आपको दाल-भात लगती है।
हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे,
अब तो बीती-सी बात लगती है।
एक ही रात लुट गया सब कुछ,,
दुनिया अब रात-रात लगती है।
आप कहते हैं डेमोक्रेसी है,
हमको चमचों की जात लगती है।
निखिल आनंद गिरि
भोले सपनों वाली मछलियां...
किसी जलपरी की तरह,
चीरा बनाती हुई जगह ढूंढती हैं बस में....
और बस जलाशय तो नहीं...
कान में ज़बदरस्ती ठूंसे गए तार..
जैसे किसी और ग्रह में प्रवेश...
जहां ताड़ती हैं अनजान निगाहें,
लपकते हैं दो हाथ वाले ऑक्टोपस
पीठ के बजाय सीने पर लटकाए हुए बैग...
कंगारू की तरह....
वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं
जिन्हें सिर्फ पीठ पर उबटन लगाना है शादी में..
अगर नहीं हो सकी मनचाही शादी...
उन्हें रखने हैं अपनी सात पीढ़ियों के नाम
सिर्फ ‘क’ से
बिना किसी ज्योतिषी से पूछे
उऩ्हें उतरना है किसी सरकारी कॉलेज के गेट पर,
कॉलेज की दीवारों पर लिखे हैं इश्तेहार
‘दो हफ्ते की खांसी टीबी हो सकती है’
‘शादी में असफल यहां फोन करें...’
शादी के लिए सबसे अच्छी फोटो नहीं,
सबसे अच्छे दिल लेकर आइए...
ऐसा कहीं नहीं लिखा दीवारों पर
बस निहारती है उनकी पीठ...
पीठ बूढ़ी नहीं होती...
स्तन बूढे होते हैं,
योनि नहीं होती बूढी....
प्राथनाएं होती हैं बूढ़ी...
और मर जाती हैं बस से उतरते ही..
निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)
जब ठठाकर हंस देती है सारी दुनिया,
बिना किसी बात पर..
अचानक कंधे पर बैठ जाती है गौरेया
कहीं किसी अंतरिक्ष से आकर..
चोंच में दबाकर सारा दुख
उड़ जाती है फुर्र..
फिर न दिखती है,
न मिलती है कहीं..
मगर होती है
सांस-दर-सांस
प्रेम की तरह..
जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...