‘लूटेरा’ अगर कनॉट प्लेस के रीवोली या राजौरी गार्डेन के
मूवीटाइम में देखी होती तो सीधा फिल्म के बारे में बात करता। मगर फिल्म देखी
समस्तीपुर के भोला टॉकीज में, तो थोड़ी-सी बात फिल्म देखने के माहौल पर भी। कई साल
बाद किसी छोटे शहर में फिल्म देखी। सिंगल स्क्रीन थियेटर में। दिल्ली में टिकट के
दाम से दस गुना सस्ता। कोई एडवांस बुकिंग, नेट बुकिंग, प्रिंट आउट या एसएमएस
बुकिंग नहीं। सीधा काउंटर पर जाइए और टूटी-फूटी मैथिली में बात करते ही रसीद वाला
टिकट हाथ में। कोई थैंक्यू या हैव ए गुड डे का चक्कर भी नहीं। बस
ऐसे सिनेमाघरों में दिक्कत ये है कि आपको हर डायलॉग कान लगाकर सुनना पड़ेगा वरना
आप डायलॉग और संगीत के मामले में आधी फिल्म देखकर ही घर वापस जाएंगे।
मैं व्याकरण का विद्यार्थी नहीं, मगर मेरे ज्ञान के हिसाब से छोटी ‘उ’ वाला ‘लुटेरा’ हिंदी का शब्द लगता है। फिल्म के टाइटल में दिख
रहा ‘लूटेरा’ अंग्रेज़ी के ‘लूट’ में ‘रा’ को सीधा चिपकाया
गया लगता है। शायद अंग्रेज़ी पढ़ने वाले दर्शकों को इस ‘लूट’ में ज़्यादा अपनापन लगता हो। हालांकि, इस तरह के
टाइटल सिंगल स्क्रीन दर्शकों को ज़्यादा भाते रहे हैं। लुटेरा, डाकू हसीना, बंदूक
की कसम, चोर-पुलिस टाइप फिल्में बी ग्रेड हिंदी सिनेमा से होती हुईं आए दिन
भोजपुरी में बनती हैं। और उनमें जो-जो ‘कर्म’ होते हैं, शायद वही सब देखने की उम्मीद लिए यहां
के दर्शक इस बार भी लुटेरा के लिए जुटे होंगे। मगर, निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी
कोई कांति शाह तो हैं नहीं कि टाइटल लुटेरा रखें तो उसमें इज़्जत लूटने का सीन भी
रखना लाजमी हो। सोनाक्षी सिन्हा को फिल्म में लेना उनकी मार्केटिंग मजबूरी हो सकती
है मगर उनसे सन ऑफ सरदार या राउडी राठौर से हटकर भी बहुत कुछ करवाया
जा सकता है।
समस्तीपुर के भोला टॉकीज पर दर्शकों की फ्रीक्वेंसी के हिसाब से लूटेरा
एक महा फ्लॉप फिल्म है। रिलीज़ के दूसरे दिन तीस रुपये की टिकट खरीदकर फिल्म देखने
वाले तीस लोग भी नहीं थे। टिकट लेने से पहले भोला टॉकीज़ में 17-18 साल से प्रोजेक्टर
चला रहे वाले शशि कुमार से दोस्ती हुई। उन्होंने बताया कि इस फिल्म के नाम और
सोनाक्षी की वजह से ही फिल्म लगाने का रिस्क लिया गया, वरना भोजपुरी फिल्मों के
अलावा यहां आशिकी 2 ही है जो हाल में अच्छा बिजनेस कर सकी थी।
उन्होंने लगभग चेतावनी भी दी कि रिलीज़ के बाद हर शो में हॉल एकाध घंटे में ही
खाली हो गया है, इसीलिए टिकट सोच-समझकर कटाइए(खरीदिए)।
ख़ैर, हॉल में कम लोगों का होना हम जैसों के लिए अच्छा ही है। कम
सीटियों-तालियों और गालियों के बीच ज़्यादा आराम से फिल्म देखी जा सकती है। वरना
सोनाक्षी और रनबीर जब प्यार के सबसे महीन पलों में एक-दूसरे के करीब आ रहे थे और
रनबीर ने आखिर तक खामोश रहकर ‘कुछ’ नहीं किया, तो ऑडिएंस में से कमेंट सुनने को मिला
कि साला सकले से (शक्ल से ही) बकलोल लग रहा है। या फिर फिल्म के
क्लाइमैक्स में जब रनबीर जबरदस्ती सोनाक्षी को बचाने के लिए इंजेक्शन लगाना चाहते
