बुधवार, 4 मई 2016

एक डायरी बिहार और मालदा से लौटकर

किसी भी शहर या इलाके को समझने के लिए गूगल के बजाय गलियों में घूमना मुझे हमेशा ज़्यादा बेहतर लगा है।  कई शहरों या लोगों को एक साथ समझना हो तो हिन्दुस्तान में दो और विकल्प हो सकते हैं। एक तो ट्रेन का सफर और दूसरा शादियों के फंक्शन। इस अप्रैल के महीने में मुझे दोनों ही मौके मिले।

समसी(मालदा) में शादी की तैयारी : चौका-रसोई संभालती महिलाएं

सीज़न हो ऑफ-सीज़न, ट्रेन का सफर बिहार के किसी मुसाफिर के लिए हमेशा कैटल क्लासका सफर ही होता है। मेरा अनुभव थोड़ा लंबा है तो अब लंबी ट्रेन यात्राओं के लिए जुगाड़ ढूंढना सीख गया हूं। एसी बोगी के अटेंडेंट को कुछ पैसे देकर ऐसी जगह पर रात काटी जा सकती है जहां टीटी आपको ढूंढते रह जाएंगे।  जैसे-तैसे बिहार पहुंचकर एक रिसेप्शन में पहुंचा तो देखा अब वहां भी टेबल-कुर्सी के बजाय बफे सिस्टम’ (buffet) ही चल रहा है। अगर आपको बफे सिस्टम में भी खाने को सब कुछ मिले और चम्मच न मिले तो यकीन मानिए आप बिहार में हैं।

इसके बाद बिहार और बंगाल की सीमा पर दूसरी शादी में जाने का मौका मिला। किसी भी राज्य का विकास देखना-समझना हो तो उसके सुदूर बॉर्डर (सीमांत) इलाकों को देखना चाहिए। कटिहार और मालदा के बीच का इलाका, जहां मुझे दो दिन गुज़ारने थे, इतने पिछड़े हैं कि अब भी वहां बड़ी गाड़ियां देखकर बच्चे पीछे भागते हैं और धूल भरी सड़कों में आपका चेहरा सन जाता है। यहां न ओला चलती है, न ऊबर। न ऑड है, न ईवन। सिर्फ एक पैसेंजर ट्रेन है जो दिन में तीन बार मालदा तक जाती है।

बंगाल की शादियों में एक बात ग़ौर करने लायक थी कि खाने-पीने (हलवाई) का सारा ज़िम्मा पुरुषों की बजाय महिलाओं के हाथ में था। चार महिलाओं की टीम ने शाम होते-होते कई स्वादिष्ट सब्ज़ियां और पकवान तैयार कर डाला। समसी (मालदा का एक क़स्बा) में मुस्लिम आबादी ज़्यादा है, मगर एक मस्जिद के ठीक सामने हिंदू शादी में ऑर्केस्ट्रा लगा था और पूरी रात बेरोकटोक सबने मस्ती की। ये बात तब की है, जब पूरे बंगाल में चुनाव चल रहे हैं। मालदा वही इलाका है जहां हाल ही में सांप्रदायिक हिंसा की ख़बरों से मीडिया की नज़र पहली बार उधर गई थी। मगर उनकी नज़र ऐसी ज़रूरी चीज़ों पर भी जानी चाहिए जो शोर कम मीठा सुकून ज़्यादा देती हैं, बिल्कुल मालदा के मशहूर आमों की तरह।


निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 23 मार्च 2016

रंग-रंगीला परजातंतर..

