मैं दिल्ली में हूँ और मेरा मन कहीं
कहाँ हूँ मैं और ये ज़िंदगी मेरी
कि जैसे रेशा-रेशा बिखरने को
किससे कहूँ?
दोस्त वो कौन हो कि जो आधी रात को
तवज्जो दे कि मैं कितनी तकलीफ़ में सचमुच
ये कैसा डर मैं ऐसा सोचता हूँ
कि मेरे इस तरह बेवक़्त फ़ोन करने से
कहीं ख़त्म न हो बची-खुची दुआ सलाम
फिर भी उठाता हूँ फ़ोन कि इतना बेबस
और घुमाता हूँ जो भी नंबर
वह दिल्ली का नहीं होता
*****
फ़िजाओं में खुश्बू का मेला
रंगीनियाँ बिखरी हुई है
बाज़ार सज-धज के खड़े
हवाओं में नगमें रोशन
बच्चों के लिए आज तो
दिन है मौज मस्ती का
माँ कहती है लेकिन
आज घर के बाहर न निकलना
आज त्यौहार का दिन है
आज माँ घबराई हुई है
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लीलाधर मंडलोई
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acchi kavita lagi........lage raho nikhil bhai......
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