हैं और गुत्थमगुत्था होते हैं तो कमेंट सुनने को मिलता है कि ‘एतना (इतनी) देर
में तो भैंसी (भैंस) भी सूई लगा लेती है’।
तो मिस्टर विक्रमादित्य मोटवानी, आप जब कैमरे के ज़रिए प्यार की सबसे
शानदार पेंटिंग गढ रहे होते हैं, दिल्ली-मुंबई से बहुत दूर दर्शक कुर्सियां
छोड़-छोड़ कर जा रहे होते हैं या फिर आपको जी भर कर कोस रहे होते हैं। पहले ‘उड़ान’ और अब ‘लूटेरा’ से आप सिनेमा को नई क्लासिक ऊंचाइयों पर ले जाने
को सीरियस दिखते हैं और इधर पब्लिक है जो आशिकी 2 को दोबारा-तिबारा देखना चाहती
है। इस हिम्मत के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई। हम जैसे दर्शक हमेशा आपके साथ हैं।
स्कूल के दिनों में ‘द लास्ट लीफ’ पढ़ी थी। कभी सोचा नहीं था कि हिंदी सिनेमा में
उसे पर्दे पर भी उतरता हुआ देखूंगा। वो भी इतनी ख़ूबसूरती से। एक ही फिल्म में ओ
हेनरी की कहानी से लेकर बाबा नागार्जुन तक की कविता सुनने को मिलेगी। मगर, प्रयोग
के नाम पर इतना ही बहुत था। पीरियड फिल्मों में ग्रामोफोन ही अच्छे लगते हैं,
सोनाक्षी बिल्कुन नहीं। ठीक है कि आपने उनसे एक्टिंग कराने की पूरी कोशिश की है,
मगर इंडस्ट्री में अच्छे कलाकारों की कमी तो है नहीं। फिर रनबीर के साथ उनकी जोडी
कम से कम मुझे तो नहीं जंची। सोनाक्षी को क्लोज़ अप से बाहर देखिए तो रनबीर से ओवर
एज लगती हैं। सोनाक्षी एक ज़मींदार की अल्हड़ बेटी से ज़्यादा कोई ‘सेडक्टिव’ ठकुराईन लगती हैं।
और रनबीर भी गंभीर दिखने के नाम पर भीतरघुन्ना टाइप एक्टर लगते हैं। 50 के दशक
वाली बॉडी लैंग्वेज उनमें चाहकर भी नहीं आ पाती। अच्छी एक्टिंग का मतलब जबरदस्ती
की चुप्पी तो नहीं होती। हालांकि, दोनों ने उम्मीद से ज़्यादा अच्छा काम किया है,
मगर ये और अच्छा हो सकता था। आप साहित्य को सिनेमा पर उतार रहे थे तो मार्केट
मैकेनिज़्म बीच में कहां से आ गया। ये तो हिंदी साहित्य का हाल हो गया कि आप कोई
मास्टरपीस लिखना चाह रहे हों और अचानक किसी ऐसे पब्लिशर की तलाश करने लगें जो आपकी
गोवा या स्विट्ज़रलैंड की ट्रिप स्पांसर कर दे क्योंकि वहां का मौसम अच्छा लिखने
में मदद करता है।
कहानी के नाम पर इस फिल्म की जड़ें भी सदियों पुरानी है। वही प्रेम
कहानी, वही मिलना-बिछुड़ना, वादा तोडना-निभाना। मगर कैमरा इतनी खूबसूरती से कहानी
कहता है कि आप उसमें ख़ुद को महसूस करने लगते हैं। लोकेशन्स देखकर कई जगह तो आपको
लगेगा कि आप कोई ख़ूबसूरत-सी ईरानी मूवी देख रहे हैं। या फिर स्क्रीन प्ले और
डीटेलिंग देखकर कभी-कभी बंगाली सिनेमा का महान दौर भी आंखों में तैरने लगता है। इंटरवल
के आसपास तक की फिल्म एक अलग टाइम और स्पेस में चलती है। उसके बाद आपको लगेगा आप
किसी और फिल्म में आ गए हैं। ये एक हुनरमंद डायरेक्टर की पहचान है। हालांकि, जब
नैरेटिव इतना धीमा और पोएटिक ही रखना था तो अचानक मुझसे प्यार करते हैं वरुण
बाबू जैसे डायलॉग्स बहुत
सपाट और ‘फिल्मी’ लगते हैं। और ये भी समझना मुश्किल है कि अरबों की
मिल्कियत संभालने वाले जमींदार पिता हिंदी सिनेमा में अक्सर इतने भोले क्यों होते
हैं कि उन्हें अपने घर में ही पनप रही प्रेम कहानियों की भनक तक नहीं लग पाती।