एक बीजेपी के घोड़े ने शरीफ से विधायक की टाँग तोड़ दी। बेचारा विधायक लोहे की टांग लेकर घूम रहा है। घोड़ा बीजेपी का है तो मेनका गांधी भी कुछ नहीं बोल रहीं। इसे कहते हैं लोकतंत्र कहते हैं। विधायक की टूटी टांग की तरह लंगड़ा। लंगड़े आम की तरह मीठा।
एक टीम है क्रिकेट खेलने वालों की। मर्दों की। पाकिस्तान से खेले चाहे फुद्दिस्तान से। मीडिया सुबह से टेंट गाड़ के कमेंट्री करता है। क्रिकेट के बाप-दादा सब तंबू गाड़ कर ज्ञान बांटते हैं। असली में जब मैच होता है तो पूरे मर्दों की टीम रन बनाती है 75। हाहाहा। इसे कहते है वर्ल्ड कप। मर्दों वाला। औरतों की टीम खेलती है, हारती है, जीतती है, किसी को फर्क नहीं पड़ता। औरतों के लिए न तो मीडिया के तंबू में जगह है, न तो देश के दिल में। इसी को पत्रकारिता कहते हैं।
एक विधायक हैं बीजेपी के। राजस्थान से सू्ंघकर जेएनयू के कूड़े में से माल गिनते हैं। सिगरेट का टुकड़ा इतना, बीड़ी उतना। कांडम इतना, लड़कियां उतनी। जेएनयू को जनेऊ पहनाना चाहते हैं। पहना दीजिए। जन्माष्टमी भी मनाइए। कन्हैया को भगत सिंह बना दीजिए आपलोग। भगत सिंह के नाम पर एयरपोर्ट तक मत बनाइए।
एक होती है होली। एक होती हैं मालिनी अवस्थी। हर चैनल पर घूम घूम कर गाना गाती हैं। हर चैनल पर। एक होते हैं कुमार विश्वास। हर चैनल पर एक ही लाइन पढ़ते हैं। पाँच-दस-बीस साल गुज़र गए। होली का ये तरीका नहीं बदला। किसी को कविता का मन किया तो चुटकुलेबाज़ों को उठाकर ले आया। व्हाट्सऐप से उठा उठाकर ये चुटकुले सुनाएं चुटकुलेबाज़ कवि भाई लोग, वो चुटकुले सुनाएं कि बाबा नागार्जुन शरमा जाएं, दिनकर की आत्मा कांप जाएं। मंच पर कविता चालू आहे।
बाराखंभा स्टेशन पर रोज सवेरे नौ बजे बाहर निकलता हूं तो सिर झुकाए बूट पॉलिश के लिए कई बच्चे एक साथ 'सर, सर..' कहते रहते हैं। मन करता है मेरे दस जोड़ी जूते होते तो एक साथ सबसे पॉलिश करवा लेता। होली में कुछ रंग उनके भी खिल आएँ। न वो कन्हैया हैं, न मोदी। न वो आज तक हैं, न परसों तक। उन्हें ऐसे ही रहना है बरसों तक।
तब तक जै राष्ट्रभक्ति, जय भारत माता। जय कांय कांय कांय। जो सुर में सुर न मिलाए, उन्हें धांय धांय धांय।

मर्दों को पूरे दिन की होली मुबारक... औरतों को गुझिया बनाने से फुर्सत मिले तो उन्हें भी..

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 22 मार्च 2016

खोये-से किसी ख़त का लिफाफा हैं बेटियां



 

खुशबू है जिनके दम से, वो फिज़ां है बेटियां
हर घर की बुलंदी का आसमां है बेटियां
उन आंखों में छिपे हैं मोहब्बत के ख़ज़ाने
खोये-से किसी ख़त का लिफाफा हैं बेटियां
जब तक दुआओं में असर है, ज़िंदगी महफूज़
बेटे अगर दवा हैं तो दुआ हैं बेटियां

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

वो एक साल था, जाने कहां गयां यारो

वो एक साल था, जाने कहां गया यारों
बड़ा बवाल था, जाने कहां गया यारों।
हरेक लम्हे को जीते रहे तबीयत से
भरम का जाल था, जाने कहां गया यारों।
चलो ये साल, नयी बारिशों से लबलब हो
बहुत अकाल था, जाने कहां गया यारों।
बिछड़ के खुश हुआ कि और भी उदास हुआ
बड़ा सवाल था, जाने कहां गया यारों।
जो जा रहा है, कभी लौट के भी आ जाता
यही मलाल था, जाने कहां गया यारों।
नए निज़ाम में सब कुछ नया-नया होगा
हसीं ख़याल था, जाने कहां गया यारों

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

एक छोटी-सी ऑड-इवेन लव स्टोरी

ये बता पाना मुश्किल है कि प्यार पहले लड़की को हुआ या लड़के को, मगर हुआ। एक ऑड नंबर की कार से चलने वाली लड़की और इवेन नंबर से चलने वाले लड़के को आपस में प्यार हो गया। ऐसे वक्त में हुआ कि मिलने की मुश्किलें और बढ़ गईं। पहले सिर्फ घर से निकलने की दिक्कत थी, अब दिक्कत ये कि ऑड वाले दिन लड़की को पैदल, फिर रिक्शा और फिर मेट्रो से लड़के तक पहुंचना होता था। इवेन वाले दिन लड़के को यही सब करना पड़ता था।

