मैंने अपने मीडिया के करियर में कम से कम नौ नौकरियां बदली हैं। दो साल से ज़्यादा कहीं टिक पाया तो वो संस्थान था दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन लिमिटेड। एक कार्यकर्ता के तौर पर आपने संस्थान को क्या दिया, इसे मापना हो तो आप ये देखें कि संस्थान आपके जाने के बाद भी आपको किस तरह याद करता है।
पिछले साल निजी कारणों से दिल्ली मेट्रो छोड़ने के बाद दिल्ली शहर भी छूट गया। बिहार में पटना की एक यूनिवर्सिटी में नई नौकरी शुरू हुई, जो पिछली सब नौकरियों से अलग थी। डेढ़ दो साल में एक भी दिन ऐसा नहीं आया जब मैने दिल्ली मेट्रो के वर्क कल्चर को याद न किया हो। देश के बहुत कम ऐसे संस्थान हैं, जहां पंक्चुअलिटी (समयबद्धता) एक धर्म की तरह वहां काम करने वालों की नसों में बहता हो। ये कमी मुझे बाकी सब संस्थानों में खली, बेहतरीन नेशनल ज्योग्राफिक चैनल में भी जहां शाम 6 बजे के बाद कोई न कोई मीटिंग शुरू होती थी।
दिल्ली मेट्रो में कई कार्यक्रमों का मंच संचालन करने के भरपूर मौके मिले। दुनिया के कई देशों के अतिथियों को मेट्रो घुमाने का मौका भी मिला, उनसे बहुत कुछ सीखने का भी। जब मेट्रो से नौकरी छूटी तो लगा ये सब नए सिरे से शुरू करना होगा।
इसी मेट्रो में रहते हुए पत्नी को कैंसर हुआ, तब भी मेट्रो ने मेरा भरपूर साथ दिया। पत्नी को बचाया नहीं जा सका लेकिन मेट्रो का साथ देना ज़िंदगी भर याद रहेगा। जितने स्टेशन थे, मेरे लगभग उतने घर थे। चूंकि काम बहुत व्यस्तता भरा था, तो पत्नी को डॉक्टर के पास ले जाना हो या कीमो का सेशन हो, जिसे कहा वो दोस्त की तरह सेवा में हाज़िर हो गया ।
करीब दो साल के बाद अचानक मेरे बॉस अनुज दयाल का फोन आया कि दिल्ली मेट्रो में एक दो दिनों का सांस्कृतिक कार्यक्रम है, और हमें तुम्हारे बाद कोई ढंग का एंकर नहीं मिल पा रहा जो "समां" बांध सके। जल्दी फ्लाइट लो और दिल्ली चले आओ। जितना सुख अनुज सर के बुलाने का था, उससे ज़्यादा ये कि आपका किया हुआ अच्छा काम दो साल बाद भी लोग नहीं भूलते। ये एक ऐसा एहसास था, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता था।
जब मंच संचालन को दिल्ली पहुंचा तो एक एक मेट्रो कर्मी से ऐसे प्यार मिला कि उसे बयां नहीं किया जा सकता। यह इस साल के सबसे अच्छे दो दिन थे।
शुक्रिया दिल्ली मेट्रो।
निखिल आनंद गिरि
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