मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

मैं बुरा था जब तलक ज़िंदा रहा

आईने ने जब से ठुकराया मुझे
हर कोई पुतला नज़र आया मुझे।

रौशनी ने कर दिया था बदगुमा,
शाम तक सूरज ने भरमाया मुझे।

ऊबती सुबहों के सच मालूम था,
रात भर ख़्वाबों ने बहलाया मुझे।

मैं बुरा था, जब तलक ज़िंदा रहा
' अच्छा था ' ये कहके दफ़नाया मुझे।

जब शहर के शोर ने पागल किया
खिलखिलाता चांद याद आया मुझे।

ख़्वाब टूटे, एक टुकड़ा चुभ गया
देर तक नज़्मों ने सहलाया मुझे।

निखिल आनंद गिरि

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