अपनी प्रेम कहानियों की रक्षा स्वयं करें!
यह प्यार किसी और शहर या किसी और राजनैतिक दौर में हुआ होता तो वो रोज़ मिलते। ट्रैफिक जाम में घंटे भर फंसकर भी खुश होते। कोई दूसरी गाड़ी उनकी हेडलाइट या गाड़ी के किसी हिस्से को छू जाती तो भी एक-दूसरे को मुस्कुराकर रह जाते। शीशा चढ़ा लेते जब सामने की गाड़ी वाला ग़लत ट्रैफिक सिग्नल क्रॉस कर रहा होता और उन्हें घूर कर देख रहा होता। किसी सेंट्रल पार्क के बाहर अपनी गाड़ी पार्क करते और घंटो बातें करते। मोदी पर, केजरीवाल पर, आलू के पकौड़ों पर। फिर मुश्किल से विदा होते, घर पहुंचते ही मोबाइल से दोनों चिपक जाते। मगर इस दौर में तो बहुत मुश्किल हो गया था ये सब। ऑड तारीखों वाले दिन लड़के का मूड ख़राब रहता और इवेन वाले दिन लड़की का।
समय गुज़रता गया। प्यार करते-करते एक दिन गुज़रा, दो दिन गुज़रे, एक हफ्ता गुज़र गया, दो हफ्ते गुज़रने ही वाले थे। दिल्ली जैसे शहर में एक प्रेम कहानी का दो हफ्ते गुज़र जाना इतिहास का हिस्सा होने जैसा था। प्रेम कहानी के चौदहवें दिन अचानक जब आठ बज गए तो इवेन कार वाले लड़के ने थोड़ा हिचकते हुए ऑड वाली लड़की से कहा, अब हम कभी नहीं मिलेंगे। मैंने दरअसल एक इवेन वाली लड़की ढूंढ ली है। तुम भी एक ऑड वाला लड़का ढूंढ लो।

लड़की थोड़ी उदास हुई फिर बोली, मेरी चिंता मत करो, मैं सीएनजी के सहारे अकेले चलना पसंद करूंगी अब से, तुम्हें नई ज़िंदगी, नया साल मुबारक

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

भगवान जहां मरते हैं, दुनिया वहां शुरू होती है

एक आदमी है जो एयरफोर्स में हैं। फाइटर एयरक्राफ्ट बनाने की मशीन पर काम करता है। उसके हाथ लोहा हो गये हैं। उंगलियों की रेखाओं में कुछ भी देखने लायक नहीं बचा। आप उसे देखेंगे तो लगेगा ये आदमी सिर्फ नट-बोल्ट होकर रह गया। मगर शाम को जब वो घर लौटता है, उसकी उंगलियां थिरकने लगती हैं। वो इतना शानदार तबला बजाता है कि अच्छे-अच्छे ज़ाकिर हुसैन फेल हो जाएँ। ऐसे ही कुछ शानदार लोगों के साथ पिछली कुछ शामें गुज़ारीं। एक तो एकाउंट विभाग में अफसर हैं, मगर ग़ज़लें इतने शौक से लिखते-सुनाते हैं कि शक होता है दफ्तर में क्या करते होंगे। सोचिए, ऐसे सारे लोग एक जगह इकट्ठा हो जाएं, तो दुनिया कितनी बेहतर हो जाए।
किसी के घर जाइए तो चाय पिलाने का चलन बाप-दादा के ज़माने से चला आ रहा है। मगर इस बार किसी साथी के घर गया तो उनकी बेटी ने मेरे सिर के पीछे वाले प्लग में फोन का चार्जर लगा दिया। बेटे ने मेरे मोबाइल के लिए वाई-फाई का पासवर्ड बता दिया। चाय बहुत देर बाद मिली। एकदम ज़मीन से जुड़ा कमाल का परिवार है। वाई-फाई और चार्जर जैसे संस्कारों के बीच जब मेरे साथी हारमोनियम लेकर बैठते हैं तो शहरी स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले उनके बड़े होते बेटी-बेटी खुश होकर कोई लोकगीत छेड़ देते हैं। फिर ये सिलसिला सारी रात चलता है। हिसाब-किताब की नज़र से वक्त बरबाद गया मगर ज़िंदगी में ऐसे वक्त बरबाद करने को मिले तो मैं पूरी ज़िंदगी बर्बाद करना चाहूंगा।
धर्म के नाम पर फूल चढ़ाने, धूप-बत्ती करने का दिखावा मुझे बचपन से ही पसंद नहीं। सुबह चोरी से फूल तोड़ने जाते थे, फिर दीदी बिना मुंह धोए भगवान के लिए माला बना देती थी और फिर हम डर के मारे भगवान के आगे खड़े हो जाते थे। इससे बेहतर है कि हम असल ज़िंदगी में कुछ रिश्तों में पूरी आस्था रखें। भगवान न सही, पवित्रता ही सही। कम से कम ये भगवान अच्छे-बुरे वक्त पर कुछ तो बोलेगा, बात तो करेगा, बुरी ही सही। क्या ज़रूरी है कि भगवान हमेशा अच्छी-अच्छी बातें करे। उसे पूरा हक़ है गालियां देने का, हमसे नफरत करने का। किसी पेरिस के धमाके में उड़ जाने का, किसी चेन्नई की बाढ़ में बह जाने का।
भरम में होना अलग मज़ा है, मगर भरम का टूटना ज़्यादा ज़रूरी है। इस टूटने का दर्द कम करने के लिए आप नए लोगों से मिलते हैं। जैसे मैं मिला। मशीन जैसे दिखते लोगों की उंगलियां बहुत सुंदर दिखीं। एक परिवार जिसमें सब बराबर दिखे। दुनिया बहुत अच्छी है, अगर नज़र किसी एक ही भगवान के डर से बंद न कर ली जाए।

उसकी भी क्या है, ज़िंदगी देखो
रोज़ करता है खुदकुशी देखो।
यूं भी क्या ख़ाक देखें दुनिया को
जो ज़माना कहे, वही देखो..

