शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

एक पीठासीन अधिकारी की डायरी

इस मतदाता की उम्र 22 साल थी!!








"इस मुल्क ने जिस शख्स को जो काम था सौंपा
उस शख्स ने उस काम की मां..च इस जला कर छोड़ दी"

अख़बार में बिहार में बंपर वोटिंग की ख़बरों के बीच कहीं भी नहीं पढ़ा कि मतदान अधिकारियों ने सबसे ख़राब व्यवस्था में भी सबसे बेहतर काम किया।
एक पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer) के तौर पर चुनाव की ड्यूटी लगने से लेकर ईवीएम जमा करने की पूरी प्रक्रिया इतनी यातनाओं (torture) से भरी है कि बताने लगूं तो देशद्रोह का मुकदमा चल जाए।
चुनाव आयोग को एक फीडबैक फॉर्म भी दिया जाना चाहिए जिससे सभी अधिकारी अपनी व्यथा लिखें और अगले चुनाव में उसको सुधारने की कोशिश हो (जिसकी उम्मीद दिखती नहीं)
पटना के अटल पथ, मरीन ड्राइव, बेली रोड की चकमक छोड़ कर मात्र 30/40 किलोमीटर दूर एक और पटना है जहां मीडिया वालों को भी मतदान कर्मियों की गाड़ी में सवार होकर ज़रूर आना चाहिए। 
जिस गाड़ी में ईवीएम और तमाम मशीनें लदी होती हैं, वो गाय भैंस और सामान लादने वाले टेम्पो होते हैं। उसमें खड़े खड़े सफ़र करके ऊबड़ खाबड़ रास्तों से पहुंचते हुए शाम हो जाती है और तब पता चलता है कि बूथ में बिजली ही नहीं है। नहीं है और दो तीन घंटे नहीं है। अंधेरे में जो बूथ लेवल अफसर के ज़रिए भेजा गया सफाई कर्मी है, सुबह पता चलता है कि वही आपका पोलिंग एजेंट है।
सोचिए मतदान कर्मियों के दल के साथ चार सीआरपीएफ के जवान के अलावा बिहार पुलिस हमें क्या देती है। दो महिला (कॉलेज से निकली under ट्रेनिंग) ट्रेनी (होम गार्ड) सिपाही जिन्हें बंदूक उठाकर अभी सिर्फ मॉर्निंग वाली कसरत करना आता है।
हमारी छोड़िए, पूरी रात वो लड़कियां उस बीहड़ में किस डर से अपनी रक्षा कर पाती हों, उन्हीं से पूछना चाहिए।
खाने पीने की व्यवस्था के नाम पर "पार्टी" के दलाल पूड़ी सब्ज़ी, चावल दाल बांटते हैं और उम्मीद करते हैं कि दो चार वोट गिराने दे दिया जाए। शुक्र है कि अनुरोध ही किया, दबंग होते तो हम क्या ही कर लेते। कहते भईया, ईवीएम तुम्हारी है, डायरी तुम्हीं लिख दो, हम A N कॉलेज छोड़ आयेंगे भैंसा गाड़ी में।
 ख़ैर, चुनाव ख़त्म होने पर हालत और बुरी। व्यवस्था ऐसी होती कि जो अधिकारी रिज़र्व में रखे जाते हैं, उन्हें नियत समय पर ईवीएम और बाकी मशीनों के कलेक्शन के लिए लगा दिया जाता। सोचिए, बिना ठीक से खाए लिए, नहाए धोए सुबह 4 बजे से जगा मतदान कर्मी शाम 6 बजे चुनाव ख़त्म करे, फिर तीन घंटे की दर्द भरी यात्रा करके A N कॉलेज के कलेक्शन सेंटर पहुंचे और ट्रैफिक व्यवस्था ऐसी कि कॉलेज से आधे किलोमीटर दूर से आगे बढ़ने में दो घंटा लग जाए। इससे बढ़िया तो पूरा रस्ता ही ब्लॉक करके अलग अलग प्रखंडों के स्टॉल लगा देते।
रात के 10 बजे पहुंच गए तो अब 50 ठो फॉर्म और लिफाफा ढूंढते रहिए स्टॉल पर। मोमबत्ती जलाइए, सील करिए। एक कागज़ कम निकले तो फिर ज़ीरो से शुरू कीजिए। मने डिजिटल इंडिया वाला विश्वगुरु भारत सिर्फ रील बनाने के लिए है।
कई चीज़ें इसमें आसान की जा सकती हैं। लेकिन सुनता कौन है। हम लोग जिस काम में प्रशासन की ज़्यादा मदद कर सकते हैं, वहां नौसिखिया बिठा रखे हैं।
ख़ैर, एक फिल्म का डायलॉग याद आ गया - देश के लिए इतना भी नहीं करोगे।
(गंगा किनारे दियारा से एक भुक्तभोगी पीठासीन अधिकारी जिसकी पीठ पर अगले पांच साल की गुंडई का ठेका लदा हुआ है।)

निखिल आनंद गिरि

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