‘लूटेरा’ एक तरह से प्यार
को नए ढंग से परिभाषित करती है। इस तरह के अलहदा प्यार को देखने-समझने-जीने के लिए
फिल्म ज़रूर देखें। वक्त के सांचे में ढलकर भी सच्चा प्यार ख़त्म नहीं होता। और
प्यार किसी लुटेरे के दिल में भी हो तो प्यार ही रहता है। फिल्म एक खलनायक के
प्यार को जस्टीफाई करती है। खलनायक ऐसा नहीं जिससे आप नफरत करें। आप उसके पक्ष में
खड़े होते हैं। और प्रेमिका भी खलनायक के धोखे के खिलाफ है, मगर आखिर तक प्यार के
साथ खड़ी रहती है। एक छोर से नफरत की डोर थामे। हम भारतीय सिनेमा में क्लाइमैक्स
पूरा देखने के आदी हैं। इससे विक्रमादित्य भी बच नहीं सके हैं। बेहतर होता कि सूखे
पेड़ पर वरुण के आखिरी पत्ती लगाने के साथ ही क्रेडिट्स शुरू हो जाते। बेहतर होता
कि सब कुछ अधूरा रह जाता। वरुण को अपना प्यार साबित करने का मौका आधा ही मिलता।
प्यार में कसक बाक़ी न रह जाए तो तसल्ली अधूरी रहती है। कहानी वही अच्छी जिसके
दौरान साइलेंस (मौन) और बाद में रेज़ोनेंस (प्रतिध्वनियां) बाक़ी रहे।
फिल्म का निर्देशन इतना बेहतरीन है कि फिल्म स्कूलों में इसे टेक्स्ट की
तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। कहानी में कैरेक्टर बढ़ाने का स्कोप ही नहीं था,
फिर भी दो-सवा दो घंटे की फिल्म में बांधे रख पाना बडा काम है। म्यूज़िक से लेकर
गाने और साइलेंस तक का इतनी बारीकी से इस्तेमाल हुआ है कि आप जमे रहते हैं। 50 के
दौर को जिंदा करने के लिए तब की सुपरहिट फिल्म बाज़ी के गाने का
बार-बार इस्तेमाल सदाबहार देव आनंद को श्रद्धांजलि जैसा है। विक्रमादित्य इस दौर
के बेहतरीन निर्देशक साबित हो चुके हैं। बस ज़रूरत है उन्हें अपने सिनेमा के जरिए
कुछ नए सब्जेक्ट पर काम करने की, जिसमें सिर्फ प्रेम कहानी नहीं हो।
लूटेरा’ कई हिस्सों में ‘उड़ान’ से भी बेहतर है, मगर उड़ान नहीं
है। आपकी मास्टरपीस तो वही है।
निखिल आनंद गिरि
वाह! आपने तो अपने ब्लॉग पोस्ट से ही मुझे मूवी दिखा दी। यदि विक्रमादित्य ने लुटेरा बहुत अच्छे से बनाई, तो आपकी समीक्षा जनसत्ता के दिव्यचक्षु, हिन्दुस्तान के विशाल ठाकुर और बाकी अखबारों की मैंने पढ़ी नहीं--,से बहुत कलात्मक बिलुकल पिक्चर जैसी ही है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समीक्षा.. ऐसा लगा जैसे बिना देखे ही फिल्म को समझ गये.....
जवाब देंहटाएंbahut हद तक सहमत आपसे ..पर फिर भी इस फिल्म को देखना अच्छा लगा :)पढ़े हुए बंगाली उपन्यास के बहुत करीब सा
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा भी कम रोचक नहीं ..मेरे लिए तो वैसे भी ख़ास हो गयी क्यूंकि समस्तीपुर के भोला टॉकीज़ में कई सारी फ़िल्में देखी हैं ,पर आज से पच्चीस साल पहले .भोला टॉकीज़ के ठीक सामने मेरी एक फ्रेंड रहती थी, जिसे मैं कई सालों से ढूंढ रही थी कोई समस्तीपुर का भी जिक्र करता तो मैं उस से जान-पहचान बढाने लगती कि शायद वो मेरी फ्रेंड का पता बता दे...आपने तो भोला टॉकीज़ का भी जिक्र कर दिया ...पर दो साल पहले इंटरनेट की मेहरबानी से मेरी फ्रेंड मुझे मिल गयी.