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

तीन जोड़ी आँखें

एक पतंग थी
तीन दिशाएं थीं..
तीन दिशाओं में उड़ गईं तीन पतंगे थीं...

एक सपना था

तीन सपने थे
तीन सपनों के बराबर एक सपना था....

एक मौन था
एक रात थी
तीन युगों के बराबर एक रात थी

एक ख़ालीपन भर गया रात में
फिर मौन तिगुना हो गया
अंधेरे भर गए तीन गुना काले

एक रिश्ता खो गया उस रात में
ढूंढ रही हैं तीन जोड़ी आंखें...
एक-दूसरे से टकरा जाएंगी एक दिन अंधेरे में।

निखिल  आनंद गिरि



गुरुवार, 26 नवंबर 2015

स्लीपर डिब्बे की तरह झूलता बिहार

इस बार बिहार में नई सरकार के शपथ ग्रहण के साथ ही बिहार का मज़ाक बनना शुरू हो गया। ये हमारे भाग्य में लिखा हुआ है शायद। लालू का बेटा कुछ का कुछ पड़ गया और सोशल मीडिया पर हम जैसे लोग सही पकड़े हैंका डंक झेल रहे हैं। लालू के बेटे ने जो पढ़ा सो पढ़ा, एक और मंत्री ने अंत:करण की जगह अंतर्कलह पढ़ दिया। आगे-आगे देखिए होता है क्या।
छठ के वक्त ट्रेन से बिहार जाना और बिहार से लौटना पुराने जन्म के पाप भोगने जैसा हो गया है। हर साल सोचता हूं कि इस बार उड़कर पटना पहुंच जाऊंगा, इस बार चार महीने पहले ही एसी टिकट बुक करवा लूंगा, मगर सब फॉर्मूले बेकार हो जाते हैं। छठी मइया कहती हैं कि व्रत का कष्ट सिर्फ छठ करने वाला ही क्यों झेले। सब झेलो। अमृतसर, लुधियाना, अंबाला से डब्बा-डुब्बी, ट्रंक, बक्सा लादकर स्लीपर में जब लोग चढ़ते हैं तो मालगाड़ी में चढ़ने का सुख मिलता है। जब से होश संभाला, स्लीपर में जाने वाले लोग नहीं बदले। लगता है सबको एक-एक बार देख चुका हूं। बिहार का शायद ही कोई घर हो, जिसका एक बेटा बिहार-पंजाब में नौकरी नहीं करता हो। ये गर्व की बात नहीं, राज्य सरकार के लिए सोचने की बात है, शर्म की बात है। कुछ ऐसा होना चाहिए कि हम त्योहारों के लिए अपने गांव-घर लौटें तो हमारे हाथ में बढ़िया नौकरियों का सरकारी लिफाफा थमा दिया जाए। इस भरोसे के साथ कि बिहार में रहकर भी पूरी ज़िंदगी बिताई जा सकती है।
बिहार से लौटने के वक्त स्लीपर में मेरी सीट कन्फर्म थी। मगर आधी रात को जैसे ही नींद खुली, आंखों के ठीक सामने एक पैसेंजर चादर में झूल रहा था। पहले डर गया, फिर हंसी आई। ख़ुद पर, उस पर, बिहारी पैसेंजर होने के नसीब पर। स्लीपर बोगी में अक्सर लोग वेटिंग या जनरल टिकट लेकर घुसते हैं और कन्फर्म सीट वालों से रास्ते पर नौंकझोक चलती रहती है। ऐसे में एक सीट से दूसरी सीट तक मज़बूत चादर या गमछे का झूला बनाकर पूरी रात काट देना मजबूरी के नाम पर कमाल की खोज कही जा सकती है। बाबा रामदेव के स्वदेशी मैगी की तरह।
मुझे बाबा रामदेव पर गर्व है। उन्हें स्लीपर में यात्रा करने वालों से, रात भर बिना पेशाब-पखाने किए, चादर में झूलते रहने वाला योगासन सीखना चाहिए। क्या पता वो इस योगासन के बाद सीधा स्पाइडरमैन की शक्तियां पा जाएं। हमारा स्वदेशी मकड़मानव जो सिर्फ स्वदेशी नूडल्स खाता है।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

