सीढियां कहीं नहीं जाती
कोई कंपन, कोई धड़कन
नहीं उनकी शिराओं में
वो चुपचाप सुनती हैं
धम्म से चढ़ते हैं पैर उनकी छाती पर
और चले जाते हैं रास्ता बनाते।
सीढियां रास्ता नहीं हैं
इसीलिए टूटने लगी हैं।
जो सीढ़ियों की छाती पर चढ़ते हैं
उनसे सविनय निवेदन है
सीढ़ियों को कुछ रोज़ के लिए अकेला छोड़ दें।
उन्हें टूटने का डर नहीं
दुख है फिर से जोड़े जाने का
जोड़ा जाना सहानुभूति नहीं है
स्वार्थ है छातियां रौंदने का।
निखिल आनंद गिरि
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिखा..
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