मंगलवार, 28 सितंबर 2010

मैं ज़िंदा हूं अभी...

मुझे टटोलिए,
हिलाइए-डुलाइए,
झकझोरिए ज़रा...
लगता है कि मैं ज़िंदा हूं अभी...

चुप्पी मौत नहीं है,
चीख नहीं है जीवन,
मैं अंधेरे में चुप हूं ज़रा,
भूला नहीं हूं उजाला...
ये शहर कुछ भी भूलने नहीं देगा...

नौ घंटे की बेबसी,
दुम हिलाने की....
फिर चेहरा उतारकर
गुज़ारते रहिए घंटे...

फोन पर मिमियाते रहिए प्रेमिका से,
उसे हर वाक्य के खत्म होते खुश होना है...
मां से बतियाने में ओढ लीजिए हंसी,
कितनी भी...
पकड़े जाएंगे दुख...

कुछ चेहरे हैं
जिनसे बरतनी है सावधानी...
कुछ नज़रें हैं..
जिन्हें पलट कर घूरना नहीं है..
दिन एक थके-मांदे आदमी की तरह है..
हांफ रहा है आपके साथ..
रात के आखिरी पहर तक...
बिस्तर पर लेटकर निहारते रहिए दीवारें..
क्या पता शून्य का आविष्कार,
इन्हीं क्षणों में हुआ हो..

26 साल की बेबस  उम्र
नींद की गोली पर टिकी है...
गटक जाइए गोली,
विश्राम लेंगे दुख...
बदलते रहिए केंचुल,
शर्त है जीने की...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 26 सितंबर 2010

रौशनी ने कर दिया था बदगुमां...

आईने  ने जब से ठुकराया मुझे,
हर कोई पुतला नज़र आया मुझे...

रौशनी ने कर दिया था बदगुमां,
शाम तक सूरज ने भरमाया मुझे...

ऊबती सुबहों का सच मालूम था,
रात भर ख्वाबों ने बहलाया मुझे....

मैं बुरा था जब तलक ज़िंदा रहा,
'अच्छा था', ये कहके दफनाया मुझे...

जब शहर के शोर ने पागल किया,
एक भोला गांव याद आया मुझे....

ख्वाब टूटे, एक टुकड़ा चुभ गया,
देर तक नज़्मों ने सहलाया मुझे....

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

ये चांद ऊंघने लगे हैं..

आओ फूट कर रो लें,
ये धुंधला वक्त धो लें,
बहुत ही खुशनुमा-सी सुबह है,
ज़रा-सा ग़मज़दा हो ले

चिकोटी काट लें, छेड़ें किसी को,
बना लें दोस्त फिर से ज़िंदगी को,
किसी अनजान रस्ते पर चलें,
भटकें, गुमशुदा हो लें

बहुत हैं प्यार के शोशे,
वहीं बोरिंग छुअन-बोसे,
जुगलबंदी दो जिस्मों की,
सांसों की गिरह खोलें...

समंदर पी गए कब के,
बुझे शोले कहां लब के,
उलट दें सब नदी-दरिया,
फिर से बुलबुला हो लें...

ये दस्तक, फिर खुशी है !
इधर बस बेबसी है....
बुला लो, दो घड़ी भर
हंसे, बतियाएं, बोलें....

बहुत से रतजगे-हैं,
ये चांद ऊंघने लगे हैं....
ज़रा-सी मौत दे दो,
हम भी नींद सो लें...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 24 जनवरी 2010

फूल-सी लड़की के लिए...

वो बचपन की पहेली,
हम जिसे अब तक नहीं समझे..
तुम्हारा मुंह चिढ़ाती है,
ज़रा तुम भी चिढ़ाओ ना..
उठो, जल्दी से आओ ना...

वो एक तस्वीर अलबम की,
जिसमें मैं खड़ा आधा-अधूरा सा,
तुम्हें फुर्सत नहीं अपनी शरारत से...
तुम्हें तस्वीर का हिस्सा बनाने में,
मैं खींचता तो हूं...
मगर तस्वीर थोड़ा और पहले
खिंच ही जाती है....
मैं फिर खड़ा हूं,
सब खड़े हैं, हंसते चेहरे...
तुम कहां हो....
हथेली को बढ़ाओ ना...
उठो जल्दी से आओ ना...

मैं कितनी देर तक हंसता रहा था...
गुलाबी फ्रॉक वाली एक लड़की
लाल घूंघट में...
शरम से लाल होकर छिप रही थी..
मुस्कुराती थी....
...............

अचानक...
कौन था...जिसने की चोरी
सांसों की गठरी..
मैं कुछ क्यों कर नहीं पाया....
अचानक..
चार कंधों पर....
ये लंबी नींद की चादर.....
मैं कुछ क्यों कर नहीं पाया....

अभी गहरी उदासी में...
तुम्हें तो मुस्कुराना था...
अभी तो उम्र की कई सीढ़ियों के
पार जाना था...

मैं रोना चाहता हूं,
उस नए मेहमान की खातिर,
जिसे भरनी थी किलकारी
सभी की गोदियां चढ़कर...
खिलौने, दूध की बोतल
पटक कर तोड़ देनी थीं...
सुनाए कौन अब वो तोतली बोली,
दिल कैसे बहल जाए, बताओ ना...
उठो जल्दी से आओ ना...

अभी तो इक महकती
फूल-सी लड़की को
सारी रात जगकर...
मेरी आंखों में तकना था....
हंसना था, महकना था..
ज़िद तारों की करनी थी...
मेरे कंधे पे चढ़कर
चांद की ठुड्डी पकड़नी थी...
......................
मैं अब भी बंद आंखों से,
तुम्हारी राह तकता हूं...
मैं सोया हूं बहाने से....
ज़रा चुपके, सिरहाने से....
मेरा तकिया हिलाओ ना....
मैं सोया हूं, जगाओ ना...
मेरी छोटी बहन पूजा,
मेरी अच्छी बहन पूजा,
उठो जल्दी से आओ ना...
...................................

