छुट्टी
घर से निकला
घर से छुट्टी लेकर
दफ्तर घर हो गया।
मैं रोज़ नौ घंटे की छुट्टी
पर रहता हूं
दफ्तर में।
विकल्प
चुनना एक व्यवस्था की तरह
नहीं
व्यवस्था एक मजबूरी की तरह
जैसे हरे और पीले में चुनना
हो लाल।
यह रंगों की अश्लीलता नहीं
व्यवस्था का अपाहिज होना है।
निखिल आनंद गिरि
बहुत अच्छी कविता
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