तेरी तलाश में क्या क्या नहीं मिला है मुझे


अब अंधेरों में भी चलने का हौसला है मुझे
तेरी तलाश में क्या क्या नहीं मिला है मुझे

अभी तो सांस ही उसने गिरफ्त में ली है,
अभी तो बंदगी की हद से गुज़रना है मुझे

मेरा तो साया ही पहचानता नहीं मुझको,
कहूं ये कैसे कि ग़ैरों से ही गिला है मुझे

मैं एक ख़्वाब-से रिश्ते का क़त्ल कर बैठा
अब अपनी लाश ढो रहा हूं, ये सज़ा है मुझे

किसी ने छीन लिया जब से मेरा सूरज भी
मैं उसके नाम से रौशन रहूं दुआ है मुझे

मेरे यक़ीन से कह दो, ज़रा-सा सब्र करे,
ये रात बुझने ही वाली है, लग रहा है मुझे

निखिल आनंद गिरि

 

शनिवार, 7 नवंबर 2015

पुरानी यादें किसे लौटाएं..

कल एक अजीब बात हुई। एक महिला मित्र से आमने-सामने बैठकर बात कर रहा था और उसके नाम की जगह किसी दूसरे का नाम मुंह से निकल रहा था। ज़िंदगी में ऐसी कई छोटी-छाटी चीज़ें हैं जो बताती हैं कि हमारी ज़िंदगी में कुछ पीछे छूट गए लोग कितने ज़रूरी हैं। कई छोटी आदतें, एकाध बार मिले लोग, बहुत कम पढी गई किताबें या खिड़की से दिख रही कोई चि़ड़िया भी ज़िंदगी भर याद रह जाती है।

कई दिनों से कोई फिल्म नहीं देखी। ऐसा नहीं कि इस बीच अच्छी फिल्में नहीं आई हों या फिर मेरे नहीं देखने की वजह से फिल्म बनाने वालों ने भूख हड़ताल कर दी हो, फिर भी हर हफ्ते एक फिल्म नहीं देखना नई आदत जैसा है। एक तो ज़िंदगी काफी तेज़ी से आगे बढ़ रही है तो कुछ कामों के लिए वक्त निकालना मुश्किल पड़ रहा है। और दूसरा ये कि टीवी आपकी तमाम ज़रूरतें पूरी कर ही देता है। कोई नई फिल्म भी टीवी पर दो-तीन हफ्ते में वर्ल्ड टीवी प्रीमियर कर ही लेती है। और जब आप टीवी पर देखते हैं तो अकसर उसकी कहानी देखकर अफसोस भी नहीं रह जाता।

फिल्मों से ज़्यादा मज़ा अब न्यूज़ चैनल देखने में आता है। यहां ख़बरें पकाने को ही ख़बर लिखना मान लिया गया है। जैसे शाहरुख खान के 50 साल पूरे होने पर कहीं हल्के में देश के 'माहौल' पर कुछ कहा गया और उसे बुरी तरह लपक लिया गया। कौन पाकिस्तान जाएगा, कौन नहीं इस पर डिबेट शुरू हो गई। योगी, कैलाश जैसे सेकेंड क्लास नेताओं के बयान को जानबूझकर इतनी हवा दी जा रही है कि माहौल ज़्यादा ख़राब होने दिया जाए। मसाला बचा रहे बस। सच में कहीं 'असहिष्णुता' (INTOLERANCE) का माहौल है तो वो न्यूज़ चैनल में ही है। इस बात को मज़ाक से ज़्यादा एक आम दर्शक के गुस्से और विरोध के तौर पर लिया जाना चाहिए। 

रेल मंत्रालय में बरसों से कोई काम करने वाला आदमी नहीं दिखता। पुरानी पॉलिसी में ही फेरबदल करते रहने से न तो रेलवे का भला होने वाला है और न ही मुसाफिरों का। छठ के ठीक पहले टिकट कैंसल कराने में ज़्यादा 'सर्विस चार्ज' कटने का ऐलान जनता के साथ धोखे जैसा है। बजाय इसके कि आप दलाली कम करें, कम से कम पूजा के वक्त ट्रेन की संख्या बढ़ाएं, टीटी की गुंडागर्दी कम करें, ट्रेन के बाथरूम की हालत ठीक करें, टिकट घटाने-बढाने में ही सारी काबिलियत दिखाते रहते हैं। 

जिस तरह 'टिकट वापसी' में अब आधा ही पैसा वापस मिलने वाला है, उसी तरह सम्मान वापसी में भी सरकार को ऐसा ही कुछ करना चाहिए। सरकार को कहना चाहिए कि हम आपका आधा सम्मान ही ले सकते हैं। बाक़ी अपने पास रखिए, जिसका अफसोस आपको ज़िंदगी भर होते रहना चाहिए कि किसी न किसी निकम्मी सरकार से सम्मान लेने गए ही क्यों।
निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

हम जहां बचे हुए हैं..