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

मुसाफिर....

जीवन तब भी रुका नही था

जब तुमको दो व्याकुल आंखें
तकती थीं दिन-रात कभी
और तुम्हारी एक हंसी पे
सदके थे जज्बात सभी….
वक़्त क़ैद था मुट्ठी में जब……


फिर हम दोनो साथ टहलते,
बिन, मतलब के इधर-उधर,
दर्द तुम्हारी फूंक से गायब,
बातें तुम्हारी, जादू-मंतर..
वक़्त क़ैद था मुट्ठी में जब

और अचानक वो लम्हा जब,
तुमको छू लेने की जिद में
मैंने अपनी मुट्ठी खोली,
हाथ बढ़ाकर तुम तक पंहुचा,
वक़्त क़ैद से निकल चुका था

फिर कुछ लम्हे तनहा-तनहा,
फिर कुछ रातें ख़त के सहारे,
गम खा-खा कर, आंसू पीकर,
फिर कुछ सदियाँ चांद किनारे
वक़्त क़ैद से निकल चुका था….

दुनिया की सड़कों पर चलकर,
सच के चहरे हर बत्ती पर,
रोज़ बदलते, मैं क्या करता,
एक सफ़र था जीवन तुम बिन,
वक़्त का सच अब बदल चुक्का था….

और मेरी दो व्याकुल आंखें
जिनमे अब भी बसी हुई है च्वी तुम्हारी,
थोड़ी-सी गीली होकर मेरे चहरे पर,
झलक तुम्हारी दे जति हैं
इसी भरोसे….
जीवन अब भी रुका नही है,

इसी भरोसे,
अभी मुसाफिर थका नही है…….

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

देखना तुम...

ये बदहवासी से ठीक पहले के क्षण हैं,

मेरी पीठ पर पटके जा रहे हैं कोड़े

कि मेरी रीढ़ टूट जाए...

वो मुझे सांप बना देना चाहते हैं,

कि मैं रेंगता रहूं उम्र भर...

उनकी बजाई बीन पर...

ये बदहवासी से ठीक पहले की घड़ी है..

मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने वाला है...

इस एक पल को जीना चाहता हूं मैं...

करना चाहता हूं सौ तरह की बातें तुमसे...

खोलना चहता हूं मौन की मोटी गठरी..

तुम कहां हो??

मैं चीख रहा हूं ज़ोर-ज़ोर से...

शायद आवाज़ कहीं पहुंचेगी...

कोड़े खाने के फायदे हैं बहुत..

ये चीख मुझे गूंगा कर देगी देखना.....

मेरे पांवों में बांध रखी हैं,

समय ने कस कर बेड़ियां...

मैं भूलने लगा हूं

अपने बूढ़े पिता का चेहरा...

ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....

मां याद है मुझे,

पसीना पोंछती मां,

बेटों की डांट खाती मां...

तुम कहां हो,

तुम्हें छूना चाहता हूं एक बार..

हाथ भूल गए हैं स्पर्श का स्वाद...

मैं पीछे मुड़कर दबोच लेना चाहता हूं कोड़ा,

मगर ऐसा कर नहीं सकता..

मैं बदहवास होने लगा हूं अब...

मुझ पर और कोड़े बरसाए जाएं..

मुझे प्यास लग रही है,

मैं चखना चाहता हूं आंसू का स्वाद..

ये बदहवासी के आंसू हैं...

रोप दिए जाएं सौ करोड़ लोगों की छाती में..

कि झुकने न पाए उनकी रीढ़

बीन बजाते संपेरों के आगे...

कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..

मैं हर सीने में हूं..

दुआ करो कि खाद-पानी मिले मेरे आंसूओ को,

याद रखना संपेरों,

मेरे आंसू उग आए

तो निर्मूल हो जाओगे तुम....

…………………………………………………………..

शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

हिंदी को ख़ून चाहिए.....

रुधिर-की बहने दो अब धार,

स्वर गुंजित हों नभ के पार,

किए पदताल भाषा के सिपाही आए,

खोलो, खोलो तोरणद्वार......

बहुत-सा हौसला भी, होश भी, जूनून चाहिए...

हिंदी को ख़ून चाहिए...



गुलामी-की विवशता हम,

समझने अब लगे हैं कम,

तभी तो एक परदेसी ज़बां,

लहरा रही परचम,

नयी रच दे इबारत, अब वही मजमून निखिल...

हिंदी को ख़ून चाहिए....



हुई हैं साजिशें घर में,
दिखे हैं मीत लश्कर में,

पडी है आस्था घायल,

अपने ही दरो-घर में...

उठो, आगे बढ़ो, हिंद को सुकूं चाहिए....

हिंदी को ख़ून चाहिए....

निखिल आनंद गिरि
+919868062333

बुधवार, 11 जुलाई 2007

मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझे .............

ताजमहल को नये सात आश्चर्यों में शामिल कर लिया गया, बड़ा हो- हल्ला हुआ, वोट दीजिये, एस.एम.एस कीजिये वग़ैरह । और तिजारत यानी व्‍यापार के इस दौर में ताजमहल को चंद एस.एम.एस. की बिना पर सर्टिफिकेट दे दिया गया । इस सबसे अलग ताजमहल कभी उर्दू शायरी में भी चर्चा और बहस का मुद्दा था । शकील बदायूंनी ने लिखा था- इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, दुनिया को मुहब्बत की निशानी दी है । और तरक्का पसंद साहिर से रहा नहीं गया । ये उनका जवाब था । इस नज़्म का शीर्षक है—ताजमहल........चूंकि इसमें बहुत बुलंद उर्दू के अलफ़ाज़ हैं इसलिये कुछ कठिन शब्दों के मायने दिये जा रहे हैं ।



ताज तेरे लिए इक मज़हरे-उल्‍फ़त ही सही
तुझको इस वादिये रंगीं से अकीदत ही सही
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझसे

बज़्मे-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्‍या मानी
सब्‍त जिस राह पे हों सतवते शाही के निशां
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्‍या मानी
मेरे मेहबूब पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा तूने
सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक-मकानों को तो देखा होता

