बुधवार, 21 सितंबर 2011

ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया...

खुशबू के नाम पर हुए सौदे बहार में
छुपना पड़ा गुलों को भी दामाने-ख़ार में

बरसों के बाद टूटा वो तारा फ़लक से रात,
फिर से हुआ सुकून बहुत, इंतज़ार में...

ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया
कुछ तो कमी ही थी मां के दुलार में...

एक रोज़ ख़ाक होंगे सभी जीत के सामान
रखा नहीं है कुछ भी यहां जीत-हार में...

वहशी हुए तो घर में ही करने लगे शिकार
जंगल से ही उसूल भी लेते उधार में..

सब रहनुमाओं ने किए अपने पते भी एक
मिलना हो आपको तो पहुंचिए तिहाड़ में...

जिस फूल की तलब में गुज़री तमाम उम्र
वो फूल ही आया मेरे हिस्से, मज़ार में...

निखिल आनंद गिरि

 

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरती के साथ शब्दों को पिरोया है इन पंक्तिया में आपने

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  2. गज़ब के शेर ……………शानदार गज़ल्।

    जवाब देंहटाएं
  3. हर शेर हर रंग अलग खुशबू का .... मेरा पसंदीदा
    जिस फूल की तलब में गुज़री तमाम उम्र
    वो फूल ही आया मेरे हिस्से, मज़ार में...

    जवाब देंहटाएं
  4. सब रहनुमाओं ने किए अपने पते भी एक
    मिलना हो आपको तो पहुंचिए तिहाड़ में...


    वाह

    जवाब देंहटाएं
  5. शेर भी गज़ब और दीपक बाबाजी का दिया विस्तार भी गज़ब।

    जवाब देंहटाएं
  6. तिहाड़ वाला शेर बढ़िया पर माँ के दुलार वाला ज़रा ठीक नहीं लगता. क्या कहना है निखिल आप को इस शेर में?

    जवाब देंहटाएं
  7. मुझे तो ठीक लगता है...बल्कि तिहाड़ वाला ही ज़बरदस्ती डाला गया लगता है बाकी शेरों के बीच...

    जवाब देंहटाएं
  8. वहशी हुए तो घर में ही करने लगे शिकार
    जंगल से ही उसूल भी लेते उधार में.

    bahut umda ..................saare hi .

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  9. आलोक,
    कहां से इंपोर्ट कराकर लाए हो ये शब्द...

    जवाब देंहटाएं

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