जवाब देंहटाएंअब आते है फिल्म की तरफ...उड़ान मुझे बेहतरीन फिल्म लगी थी और मैंने भी फिल्म देखते ही एक लम्बी पोस्ट लिख डाली थी. लुटेरा अभी नहीं देखी..पर काफी चर्चा सुन रही हूँ...देखनी तो है ही .फिल्म देखते वक़्त आपके द्वारा जिक्र किये गए पॉइंट्स पर नज़र रहेगी.
पर आपकी एक बात से सहमत नहीं हूँ,
कि साहित्य को सिनेमा में उतारते समय मार्केट को बिलकुल ही भूल जाया जाए .
अगर उन्होंने बिलकुल ही कम्प्रोमाइज़ नहीं किया होता तो फिर यह फिल्म डब्बे में ही बंद रह जाती .आप हम यहाँ इस फिल्म की चर्चा नहीं कर रहे होते. निर्देशक की तारीफ़ की जानी चाहिए कि वह मार्केट वैल्यू को ध्यान में रखते हुये भी इतनी ख़ूबसूरत फिल्म बना पाया.
कहानी वही अच्छी जिसके दौरान साइलेंस और बाद में रेजोनेंस बाकी रहे। रोचक, बेहतरीन समीक्षा।।।
जवाब देंहटाएंलुटेरा पर (http://filmihai.blogspot.in/2013/07/blog-post_11.html)वाले अंकुर जैन की समीक्षा भी पढ़ें।
जवाब देंहटाएंShukriya
जवाब देंहटाएंआज आप जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे स्तम्भ में (इलाज के धन्धे) शीर्षक के साथ उपस्थित हैं।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया विकेश जी..लगातार नजर बनाए रखने के लिए..उस पोस्ट को ब्लॉग पर डालता हूं..
जवाब देंहटाएंbese sab ke dekhne ka tarika hota hai nagariya hota hai par lutera ne mera dil to luta hai .mene socha bhi nhi tha ki movie itni bekar hogi .achhha likha hai ap ne likhte rahiye .
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा भी कम रोचक नहीं ..मेरे लिए तो वैसे भी ख़ास हो गयी क्यूंकि समस्तीपुर के भोला टॉकीज़ में कई सारी फ़िल्में देखी हैं ,पर आज से पच्चीस साल पहले .भोला टॉकीज़ के ठीक सामने मेरी एक फ्रेंड रहती थी, जिसे मैं कई सालों से ढूंढ रही थी कोई समस्तीपुर का भी जिक्र करता तो मैं उस से जान-पहचान बढाने लगती कि शायद वो मेरी फ्रेंड का पता बता दे...आपने तो भोला टॉकीज़ का भी जिक्र कर दिया ...पर दो साल पहले इंटरनेट की मेहरबानी से मेरी फ्रेंड मुझे मिल गयी.
जवाब देंहटाएंअब आते है फिल्म की तरफ...उड़ान मुझे बेहतरीन फिल्म लगी थी और मैंने भी फिल्म देखते ही एक लम्बी पोस्ट लिख डाली थी. लुटेरा अभी नहीं देखी..पर काफी चर्चा सुन रही हूँ...देखनी तो है ही .फिल्म देखते वक़्त आपके द्वारा जिक्र किये गए पॉइंट्स पर नज़र रहेगी.
पर आपकी एक बात से सहमत नहीं हूँ,
कि साहित्य को सिनेमा में उतारते समय मार्केट को बिलकुल ही भूल जाया जाए .
अगर उन्होंने बिलकुल ही कम्प्रोमाइज़ नहीं किया होता तो फिर यह फिल्म डब्बे में ही बंद रह जाती .आप हम यहाँ इस फिल्म की चर्चा नहीं कर रहे होते. निर्देशक की तारीफ़ की जानी चाहिए कि वह मार्केट वैल्यू को ध्यान में रखते हुये भी इतनी ख़ूबसूरत फिल्म बना पाया.
RASHMI RAVIJA