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्‍बत की है
कौन कहता है सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए तशहीर का सामान नहीं
क्‍योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे

ये इमारतो-मकाबिर, ये फ़सीलें, ये हिसार
मुतलक-उल-हुक्‍म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूं
दामने-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अज़दाद का खूं
मेरी मेहबूब, उन्‍हें भी तो मुहब्‍‍बत होगी
जिनको सन्‍नाई ने बख्‍शी शक्‍ले-जमील
उनके प्‍यारों के मक़ाबिर रहे बेनामो-नुमूद
आज तक उन पे जलाई ना किसी ने कंदील
ये चमनज़ार, ये जमना का किनारा, ये महल
ये मुनक्‍क़श दरोदीवार, ये मेहराब, ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्‍बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझे ।।

कुछ कठिन शब्‍दों के मायने
मज़हर-ऐ-उल्‍फत—प्रेम का प्रतिरूप
वादिए-रंगीं—रंगीन घाटी
बज्मे शाही—शाही महफिल
सब्‍त—अंकित,
सतवते-शाही— शाहाना शानो शौक़त
पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा—प्रेम के प्रदर्शन/विज्ञापन के पीछे
मक़ाबिर—मकबरे तारीक—अंधेरे सादिक़—सच्‍चे
तशहीर का सामान—विज्ञापन की सामग्री
हिसार—किले
मुतलक-उल-हुक्‍म—पूर्ण सत्‍ताधारी
अज़्मत—महानता
सुतूं—सुतून
दामने-देहर—संसार के दामन पर
अज़दाद—पुरखे
ख़ूं—खून
सन्‍नाई—कारीगरी
शक्‍ले-जमील—सुंदर रूप
बेनामो-नुमूद—गुमनाम
चमनज़ार—बाग़
मुनक़्क़श—नक्‍काशी

साभार : radiovani.blogspot.com

गुरुवार, 5 जुलाई 2007

तुम सिखा दो ........

दुःख हो या कि सुख सदा उत्सव मनाना, तुम सिखा दो॥
दूसरों के मर्म पर सब कुछ लुटाना, तुम सिखा दो॥
मुस्कुराना तुम सिखा दो॥

जानता हूँ, सैकड़ों बादल रखे हैं, हँसती आँखों में छिपाकर,
तृप्त हो लेती हो अपना मन, अकेले में भिगाकर
और कह देती हो मुझसे- 'सुख इसी अवसाद में है'!!
आह!! कैसा सुख कि अपना घर जलाकर,
नीड़ औरों का बसा खुद को मिटाना, तुम सिखा दो॥
मुस्कुराना तुम सिखा दो॥

मैं कहाँ रोया कि जब कोई बात गड़ती है हृदय में
कब बता पाया कि तुम ही मार्गदर्शक हर विजय में
और तुम... आकाश के निर्लिप्त पंछी की तरह ही
मौन के विस्तार को भी, बाँधती हो एक लय में
आँसुओं की लय पिरोकर, गुनगुनाना, तुम सिखा दो॥
मुस्कुराना तुम सिखा दो॥

रात का अंतिम प्रहर है, तुम निरंतर दिख रही हो
मैं तो केवल शब्द गढ़ता, तुम ही मुझको लिख रही हो
चाहता हूँ, प्रेम-रूपी इस शिला के मिटा डालूँ लेख सारे,
मिलन कैसा?? हम किसी सूखी नदी के दो किनारे!!
तुम न इस सूखी नदी पर रेत का सेतु बनाना
सब भुला दो, है उचित सब कुछ भुलाना
मुस्कुराना तुम सिखा दो...

निखिल आनंद गिरी
हिंद-युग्म पर पुरस्कृत कविता (देखें www.merekavimitra.blogspot.com)

एक अधूरा सच

जब कभी लिखी जायेगी शून्य की कथा,

सभ्यताएं मुँह बाए हमें निहारेंगीं......

क्या उत्पत्ति का सच दोगला भी हो सकता है???



निरुत्तर होगा समय,

देखकर एक समानांतर दुनिया,

एक विभाजन रेखा,

पौरुष और नारीत्व के बीच!!!



हम!!

जो खेंचते हैं लकीर,

होने और ना होने के बीच....


हम!!

जो हैं साधना, प्रीति या राधा...


हम!!

जिनका अस्तित्त्व सिर्फ आधा......



तुम!!


जो पूरा होने का गुमान भरते हो,

कभी ना सुन पाए टीस की,

तुम्हारी सारी पूर्णता समझ ना सकी,

व्यथा एक सवाली की...



हम!!

जो बन ना सके कभी;
भाई, बहन, दूल्हा या दुल्हन....

रिश्तों की देहरी लांघकर,

हमने गढी है एक नयी परिभाषा,

नए अर्थ..धर्म के जात-पात .......


मस्ती भरी बोली,
मन यायावर...

हाँ!! हम वही हैं...

जिन्हे तुम कहते हो,

छक्के, हिजडे या किन्नर!!!



तुम!! जो पौरुष का दंभ भरते हो,

झूठ की नींव पर सच कि जुगाली करते हो...


याद रखना........

एक अधूरा सच हैं हम....

पौरुष का कवच हैं हम.......



निखिल आनंद गिरि
9868062333
मैं नहीं हूँ.....

दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...

तिमिर मुझको प्रिय, कि अब तक इसी ने है संभाला,
छीनकर सर्वस्व मेरा, चांदनी क्यों सौंपती मुझको उजाला??
भूल जाये जो निशा को सूर्य पाकर मैं नहीं हूँ....
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...

मैं अगर होता बड़ा तो वश में कर लेता समय को,
छवि मेरी जो तुम्हारे मन बसी है, तोड़ता उस मिथक भय को,
जो तुम्हारे प्रेम को दे सके आदर, मैं नहीं हूँ,
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...

