नंगे, दबे पाँव, धीरे से आई तेरी रहगुज़र में मैं
...उस डिबिया में बंद मैली कुचैली सी पड़ी थी मैं
जब बिटिया ने मुझे प्यार से उठाया,
सजाया खुद पर और मैं दमकने लगी
फिर हम दोनों, तेरे आलते से सजाए पाँवों से,
दौड़ते, भागते, हँसते, गाते, हाँफते,
छनछनाते घूमते रहे,
गूँज बनकर चहकते हुए
तेरे आँगन में, कमरों में,
रसोईघर में और अनंत सी उस छत पर
चिड़ई सी उड़ान भरते, उछलते, कूदते, फांदते ,
तुझ तक पहुंचने की जिद लिए उचकते
..फिर बचपना छोड़
तेरी परिक्रमा करते...
कभी तुझे प्यार से निहारते,
कभी नोक झोंक करते,
तो कभी अपने बचपने पर
तेरी डाँट-डपट खाते।
यह सब तेरे क़रीब आने की
तरकीब नहीं तो और क्या है
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