सोमवार, 23 जून 2025

एक आईने का ख़त

काश…
कभी तुमसे कह पाती सुलेखा
कितना चाहता है कनु तुम्हें
इतनी बातें हैं दिल में
पर तुम्हारे सिवा किसे सुनाऊँ?

याद है मुझे वो जन्मदिन तुम्हारा
जब तुम्हारी एक छोटी सी ख्वाहिश पूरी करने को
कनु शहर भर की गलियाँ छान आया था—
शाखा पोला की तलाश में

और जब तुम्हें पहनाया
तुम रो पड़ीं थी…उसे गले लगाकर
मन हुआ उस पल
अपने मासूम से कनु को गले लगा कर खूब रोऊं 

कभी बताना चाहा था तुम्हें
एक दिन हम यूँ ही रास्ते से गुज़र रहे थे,
अचानक कनु ने गाड़ी रोकी
एक रेहड़ी के सामने
अमरूद सजे थे उस पर।

उनकी एक झलक से ही
उसकी आँखों में चमक आ गई
बोला “सुलेखा को अमरूद बहुत पसंद हैं"
और मेरे पास छुट्टे होने पर भी
अपने पैसों से ज़िद कर खरीदे उसने सिर्फ तुम्हारे लिए 

उस दिन लगा
कि अपना सब कुछ वार दूँ उस कनु पर

कितने ही इल्ज़ामों, तानों, और खामोशियों के बाद भी
वो तुम्हें… बस तुम्हें
बेइंतहा चाहता रहा

वो गिरा, टूटा, बिखरा,
पर कभी तुमसे दूर नहीं हुआ

तुम्हारे हज़ारों षड्यंत्र
लोगों के तानों की बौछार
कोर्ट कचहरी
और हर कोने में पसरी बदनामी की धार

फिर भी
ज़िंदा लाश की तरह
हज़ारों अकेले दिन कभी सड़कों पर, 
कभी हॉस्टल और कभी
वाराणसी की गलियों में पड़ा रहा मेरा कनु 

हर पल हर साँस…
बस तुम्हारी ही फ़िक्र रही उसे
तुमसे प्रेम करता रहा
बिना किसी शिकायत बिना किसी शर्त

सभी रिश्तों की दीवारों के खिलाफ
अडिग खड़ा रहा
ऐसे जिया मेरा कनु तुम्हारे लिए सुलेखा

और एक वो दिन
सर्दी की सुबह
छोटी सी किसी बात पर तकरार हुई थी तुम दोनों में 
शब्द कम चुप्पी ज़्यादा बोली थी उस दिन 

तब कैसे गुमसुम सा
जमा पड़ा रहा था मेरा कनु गाड़ी में…घंटों…
बिना सुध बुध
बिना शिकायत
बस जैसे भीतर कुछ टूटकर जम गया हो।

मैं देखती रही बेबस अपने चूल्हे
पर रोटियां सेंकते हुए 
जानती थी कि 
उसकी चुप्पी भी प्रेम का एक रूप थी।

और फिर एक आख़िरी बार
कैसे आग का दरिया पार कर
पहुंच गया था मेरा कनु
तुमसे मिलने ईद के रोज़ 
इतनी इच्छाओं के साथ 
कि इस बार
तुम्हें अपने साथ ले जाएगा
नए शहर में इलाज करवाने को

हर मोड़ पर उम्मीद थी उसे
हर साँस में भरोसा
कि शायद अब की बार
सब ठीक हो जाएगा

पर उस मासूम को क्या पता था
कि वो मुलाकात
आख़िरी निकलेगी।

जो हर दर्द सहकर भी
सिर्फ मोहब्बत करता रहा
पूरी ताक़त से
पूरी सच्चाई से

अब भी खिड़की से बाहर झांकता है 
तो ढूंढता है "जीवन" को 
जो निरंतर विस्तार पर है अब भी दूर कहीं

जब भी जाता है गांव 
तो ढूंढता है तुम्हें उस घर की दीवारों में,
आंगन में जो तुमने अपने हाथों से बनाया था .

कभी कभी बहुत मन होता है
तुमसे लड़ने का सुलेखा 
कि तुम कैसे नहीं देख पाई इतना प्रेम मेरे कनु का ..
काश तुम देख पातीं मेरे इस कनु को
तो सब कुछ कितना बेहतर होता…

निखिल आनंद गिरि

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