मैं किसी का दर्द सुनकर क्षणिक सुख भी दे ना पाऊं,
फिर तुम्हारे प्यार का पावन-कलश कैसे उठाऊं??
प्यार लौटा पाऊं, प्रिय का प्यार पाकर, मैं नहीं हूँ....
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ......

हिंद युग्म पर प्रकाशित(देखें www.hindyugm.com)
आपके स्नेह का शुभाकांक्षी
निखिल आनंद गिरि
9868062333

गुरुवार, 31 मई 2007

या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा.......

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले!
आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ
पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से
कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.

रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’

मंगलवार, 29 मई 2007

एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन ..............

बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम अगर नही आई गीत गा न पाऊँगा
साँस साथ छोडेगी, सुर सजा न पाऊँगा
तान भावना की है शब्द-शब्द दर्पण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम बिना हथेली की हर लकीर प्यासी है
तीर पार कान्हा से दूर राधिका-सी है
रात की उदासी को आँसुओ ने झेला है
कुछ गलत ना कर बैठें मन बहुत अकेला है
औषधि चली आओ चोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम अलग हुई मुझसे साँस की ख़ताओं से
भूख की दलीलों से वक्त की सज़ाओं से
दूरियों को मालूम है दर्द कैसे सहना है
आँख लाख चाहे पर होंठ से न कहना है
कंचना कसौटी को खोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है




मेरे पहले प्यार

ऒ प्रीत भरे संगीत भरे!
ओ मेरे पहले प्यार !
मुझे तू याद न आया कर

ओ शक्ति भरे अनुरक्ति भरे!
नस नस के पहले ज्वार!
मुझे तू याद न आया कर।

पावस की प्रथम फुहारों से
जिसने मुझको कुछ बोल दिये
मेरे आँसु मुस्कानो की
कीमत पर जिसने तोल दिये
जिसने अहसास दिया मुझको
मै अम्बर तक उठ सकता हूं
जिसने खुदको बाँधा लेकिन
मेरे सब बंधन खोल दिये

ओ अनजाने आकर्षण से!
ओ पावन मधुर समर्पण से!
मेरे गीतों के सार
मुझे तू याद न आया कर।

मूझे पता चला मधुरे तू भी पागल बन रोती है,
जो पीङा मेरे अंतर में तेरे दिल में भी होती है
लेकिन इन बातों से किंचिंत भी अपना धैर्य नही खोना
मेरे मन की सीपी में अब तक तेरे मन का मोती है,

ओ सहज सरल पलकों वाले!
ओ कुंचित घन अलकों वाले!
हँसते गाते स्वीकार
मुझे तू याद न आया कर।
ओ मेरे पहले प्यार
मुझे तू याद न आया कर।
......................................
.......................................



आना तुम

आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये

तन-मन की धरती पर
झर-झर-झर-झर-झरना
साँसों मे प्रश्नों का आकुल आकाश लिये

पथ में कुछ मर्यादाएँ रोकेंगी
जानी-अनजानी सौ बाधाएँ रोकेंगी
लेकिन तुम चन्दन सी, सुरभित कस्तूरी सी
पावस की रिमझिम सी, मादक मजबूरी सी
सारी बाधाएँ तज, बल खाती नदिया बन
मेरे तट आना
एक भीगा उल्लास लिये
आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये

जब तुम आऒगी तो घर आँगन नाचेगा
अनुबन्धित तन होगा लेकिन मन नाचेगा
माँ के आशीषों-सी, भाभी की बिंदिया-सी
बापू के चरणों-सी, बहना की निंदिया-सी
कोमल-कोमल, श्यामल-श्यामल,अरूणिम-अरुणिम
पायल की ध्वनियों में
गुंजित मधुमास लिये
आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये .................


मुक्तक

1.बहुत टूटा बहुत बिखरा थपेडे सह नही पाया
हवाऒं के इशारों पर मगर मै बह नही पाया
रहा है अनसुना और अनकहा ही प्यार का किस्सा
कभी तुम सुन नही पायी कभी मै कह नही पाया

2.बस्ती बस्ती घोर उदासी पर्वत पर्वत खालीपन
मन हीरा बेमोल बिक गया घिस घिस रीता तन चंदन
इस धरती से उस अम्बर तक दो ही चीज़ गज़ब की है
एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन

3.तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ
तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ
तुम्हे मै भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नही लेकिन
तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ

4.पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार करना क्या
जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार करना क्या
मुहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश मे है
हो गर मालूम गहराई तो दरिया पार करना क्या

5.समन्दर पीर का अन्दर है लेकिन रो नही सकता
ये आँसू प्यार का मोती है इसको खो नही सकता
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नही पाया वो तेरा हो नही सकता


उनकी खैरों खबर नही मिलती

उनकी खैरों खबर नही मिलती
हमको ही खासकर नही मिलती

शायरी को नज़र नही मिलती
मुझको तू ही अगर नही मिलती

रूह मे, दिल में, जिस्म में, दुनिया
ढूंढता हूँ मगर नही मिलती

लोग कहते हैं रुह बिकती है
मै जहाँ हूँ उधर नही मिलती........

रचनाकार: कुमार विश्वास
जन्म: 10 फ़रवरी 1970
जन्मस्थान : पिलखुआ गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ : एक पगली लड़की के बिन (1996), कोई दीवाना कहता है (2007)

सोमवार, 28 मई 2007

लोहे का स्वाद .......

इसे देखो
अक्षरों के बीच घिरे हुए आदमी को पढो
क्या तुमने सुना
कि यह लोहे की आवाज़ है
या मिट्टी में गिरे खून का रंग
लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो
घोङे से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है

-सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'

बच्चे तुम अपने घर जाओ........

बच्चे तुम अपने घर जाओ
घर कहीं नहीं है
तो वापस कोख में जाओ
माँ कहीं नहीं है
पिता के वीर्य मे जाओ
पिता कहीं नहीं है
तो माँ के गर्भ में जाओ
गर्भ का अंडा बंजर
तो मुन्ना झर जाओ तुम
उसकी माहवारी में
जाती है जैसे उसकी इच्छा
संडास के नीचे
वैसे तुम भी जाओ
लड़की को मुक्त करो
अब बच्चे तुम अपने घर जाओं

गगन गिल

मेरे देश की संसद मौन है....

