे..
कई बार तो तेरे शहर से
घसीट कर ला पटका इसे ज़मीन पर
हाथ-पांव बांध दिए और डाल दिया अंधेरी कोठरी में
पर फिर भी...
मेरी ज़ुबां से तेरा ज़िक्र भर सुनकर,
किसी जिन्न की तरह
ये फिर आ खड़ी होती है
खुद को सजा-धजा कर
तेरे पास आने को तैयार।
बेशर्म है ये क्या करूं कनु मैं इसका...
मेरी सुनती ही नहीं।
और सजदे का कोई ऐसा घर नहीं
जहां मुझे न ले गई हो
कहीं नंगे पाँव
तो कहीं सिर्फ़ रूख ओढ़े
...जोड़े रही मुझे परवरदिगार से तेरे नाम की इबादत में।
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