आजकल कई पुरानी चीज़ों पर काम कर रहा हूं। घर में पड़ी पुरानी क़िताबें पढ़ रहा हूं। कई ऐसी किताबें हैं जो कभी पढ़ी ही नहीं। घर में आईं और कहीं कोने में पड़ी रहीं। पढ़े जाने के इंतज़ार में। कई पन्नों पर पुरानी, अधूरी कविताएँ दिख जाती हैं। कहती हैं, पूरा करो मुझे। याद नहीं कौन-सी कविता किस मूड में वहां तक पहुंची थी। लग रहा है जैसे कविता पूरी करने का कोई कांपटीशन कर रहा हूं ख़ुद से।
दो कहानियां पड़ी हुई हैं। एक बार फिल्म बनाने का मन हुआ था तो एक कहानी लिखी थी एक दोस्त के साथ। कहानी लगभग पूरी होकर रह गई। एक बहुत पुरानी डायरी है। कई सारे नंबर लिखे हुए हैं। मन होता है किसी अनजान नंबर को फोन मिला दूं और पूछूं क्या हाल। अगर वो पहचान ले तो शिकायत के साथ पूछूं कि इतने दिन में आपने ही फोन क्यों नहीं कर लिया। अगर न पहचाने तो कहूं कि कभी-कभी अनजान लोगों से बात करने की हॉबी है मेरी।
स्कूल के ज़माने की कुछ तस्वीरें हैं। जब नई-नई दाढ़ी आई थी चेहरे पर। अजीब-सी सादगी लग रही है ख़ुद के उस पुराने चेहरे में। अब काफी चालाक कर दिया है शहर ने। नए तरह के दोस्तों ने। पुराने रिश्तों से कई दिनों बाद गुज़रना बहुत ख़ास होता है।
अभी फेसबुक पर मैंने स्टेटस लगाया कि कुछ पैसों की ज़रूरत है। कुछ लोगों ने मज़ाक उड़ाया। कुछ ने इनबॉक्स में आकर दिल से मदद करनी चाही। ऐसे कई दोस्त जिनसे कई-कई महीनों से बात नहीं हुई, बिना शर्त पैसा देने को तैयार हो गये। इस तरह ख़ुद को परखने का ये अनुभव ठीकठाक रहा। हम दिन ब दिन जितना निगेटिव सोचते जाते हैं, ऐसे कुछ मीठे अनुभव भीतर से ताक़त देते हैं। मदद की पेशकश महिला मित्रों की तरफ से ज़्यादा आई। बहन, प्रेमिका, मां तक का हक़ जताकर उन्होंने मदद करनी चाही। मैं उन सबका शुक्रगुज़ार हूं।
ये एहसास ही बहुत है कि आप कई पुराने रिश्तों में अब भी बचे हुए हैं। जहां नहीं बचे हैं या जिन रिश्तों ने ठुकरा दिया, उनको मुंहतोड़ जवाब की तरह। मैं बचा रहूंगा एक उम्मीद की तरह।
आमीन!

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

एक डायरी अनमनी सी

मेरी उम्र के लिहाज़ से ये बात अनफिट लग सकती है मगर सच है। आजकल पुरानी रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह हो गया हूं। कोने में कहीं पड़ा। न कोई नोटिस करता है, न ऐसी कोई चाहत उमड़ती है। बीच-बीच में कोई भीतर झांक लेता है तो खुश हो लिया वरना पड़े रहे अगड़म-बगड़म सोचते। मुझे लगता है हर किसी के साथ ऐसा वक्त आता होगा जब वो 'ब्लॉक' महसूस करता है। मेरा ये ब्लॉक बीच-बीच में आता रहता है। इस बार कुछ ज़्यादा लंबा है। उम्मीद है जल्दी कटेगा ये वक्त। जितनी जल्दी कटेगा, ब्लॉग पर लौटना आसान रहेगा। ये मेरी डायरी है। हर रोज़ भरना चाहता हूं। कई दिन ख़ाली रह गए।

ज़िंदगी में इतना कुछ नया घट रहा है कि सब रुटीन जैसा लगने लगा है। नया घटना एक चीज़ है और मनचाहा घटना अलग। बहुत कुछ अनचाहा घट रहा है इन दिनों। जिन्हें भूल जाना चाहता हूं, वो अकसर याद रहते हैं। कई तारीखें याद रह गई हैं। उनका क्या किया जाए, समझ नहीं आता। कई कविताएं अधूरी हैं। किसी ख़ास वक्त में लिखी गईं। छूट गईं। अब लगता है वो मुझे पहचानती ही नहीं। जैसे कविता मैं नहीं कोई और लिख रहा था। क्या पता कोई और ही लिख रहा हो।