एक आदमी रोटी बेलता है
आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी खाता है
ना रोटी बेलता है,
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मै पूंछता हू- यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है....

बहुत ही सोच समझकर दुआ सलाम करो.........

एक
वो अक्सर फूल परियों की तरह सजकर निकलती
आँखों में इक दरिया का जल भरकर निकलती है
कँटीली झाड़ियाँ उग आती हैं लोगों के चेहरों पर
ख़ुदा जाने वो कैसे भीड़ से बचकर निकलती है
बदलकर शक्ल हर सूरत उसे रावण ही मिलते हैं
कोई सीता जब लक्ष्मण रेखा से बाहर निकलती है
सफ़र में तुम उसे ख़ामोश गुड़िया मत समझ लेना
ज़माने को झुकी नज़रों से वो पढ़कर निकलती है
ज़माने भर से इज़्ज़त की उसे उम्मीद क्या होगी
ख़ुद अपने घर से वो लड़की बहुत डरकर निकलती है
जो बचपन में घरों की ज़द हिरण सी लाँघ आती थी
वो घर से पूछकर हर रोज़ अब दफ़्तर निकलती है
ख़ुद जिसकी कोख़ में ईश्वर भी पलकर जन्म लेता है
वही लड़की ख़ुद अपनी कोख़ से मरकर निकलती है
छुपा लेती है सब आँचल में रंज़ो-ग़म के अफ़साने
कोई भी रंग हो मौसम का वो हँसकर निकलती है
******
दो
कहीं भी सुब्ह करो या कहीं पे शाम करो
बहुत ही सोच समझकर दुआ सलाम करो
हमारे दौर के सूरज में रोशनी ही नहीं
अब एक और भी सूरज का इंतज़ाम करो
चमन में फूल खिला दे समय पे जल बरसे
इसी मिज़ाज के मौसम का एहतराम करो
गवाह बिकते हैं डरते हैं क्या सज़ा होगी
तमाम ज़ुर्म सरेआम सरेशाम करो
******
तीन

समस्याओं का रोना है क्यों उनका हल नहीं होता
हमारे बाज़ुओं में अब तनिक भी बल नहीं होता
समय के पंक में उलझी है फिर गंगा भगीरथ की
सुना है उज्जैन की क्षिप्रा में भी अब जल नहीं होता
सहन में बोन्साई हैं, न साया है, न ख़ुश्बू है
परिंदे किस तरह आएँगे इसमें फल नहीं होता
नशे में तुम जिसे संगीत का सरगम समझते हो
शहर के शोर में वंशी नहीं, मादल नहीं होता
प्रतीक्षा में तुम्हारी हम समय पर आके तो देखो
जो ज़ज़्बा आज दिल में है वो शायद कल नहीं होता
सफ़र में हम भी तनहा हैं सफ़र में तुम भी तनहा हो
किसी भी मोड़ पर अब ख़ूबसूरत पल नहीं होता
जिसे तुम देखकर ख़ुश हो मरुस्थल की फ़िज़ाओं में
ये उजले रंग के बादल हैं इनमें जल नहीं होता
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जयकृष्ण राय तुषार63 जी/7, बेली कॉलोनीस्टैनली रोड, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

शनिवार, 24 मार्च 2007

.....luv once said never is


Strength of a Man
The strength of a man isn't seen in the width of his shoulders।It is seen in the width of his arms that encircle you।
The strength of a man isn't in the deep tone of his voice.It is in the gentle words he whispers.
The strength of a man isn't how many buddies he has.It is how good a buddy he is with his kids.
The strength of a man isn't in how respected he is at work.It is in how respected he is at home.
The strength of a man isn't in how hard he hits.It is in how tender he touches.
The strength of a man isn't how many women he's Loved by.It is in can he be true to one woman.
The strength of a man isn't in the weight he can lift.It is in the burdens he can understand and overcome
.

Beauty of a Woman
The beauty of a woman Is not in the clothes she wears,The figure she carries,Or the way she combs her hair.
The beauty of a womanMust be seen from her eyes,Because that is the doorway to her heart,The place where love resides.
The beauty of a womanIs not in a facial mole,But true beauty in a womanIs reflected in her soul.
It is the caring that she lovingly gives,The passion that she shows,The beauty of a womanWith passing years-only grows.

Lucky is the man who is the first love of a woman, but luckier is the woman who is the last love of a man

........आज माँ घबराई हुई है

मैं दिल्ली में हूँ और मेरा मन कहीं
कहाँ हूँ मैं और ये ज़िंदगी मेरी
कि जैसे रेशा-रेशा बिखरने को

किससे कहूँ?
दोस्त वो कौन हो कि जो आधी रात को

तवज्जो दे कि मैं कितनी तकलीफ़ में सचमुच
ये कैसा डर मैं ऐसा सोचता हूँ
कि मेरे इस तरह बेवक़्त फ़ोन करने से
कहीं ख़त्म न हो बची-खुची दुआ सलाम

फिर भी उठाता हूँ फ़ोन कि इतना बेबस
और घुमाता हूँ जो भी नंबर
वह दिल्ली का नहीं होता

*****

फ़िजाओं में खुश्बू का मेला
रंगीनियाँ बिखरी हुई है

बाज़ार सज-धज के खड़े
हवाओं में नगमें रोशन

बच्चों के लिए आज तो
दिन है मौज मस्ती का

माँ कहती है लेकिन
आज घर के बाहर न निकलना
आज त्यौहार का दिन है

आज माँ घबराई हुई है

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लीलाधर मंडलोई

सोमवार, 19 मार्च 2007

...सिर्फ़ धुआँ

उसके घर का स्नैपशॉट
गली के उस कोने में
-छोटे सपनों के ढेर पर
कभी रोता, कभी हँसता
छोटा सा घर था उसका
अब वहाँ धुआँ है।

