जब ठठाकर हंस देती है सारी दुनिया,
बिना किसी बात पर..
अचानक कंधे पर बैठ जाती है गौरेया
कहीं किसी अंतरिक्ष से आकर..
चोंच में दबाकर सारा दुख
उड़ जाती है फुर्र..
फिर न दिखती है,
न मिलती है कहीं..
मगर होती है
सांस-दर-सांस
प्रेम की तरह..
ओ मृत्यु! तुम क्या किसी गलत द्वार आई थी हमने तो नहीं बुलाया था तुम्हें न ही दरवाज़े पर थी किसी दस्तक की आवाज़ दबे पांव कौन आता है संगिनी के ...
वाह निखिल जी....
जवाब देंहटाएंचंद पोस्टों तक जाती एक गली , जिसमें हमने आपका एक ठिकाना भी सहेज़ लिया है , और उसके साथ एक मुस्कुराहट के लिए चंद शब्द जोड दिए हैं , आइए मिलिए उनसे और दोस्तों के अन्य पोस्टों से , आज की ब्लॉग बुलेटिन पर
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