बुधवार, 18 मई 2011

एक दिल का दर्द, दूजे की दवा होता रहा...

रात कमरे में न जाने क्या से क्या होता रहा,
अजनबी इक दोस्त हौले से ख़ुदा होता रहा...
सारे मरहम, सब दवाएं हो गईं जब बेअसर
एक दिल का दर्द, दूजे की दवा होता रहा...
चांद के हाथों ज़हर पीना लगा थोड़ा अलग,
यूं तो अपनी ज़िंदगी में हादसा होता रहा...
एक ज़िंदा लाश को उसने छुआ तो जी उठी..
रात भर पूरे शहर में मशवरा होता रहा...
पांव रखने पर ज़मीनों के बजाय सीढ़ियां...
शहर के ऊपर शहर, ऐसे खड़ा होता रहा
तुमको महफिल से गए, कितने ज़माने हो गए
फिर भी अक्सर आइने में, सामना होता रहा
घर के हर कोने में, भरती ही रही रौनक 'निखिल'
मां अकेली ही रही, बेटा बड़ा होता रहा.....

निखिल आनंद गिरि

10 टिप्‍पणियां:

  1. क्या कहूँ गज़ब कर दिया हर शेर बेशकीमती आईना दिखाता हुआ।

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  2. निखिल बहुत बढ़िया गज़ल है. लेकिन इस शेर का अर्थ मैं समझ ही नहीं पाया:

    एक ज़िंदा लाश को उसने छुआ तो जी उठी..
    रात भर पूरे शहर में मशवरा होता रहा...

    बाकी सब शेर एक से बढ़ कर एक.

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  3. मां अकेली ही रही, बेटा बड़ा होता रहा.....

    काश वो बेटा समझे अपने बड़े होने के साथ माँ के बूढ़े होने की हकीकत को

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  4. यह एक ऐसी संवेद्य ग़ज़ल है जिसमें हमारे यथार्थ का मूक पक्ष भी बिना शोर-शराबे के कुछ कह कर पाठक को स्पंदित कर जाता है।
    बहुत अच्छी ग़ज़ल, जो दिल के साथ-साथ दिमाग़ में भी जगह बनाती है।

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  5. हर शेर अपने आप में कम्पलीट गज़ल है...

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  6. achhi likhi hai. mzedaar baat to ye hai ki ek bs mujhe pta hai ki who iz d inspiration behind dis poem.

    now i can hope cake cut gya hoga.. q?

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  7. bharam....!!!!!!!!!!!! ufff....... yhi sahi!ab jo ap keh de sch hi hoga.

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