चौके में चूल्हा है
मगर अब ठंडा है
चूल्हे पर हाँडी है,
आधी ही पकी है
सिलबट्टे पर लाल मिर्च की चटनी
पिसते-पिसते ही रह गयी
बाक़ी सब धुआँ है।

पिछवाड़े मुर्ग़ियों का दड़बा है
ख़ाली और सुनसान है
कुछ टूटे हुए पंख हैं
कुछ लाल-लाल धब्बे हैं
बाक़ी सब धुआँ है।

यह नजमा का फ़्रॉक है
यह सलीम का बस्ता है
यह अब्दुल की किताब है
यह नसीम की शलवार है...
यह नुची हुई पतंग का चिथड़ा है
अब तक थर्रा रहा है।
बाक़ी सब धुआँ है...सिर्फ़ धुआँ।

********************
(बीबीसी हिंदी सेवा प्रमुख अचला शर्मा एक जानीमानी कवियित्री और लेखिका हैं। उनके कई कहानी संग्रह और कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। सूरीनाम के हिंदी सम्मेलन और पद्मानंद साहित्य पुरस्कार से सम्मानित अचला के रेडियो नाटकों के दो संग्रह 'पासपोर्ट' और 'जड़ें' प्रकाशित हो चुके हैं।)

रविवार, 18 मार्च 2007

राधा कुरूक्षेत्र में........

यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि महाभारत जैसे बड़े युद्ध से राधा ख़ुद को कैसे तटस्थ रख सकती है. कवि की कल्पन है कि राधा कृष्ण से मिलने कुरूक्षेत्र पहुँचे और प्रेम, युद्ध, जीवन और मृत्यु से जुड़े प्रश्न पूछे.

इसी कविता के कुछ छंदः


राधा, कुरूक्षेत्र में

सखी अलग हो स्थिर बैठी,
तब मुसका बोली,‘‘मन में उठते रहे प्रश्न बीसियों निरंतर.
बस दो का ही उत्तर, हे कृष्ण, मुझे दे-क्या तू युद्ध रोक सकता है? क्यों न रोकता?’’

‘‘राधा का करतल कर में ले कोमल स्वर मेंकहा कृष्ण ने,
’’राधा! यह सामर्थ्य न मुझमें.
विधि भी कहाँ रोकने आती वक्र अहं को;मानव नैसर्गिक सीमाओं में स्वतंत्र है.
चले अहं के द्वंद्वों से या शिव विवेकसेयाकि वासनाओं से, वह स्वछंद स्वयं है.पथ के कंटक-कुसुम झेलने उसे पड़ेंगे;क्षण आने पर फल भी वह अनिवार्य चखेगा.
कोई समझा नहीं सका दुर्द्धर्ष अहं को.
हर भय लगता क्षुद्र, न आतंकित कर पाता;
विजयी दीखती अटल, पराजय सदा अकल्पित;दुर्योधन ने मेरी बात नहीं मानी है.
क्यों, कैसे मैं विवश करूं पीछे हटने को
आहत, त्रस्त अहं को दीन पांडवों के ही?
क्या चुप रहने का दायित्व द्रोपदी का ही?
दुर्योधन का अहं गले अनिवार्य नहीं क्यों?

‘‘अन्य उपाय नहीं, जो नर-संहार रुक सके?
‘‘है; यदि मैं एकाकी दुर्योधन-वध कर दूँ.
तब दुःशासन-शकुनि-कर्ण का भी वध होगा;
भीष्म द्रोण भी तब न स्यात् बचना चाहेंगे.

पर अनीति यह होगी, मेरे शुत्र नहीं ये;
कुछ भी कभी किसी ने नहीं बिगाड़ा मेरा.
हनन कौरवों का कर्त्तव्य पांडवों का है;
वह उनसे छीनना अन्याय उनके प्रति भी तो.

अंधे थे धृतराष्ट्र, न गद्दी उन्हें दी गई;
छला नियति ने उन्हें, छला फिर पूज्य भीष्म ने.
राजा पांडु बने, पांडव ही राजा होगा-
धृतराष्ट्र को सहज नीति यह पची न पल को.

उसका अहं नाग बन कर फुफकारा,
उसने चाहा छल-बल, कपट ध्रूत से नियति पलटना.
शकुनि, कर्ण, दुःशासन ने घृत दिया अग्नि में;
भीष्म-द्रोण चुप रहे, बीज विष-वृक्ष बन गया.

शायद भीष्म स्वयं को अपराधी गुन बैठे;
वे तटस्थ रह पाते, तो युद्ध न होता.
नर-संहार न हो, दायित्व कौरवों पर है;
पांडव आत्म-हनन कर लें, यह नीति-विपर्यय.

इंद्रप्रस्थ दे पांडु-सुतों को वृद्ध भीष्म ने
गुत्थी सुलझा दी थी; पर तब दुर्योधन ने
कपट द्यूत का जाल बुना; पूरा पा लेनेके भ्रम में,
लो, धर्मराज आ फंसे स्वयं ही.

पराभूत पांडव विगलित थे आत्म-ग्लानि से;
राज्य उन्हें लौटा यश, विजय सुयोधन पाता.
पर वह चला द्रौपदी को निर्वस्त्र नचाने;
भरी सभा में, सभी वृद्ध दृग मूंद चुप रहे.

मोहग्रस्त धृतराष्ट्र रहे, पर भीष्म-द्रोण भी
तो संकीर्ण मूढ़ सत्यों से रहे प्रवंचित.
क्यों न कहा, अब राज्य धृतराष्ट्रों का हो गया
फिर पांडव ही उसके नैतिक अधिकारी?

दया पांडवों को, थपकी दी दुर्योधन को;
छला स्वयं को राजभक्ति के अटल तर्क से.
बृहद् सत्य का पक्ष ग्रहण कर अब भी हों
ये विलग, विनत होगा दुर्योधन ; युद्ध न होगा.

