गुरुवार, 5 नवंबर 2015

हम जहां बचे हुए हैं..

आजकल कई पुरानी चीज़ों पर काम कर रहा हूं। घर में पड़ी पुरानी क़िताबें पढ़ रहा हूं। कई ऐसी किताबें हैं जो कभी पढ़ी ही नहीं। घर में आईं और कहीं कोने में पड़ी रहीं। पढ़े जाने के इंतज़ार में। कई पन्नों पर पुरानी, अधूरी कविताएँ दिख जाती हैं। कहती हैं, पूरा करो मुझे। याद नहीं कौन-सी कविता किस मूड में वहां तक पहुंची थी। लग रहा है जैसे कविता पूरी करने का कोई कांपटीशन कर रहा हूं ख़ुद से।
दो कहानियां पड़ी हुई हैं। एक बार फिल्म बनाने का मन हुआ था तो एक कहानी लिखी थी एक दोस्त के साथ। कहानी लगभग पूरी होकर रह गई। एक बहुत पुरानी डायरी है। कई सारे नंबर लिखे हुए हैं। मन होता है किसी अनजान नंबर को फोन मिला दूं और पूछूं क्या हाल। अगर वो पहचान ले तो शिकायत के साथ पूछूं कि इतने दिन में आपने ही फोन क्यों नहीं कर लिया। अगर न पहचाने तो कहूं कि कभी-कभी अनजान लोगों से बात करने की हॉबी है मेरी।
स्कूल के ज़माने की कुछ तस्वीरें हैं। जब नई-नई दाढ़ी आई थी चेहरे पर। अजीब-सी सादगी लग रही है ख़ुद के उस पुराने चेहरे में। अब काफी चालाक कर दिया है शहर ने। नए तरह के दोस्तों ने। पुराने रिश्तों से कई दिनों बाद गुज़रना बहुत ख़ास होता है।
अभी फेसबुक पर मैंने स्टेटस लगाया कि कुछ पैसों की ज़रूरत है। कुछ लोगों ने मज़ाक उड़ाया। कुछ ने इनबॉक्स में आकर दिल से मदद करनी चाही। ऐसे कई दोस्त जिनसे कई-कई महीनों से बात नहीं हुई, बिना शर्त पैसा देने को तैयार हो गये। इस तरह ख़ुद को परखने का ये अनुभव ठीकठाक रहा। हम दिन ब दिन जितना निगेटिव सोचते जाते हैं, ऐसे कुछ मीठे अनुभव भीतर से ताक़त देते हैं। मदद की पेशकश महिला मित्रों की तरफ से ज़्यादा आई। बहन, प्रेमिका, मां तक का हक़ जताकर उन्होंने मदद करनी चाही। मैं उन सबका शुक्रगुज़ार हूं।
ये एहसास ही बहुत है कि आप कई पुराने रिश्तों में अब भी बचे हुए हैं। जहां नहीं बचे हैं या जिन रिश्तों ने ठुकरा दिया, उनको मुंहतोड़ जवाब की तरह। मैं बचा रहूंगा एक उम्मीद की तरह।
आमीन!

निखिल आनंद गिरि

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