दिल्ली भी अजीब शहर है। नौ-दस साल गुज़र गए मगर अब भी लगता है पूरे शहर को समझना बाक़ी है। या इस शहर ने ही मुझे नहीं समझा। सिर्फ एक पेशेवर रिश्ता रखा है। पूरी ज़िंदगी से ही पेशेवर रिश्ते जैसा लगने लगा है। दिल्ली सबको ऐसा ही बना देती है। थोड़ा चिड़चिड़ा, थोड़ा गुस्सैल, थोड़ा ख़र्चीला। यहां छींकना भी संभलकर पड़ता है। कोई न देखे तब भी 'सॉरी' बोलते हुए।

छींकना भी अजीब आदत है। कुछ लोग ऐसे छींकते है जैसे किसी नई कला को जन्म दे रहे हों। कलाओं को ज़िंदा रहना चाहिए। कविताओं को भी। ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है, ज़िंदा होना ही काफी नहीं।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

अच्छे दिनों की कविता

गांधी सिर्फ एक नाम नहीं थे,
जिनके नाम पर तीन बंदर हुए
या बहुत-से आंदोलन

एक दौर थे जिसमे हुमारे दादा हुए

दादाजी कहते रहे हमेशा
'गांधीजी ने ये किया वो किया
उनकी मौत पर नहीं जला चूल्हा पूरे गाँव में
कोई औरत भेस बदलकर बचाती रही भगत सिंह को'

या फिर पिताजी को ही ले लीजिये
वो सुनाते हैं जब अपने दौर के बारे में
तो कई अच्छी बातें हैं बताने को
जैसे जब बारिश होती थी हुमचकर
उनके समय में
तो हेलीकाप्टर से खाना आता था उनके लिए
महामारी में मरते थे बच्चे
तो सरकार एक भरोसे का नाम थी।

जैसे नेहरू के भाषणों में पुलिस नहीं होती थी
या फिर इन्दिरा गांधी हाथी पर सवार होकर चलती थीं कभी कभी
घरों में चोरियाँ कम थीं
या फिर किसी ने बकरी चुरा भी ली
तो दो दिन दूह कर
लौटा आता था बकरी ।

सबके अपने अपने दौर थे
जैसे एक हमारा भी
जिस पर लिखी जा सकती है एक मुकम्मल कविता
जैसे जब जन्म हुआ मेरा
तो पुलिस वाले
दौड़ा-दौड़ा कर मारते थे सिखों को
और इन्दिरा गांधी की हत्या उनके घर में ही हुई
जैसा कि बी बी सी ने बताया

जब किताबों का दौर आया तो
धनंजय चटर्जी को सरेआम फांसी हुई
एक स्कूली लड़की से बलात्कार के जुर्म में
गांधी हमारे दौर की किताबों में नहीं
नोटों पर थे
और औरतें मदद करना तो दूर,
मदद मांग भी नहीं सकती किसी मर्द से।

इस तरह जितना बड़े हुए
जोड़ी जा सकती है एक और बुरे दिन की तारीख
कहीं बारिश नहीं होती ऐसी
कि डूबकर लिखी जा सके कविता
जैसे टैगोर लिखते रहे बारिश के दिनों में।

जितना बदलना था बदल चुका समय
अब सिर्फ़ होता है क्रूर
जिसमें परछाईं भी भरोसे के लायक नहीं।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

क्षणिकाएं

छुट्टी
घर से निकला
घर से छुट्टी लेकर
दफ्तर घर हो गया।
मैं रोज़ नौ घंटे की छुट्टी पर रहता हूं
दफ्तर में।

विकल्प
चुनना एक व्यवस्था की तरह नहीं
व्यवस्था एक मजबूरी की तरह
जैसे हरे और पीले में चुनना हो लाल।
यह रंगों की अश्लीलता नहीं

व्यवस्था का अपाहिज होना है।
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 15 अगस्त 2015

खिड़की

खिड़की पर लड़कियां नहीं बैठती
नई दुल्हनें भी नही
पुरुष बैठतें है खिड़कियों पर
यह खिड़की रेलगाड़ी या बस भी हो सकती है
किसी देश की खिड़की
या दुनिया की कोई भी सभ्य खिड़की
खिड़कियों से दुनिया को इस तरह देखें
कितनी बराबर यानी एकरस है।

इस तरह डर लड़की को नहीं 
लड़की के गहनों को भी नहीं।
खिड़की पर बैठा पुरुष डरता है
बाहर के अनजाने पुरुष से
जो खिड़की से हाथ डालकर
कभी भी खींच सकता है
दूसरे पुरुष का सारा दंभ।

खिड़की के बाहर की स्त्रियां
फिलहाल सुरक्षित हैं
दो पुरुषों के आपसी संघर्ष में।
दुनिया चैन से सो रही है
खिड़की पर बैठे पुरुष

जाग रहे हैं बस।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 9 अगस्त 2015

हो ना..