पर, यह होता तो हो लेता पूर्व ही.
तब ये गुरुजन कभी न सहते कपट द्यूत को;
भरी सभा में दीन द्रौपदी की दुर्गति को.
आज पितामह सेनापति हैं दुर्योधन के !

या यह हो सकता है, राधे, पांडु-सुतों को
मैं मंझधार छोड़कर संग तुम्हारे चल दूं.
कट-मर पांडव जाएं या तज कुरूक्षेत्र को
लौटे सघन वनों में रह-रह सिर धुनने को.’’

कृष्ण चुप हुए; और अधिक कहते भी क्या वे
राधा ने समझा, फिर भी कह उठी,‘‘समर की
रक्त-कीच में धंस डूबेगा युग का यौवन;
बदल सकेगा क्या न ज्ञान तेरा कुरू-मन को?’’

**********************************
वीरेंद्र कुमार गुप्त

रविवार, 11 मार्च 2007

वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम..........

जागा लाखों करवटें, भीगा अश्क हज़ार
तब जाकर मैंने किए, काग़ज काले चार.
*
छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख.
*
मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार.
*
तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच.
*
मैं ही मैं का आर है, मैं ही मैं का पार
मैं को पाना है अगर, तो इस मैं को मार.
*ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाऊँ
अपनी पत्तल छोड़ कर, मैं जूठन क्यों खाउँ.
*
पाप न धोने जाऊँगा, मैं गंगा के तीर
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर.
*
सब-सा दिखना छोड़कर, ख़ुद-सा दिखना सीख
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक.
*
ख़ाक जिया तू ज़िंदगी, अगर न छानी ख़ाक
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक.
*
बुझा-बुझा सीना लिए, जीना है बेकार
लोहा केवल भार है, अगर नहीं है धार.
*
सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात
मेरे देवी-देवता, काग़ज-क़लम-दवात.
*
अपनी-अपनी पीर का, अपना-अपना पीर
तुलसी की अपनी जगह, अपनी जगह कबीर.

वो निखरा जिसने सहा, पत्थर-पानी-घाम
वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम.
*
पिंजरे से लड़ते हुए, टूटे हैं जो पंख
यही बनेंगे एक दिन, आज़ादी के शंख.
*
जुगनू बोला चाँद से, उलझ न यूँ बेकार
मैंने अपनी रौशनी, पाई नहीं उधार.
*
बस मौला ज़्यादा नहीं, कर इतनी औक़ात
सर ऊँचा कर कह सकूँ, मैं मानुष की ज़ात.
*
पानी में उतरें चलो, हो जाएगी माप
किस मिट्टी के हम बने, किस मिट्टी के आप.
*
अपने को ज़िंदा रखो, कुछ पानी कुछ आग
बिन पानी बिन आग के, क्या जीवन में राग.
*
शबरी जैसी आस रख, शबरी जैसी प्यास
चल कर आएगा कुआँ, ख़ुद ही तेरे पास.
*
जो निकला परवाज़ पर, उस पर तनी गुलेल
यही जगत का क़ायदा, यही जगत का खेल.
*
कटे हुए हर पेड़ से, चीखा एक कबीर
मूरख कल को आज की, आरी से मत चीर.
*
भूखी-नंगी झोंपड़ी, मन ही मन हैरान
पिछवाड़े किसने लिखा, मेरा देश महान.
*
हर झंडा कपड़ा फ़क़त, हर नारा इक शोर
जिसको भी परखा वही, औना-पौना चोर.
*
सब कुछ पलड़े पर चढ़ा, क्या नाता क्या प्यार
घर का आँगन भी लगे, अब तो इक बाज़ार.
*
हम भी औरों की तरह, अगर रहेंगे मौन
जलते प्रश्नों के कहो, उत्तर देगा कौन.
*
भोगा उसको भूल जा, होगा उसे विचार
गया-गया क्या रोय है, ढूँढ नया आधार.
*
लौ से लौ को जोड़कर, लौ को बना मशाल
क्या होता है देख फिर, अंधियारों का हाल.
*********************
नरेश शांडिल्यए-5, मनसाराम पार्क,संडे बाज़ार रोडउत्तम नगर, नई दिल्ली-110059

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007

वो मौत माँगता हो, मगर मौत भी न हो.....................

न जाने चाँद पूनम का, ये क्या जादू चलाता है,
कि पागल हो रही लहरें, समुंदर कसमसाता है.
हमारी हर कहानी में, तुम्हारा नाम आता है.
ये सबको कैसे समझाएँ कि तुमसे कैसा नाता है.
ज़रा सी परवरिश भी चाहिए, हर एक रिश्ते को,
अगर सींचा नहीं जाए तो पौधा सूख जाता है.
ये मेरे ग़म के बीच में क़िस्सा है बरसों से
मै उसको आज़माता हूँ, वो मुझको आज़माता है.
जिसे चींटी से लेकर चाँद सूरज सब सिखाया था,
वही बेटा बड़ा होकर, सबक़ मुझको पढ़ाता है.
नहीं है बेइमानी गर ये बादल की तो फिर क्या है,
मरूस्थल छोड़कर, जाने कहाँ पानी गिराता है.
पता अनजान के किरदार का भी पल में चलता है,
कि लहजा गुफ्तगू का भेद सारे खोल जाता है.
ख़ुदा का खेल ये अब तक नहीं समझे कि वो हमको
बनाकर क्यों मिटाता है, मिटाकर क्यूँ बनाता है.
वो बरसों बाद आकर कह गया फिर जल्दी आने को
पता माँ-बाप को भी है, वो कितनी जल्दी आता है.
*******************************************

खिड़कियाँ, सिर्फ़, न कमरों के दरमियां रखना
अपने ज़ेहनों में भी, थोड़ी सी खिड़कियाँ रखना
पुराने वक़्तों की मीठी कहानियों के लिए
कुछ, बुजुर्गों की भी, घर पे निशानियाँ रखना
ज़ियादा ख़ुशियाँ भी मगरूर बना सकती हैं
साथ ख़ुशियों के ज़रा सी उदासियाँ रखना.
बहुत मिठाई में कीड़ों का डर भी रहता है
फ़ासला थोड़ा सा रिश्तों के दरमियां रखना
अजीब शौक़ है जो क़त्ल से भी बदतर है
तुम किताबों में दबाकर न तितलियाँ रखना
बादलो, पानी ही प्यासों के लिए रखना तुम
तुम न लोगों को डराने को बिजलियाँ रखना
बोलो मीठा ही मगर, वक़्त ज़रूरत के लिए
अपने इस लहजे में थोड़ी सी तल्ख़ियाँ रखना
मशविरा है, ये, शहीदों का नौजवानों को
देश के वास्ते अपनी जवानियाँ रखना
ये सियासत की ज़रूरत है कुर्सियों के लिए
हरेक शहर में कुछ गंदी बस्तियाँ रखना
*******************************************

इतनी किसी की ज़िंदगी ग़म से भरी न हो.
वो मौत माँगता हो, मगर मौत भी न हो.
ख़ंजर के बदले फूल लिए आज वो मिला,
डरता हूँ कहीं चाल ये उसकी नई न हो.
बच्चों को मुफ़लिसी में, ज़हर माँ ने दे दिया,
अख़बार में अब ऐसी ख़बर फिर छपी न हो.
ऐसी शमा जलाने का क्या फ़ायदा मिला
जो जल रही हो और कहीं रोशनी न हो.
हर पल, ये सोच-सोच के नेकी किए रहो,
जो साँस ले रहो हो, कहीं आख़िरी न हो.
क्यूँ ज़िंदगी को ग़र्क़ किए हो जुनून में
रख्खो जुनून उतना कि वो खुदकुशी न हो.
ऐसे में क्या समुद्र के तट का मज़ा रहा,
हो रात, साथ वो हों, मगर चाँदनी न हो.
एहसास जो मरते गए, दुनिया में यूँ न हो,
दो पाँव के सब जानवर हों, आदमी न हो.
इस बार जब भी धरती पे आना ऐ कृष्ण जी,
दो चक्र ले के आना, भले बांसुरी न हो.

लक्ष्मीशंकर वाजपेयी

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2007

प्रेम

प्रेम!!
प्रेमी सोचता है
किउसकी आँखों की भाषा सिर्फ वही पढ़ रही है
उसके संकेतों को सिर्फ़ वही समझ रही है
इस तरह का भ्रम प्रेमिका को भी होता है

भ्रम न रहे तो बताइए प्रेम कैसे हो!

सोमवार, 19 फ़रवरी 2007

चन्द गज़ले

तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था
***********************
बुरे दिनों का आना-जाना लगा रहेगा
सुख-दुख का ये ताना-बाना लगा रहेगा
मैं कहता हूँ मेरा कुछ अपराध नहीं है
मुंसिफ़ कहता है जुर्माना लगा रहेगा
लाख नए कपड़े पहनूँ लेकिन ये सच है,
मेरे पीछे दर्द पुराना लगा रहेगा
मेरे हाथ परीशां होकर पूछ रहे हैं-
कब तक लोहे का दस्ताना लगा रहेगा
महानगर ने इतना तन्हा कर डाला है
सबके पीछे इक वीराना लगा रहेगा
युद्ध हुआ तो खाने वाले नहीं बचेंगे-
होटल की मेज़ों पे खाना लगा रहेगा
***********************
तेरा शो-केस भी क्या खूब ठसक रखता था
इसमें मिट्टी का खिलौना भी चमक रखता था
आपने गाड़ दिया मील के पत्थर-सा मुझे-
मेरी पूछो तो मैं चलने की ललक रखता था
वो शिकायत नहीं करता था मदारी से मगर-
अपने सीने में जमूरा भी कसक रखता था
मुझको इक बार तो पत्थर पे गिराया होता-
मैं भी आवाज़ में ताबिंदा खनक रखता था
ज़िंदगी! हमने तेरे दर्द को ऐसे रक्खा-
प्यार से जिस तरह सीता को, जनक रखता था
मर गया आज वो मेरे ही किसी पत्थर से
जो परिंदा मेरे आंगन में चहक रखता था


साभार : बीबीसी वेबसाईट

.....काश....

दुख का झूला,सुख का झूला
ज़िन्दगी देखे है मैने ख्वाब अक्सर
दायरे से पार जाकर
एक बचपन बेलिबास,
सुस्त चाल, पस्त उसका हौसला है,
और दूजा बान्ध फ़ीते स्कूल जाने को चला है,
इधर नन्ही-सी कली आन्चल मे गुमसुम मुस्कुराती है,
उधर सुख का हाथ थामे ज़िन्दगी स्कूल जाती है,
मा की गोदी से निकलकर खो गया बचपन
बडॆ होकर हमने सीखा-
कभी पत्ते फ़ेकना और कभी पन्क्चर बनाना,
हो न पाया मा के साथ रिक्शे मे कभी स्कूल जाना
काश! अपने भी नसीबा मे हुई होती किताबे, दोस्त, सखी-सहेली,
खैर!!! अपनी भी दुनिया अलबेली,
काश! कोई रास्ता गुलशन भरा हो,
अपने धुन्धले ख्वाब का भी rang बदले,
सुख का पौधा फ़िर हरा हो,
रास्ता खुशियो भरा हो
और किस्मत मुस्कुराकर हाथ अपने एक दिन आगे badhaaye,
काश! दुख भरा बचपन कभी स्कूल जाये.....
काश!! ज़िन्दगी एक ही झूले पे दोनो गीत गाये,
सुख भरे भी, दुख भरे भी..........
काश.....................

निखिल आनन्द गिरि

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2007

Invitation

Welcome to all the art lovers on this blog... U can post your articles, experiences, Poems,Comments,reviews,or anythingelse which you want to share with us and which is interesting also...Language no bar....

So now lets make the World very SMALL..

Yours'
Nikhil n Sohail
memoriesalive@gmail.com
sohailazams@yahoo.co.in

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

नन्हें नानक के लिए डायरी

जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...