एक बिंदु से शुरू होती है हर रेखा
इस तरह
रेखाओं का होना
बिंदुओं का नहीं होना नहीं होता

जैसे दीवारों का होना
ईंटों का होना भी होता है।
बारिश का होना
बहुत-सी बूंदो का होना।
धुएं का होना
आग का होना
राख का होना।
दुनिया का होना
और अंधेरे का होना
उम्मीद का होना भी होता है

इस तरह नहीं होना किसी का

सबसे ज़्यादा मौजूद होना भी होता है
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 1 जुलाई 2015

सीढ़ियां

सीढियां कहीं नहीं जाती
कोई कंपन,  कोई धड़कन
नहीं उनकी शिराओं में
वो चुपचाप सुनती हैं
धम्म से चढ़ते हैं पैर उनकी छाती पर
और चले जाते हैं रास्ता बनाते।
सीढियां रास्ता नहीं हैं
इसीलिए टूटने लगी हैं।
जो सीढ़ियों की छाती पर चढ़ते हैं
उनसे सविनय निवेदन है
सीढ़ियों को कुछ रोज़ के लिए अकेला छोड़ दें।
उन्हें टूटने का डर नहीं
दुख है फिर से जोड़े जाने का

जोड़ा जाना सहानुभूति नहीं है

स्वार्थ है छातियां रौंदने का।
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 23 जून 2015

नहीं

एक सुबह का सूरज
दूसरी सुबह-सा नहीं होता
एक अंधेरा दूसरे की तरह नहीं होता।
संसार की सब पवित्रता
एक स्त्री की आंखें नहीं हो सकतीं
एक स्त्री के होंठ
एक स्त्री का प्यार।
तुम जब होती हो मेरे पास
मैं कोई और होता हूं
या कोई और स्त्री होती है शायद
जो नहीं होती है कभी।
मेरे भीतर की स्त्री खो गई है शायद
ढूंढता रहता हूं जिसे

संसार की सब स्त्रियों में।
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 20 जून 2015

कचरा


जिन्होंने ज़मीन पर घर बनाए
रहे ज़मीन पर
उनका हक़ है कि कचरा ज़मीन पर फेंके
जिनके घर आसमान में हैं
उनसे सविनय निवेदन है
आसमान में कचरा फेंकने की जगह ढूंढ लें।
ज़मीन पर अघोषित निषेधाज्ञा है
लिफ्ट से उतरने पर।
आसमान आत्ममुग्धता का शिकार होता जा रहा है
इन दिनों इतने घरों को देखकर
दरअसल वह कचरा फेंकने की असली जगह है।
ज़मीन पर नींव खोदी जा सकती है
आसमान से सिर्फ बचा जा सकता है

ओज़ोन की परतों के सहारे।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 16 जून 2015

चश्मा

 चश्मा कितना भी सुंदर हो
आंखे कितनी भी कमज़ोर
चश्मे का मतलब दो नयी आंखों का होना नहीं होता
इसके अलावा
सही नंबर का चश्मा जरूरी है
सही नंबर की आंखो पर
सही नंबर की दुनिया देखने के लिए
चश्मे से दुनिया साफ दिख सकती है
सुंदर नहीं
कई तरह के चश्मे लगाकर भी नहीं।
आंखे नहीं हो पहली जैसी
और दुनिया हो भी
तब भी नहीं। 

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 12 जून 2015

कुछ लोग

सबसे मीठी चाय ज़रूरी नहीं
सबसे अच्छी हो स्वाद में।
सबसे ज़्यादा ज़रूरी नहीं होता
सबसे पहले कहा गया वाक्य
सबसे ऊंची या बार-बार सुनी आवाज़
सबसे सच्ची या गहरी नहीं होती
सबसे ज़्यादा चुप्पी भी हो सकती है।

सबसे ऊंची जगहें नहीं होतीं,
सबसे ज़्यादा हवादार।
सबसे छोटी कील कर देती है
दीवार को आर-पार।
सबसे मज़बूत लोहे भी
खा जाते हैं ज़ंग अक्सर।
सबसे मोटे चश्मे
नहीं देख सकते सबसे दूर तक

सबसे पुरानी किताबों में
लिखा भी न मिले शायद
सबसे भयानक, असभ्य, काले
सबसे गरीब लोगों ने ही
उगाये सबसे पहले अन्न
बनाई सबसे लंबी सड़कें
सबसे ऊंची इमारतें
सबसे प्राचीन और समृद्ध सभ्यताएं।
सबसे ज़्यादा भुला दिए गए कुछ लोग

सबसे अधिक याद आते हैं अक्सर।

निखिल आनंद गिरि

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