अन्ना के नेतृत्व में देश भर में जिस तरह एक आंदोलन जैसी तस्वीर बनी है, उस पर वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश का ये लेख...हरिवंश जी झारखंड के सबसे चर्चित दैनिक प्रभात ख़बर के प्रधान संपादक हैं...
अन्ना के आंदोलन को समाज कैसे देखता है? एक नमूना. एक मित्र हैं, हमारे. एक होटल में मामूली कर्मचारी. ओर्थक शब्दावली में, इस देश के निम्न आयवर्ग में से एक. ईमानदार. घोर परिश्रमी हैं. अपढ़ परिवार से. पर अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए रात-दिन खटते हैं. राजनीतिक रूप से अत्यंत सचेत हैं. 15 अगस्त को मिले. अखबार में हूं, तो वह मन की बात शेयर (साझा, बांटना या कहना) करते हैं.
पूछा, अन्ना क्यों आंदोलन कर रहे हैं? मैं उनका चेहरा देख रहा था. फ़िर खुद बोले. उनके न बाल-बच्चे हैं. न परिवार है. न कोई सगा-संबंधी. न उनका अपना कोई बैंक अकाउंट (खाता) है. फ़िर किसके लिए वह लड़ रहे हैं? फ़िर खुद ही बताया. पहले वह अपने गांव (रालेगांव, सिद्धी, महाराष्ट्र) के लिए लड़े. सबको साथ लेकर. गांव को संपन्न बनाया. शराबबंदी करायी. जो भारतीय मूल्य-संस्कार खत्म हो रहे हैं, उन्हें गांव में बोया. अब वह देश का अनोखा सुंदर और समृद्ध गांव है.
क्या आज के एक राजनेता ने भी ऐसा एक गांव बना कर दिखाया है? अपना गांव ठीक करने के बाद वह महाराष्ट्र सरकार के भ्रष्टों से लड़े. शिव सेना, बीजेपी से लड़े. अब वह देश के लिए लड़ रहे हैं. फ़िर ऐसे आदमी को, जिसका अपना कोई स्वार्थ नहीं है, न परिवार है, न बाल-बच्चा, न निजी एजेंडा है, जो गांव-समाज, राज्य और देश के लिए जीवन उत्सर्ग करने को तैयार है, उसे सत्याग्रह की इजाजत क्यों नहीं? फ़िर उस मित्र ने कहा कि क्या गांधी जी के देश में सत्याग्रह, आंदोलन, धरना पर प्रतिबंध लग गया है. अगर आज के शासक अंगरेजों की जगह होते, तो क्या गांधी का उदय हुआ होता? अपने मित्र के सवालों का जवाब नहीं दे पाया.
टीवी पर अन्ना के दृश्य देखकर वह सवाल पूछ रहे थे. याद आया गांधी के बारे में एक अंगरेज आइसीएस की गोपनीय टिप्पणी. जो तत्कालीन सरकार को भेजी गयी थी. उसका आशय था, उस इंसान से लड़ना सबसे खतरनाक है, जिसका अपना कोई निजी एजेंडा नहीं है. अन्ना का मामला भी कुछ वैसा ही है. आम लोगों की निगाह में. जो अपने लिए नहीं लड़ता. जिसका न निजी लक्ष्य है, न धन-भूख व भोग की लालसा, न बाल-बेटा, न परिवार के सात पुश्तों के लिए बंदोबस्त की अभिलाषा, न संबंधी या रिश्तेदारों के लिए जागीर बनाने की बेचैनी, न स्विस या विदेशी बैंक में धन जमा करने की योजनाएं. तो उसके खिलाफ़ आप या सत्ता क्या लड़ेंगे? लोगों के मन में सवाल है कि जो कुछ कर रहे हैं, वह किसके लिए कर रहे हैं? देश के लिए ही न! हम सबके लिए ही न! लोग (बकौल मेरे मित्र) यह भी कहते हैं कि अन्ना नेता तो हैं नहीं. न विधायक हैं, न सांसद हैं. इसलिए उनके पास न विधायक फ़ंड है. न सांसद फ़ंड (सालाना पांच करोड़). इस तरह वह समाज के लिए जो कुछ कर रहे हैं, उसके लिए देश से पैसा तो नहीं लेते, न वेतन लेते हैं, न तनख्वाह लेते हैं. पर बात वह देश व गरीबों की कर रहे हैं. इस स्थिति में लोग जानना चाहते हैं कि फ़िर देश की असल चिंता करने वाले कौन हैं?
राजनीतिज्ञ या अन्ना जैसे लोग? मेरे मित्र का निजी दर्द था, मेरे पास एक टुटहा स्कूटर है. उसमें तेल और लुब्रिकेंट के दाम पिछले कुछ-एक वर्षो में कितने बढ़ गये हैं, क्या यह सरकार चलाने वालों या विपक्ष में बैठे लोगों को मालूम है, महंगाई कितनी बढ़ गयी है? क्या इसकी खबर इस देश की संसद को है? क्या इतना भ्रष्टाचार कभी हुआ? भ्रष्टाचार के कारण ही तो महंगाई बढ़ी है. अब अगर अण्णा भ्रष्टाचार कम करने की बात कर रहे हैं या उसके लिए आंदोलन चला रहे हैं, तो वह गलत कैसे? मेरी टिप्पणी थी, इतने गुस्से में क्यों हैं? धैर्य से बताया कि कल अन्ना गिरफ्तार हो जायेंगे? फ़िर आंदोलन खत्म हो जायेगा? उस साधारण इनसान का जवाब था, आप भूल रहे हैं.
1942 में गांधी पकड़े गये, तो 1947 में देश आजाद हुआ. 1974 में जेपी का आंदोलन शुरू हुआ, तो 1977 में कांग्रेस केंद्र से साफ़ हुई. इसलिए अन्ना की गिरफ्तारी का असर अपरिहार्य सच है. उससे राजनीतिज्ञों को मुसीबत होगी. उनके आंदोलन ने लोगों का मन और दिल छुआ है. यह दिल की बात है, दिमाग की नहीं. जो बात दिल को छूती है, उसकी प्रतिक्रिया भी देर से मिलती है, पर मिलती जरूर है. आज जब अन्ना की गिरफ्तारी के बाद देशव्यापी प्रतिक्रिया हुई, तो मुङो अपने मित्र की 15 अगस्त की कही बात याद आयी. यह प्रतिक्रिया पूरी राजनीतिक व्यवस्था के लिए चेतावनी है. एक गंभीर संकेत भी. अन्ना के पास न अपना संगठन है, न राजनीतिक दल है, न धन है, न लोग हैं. राष्ट्रीय क्षितिज पर उनका उदय बमुश्किल वर्ष-दो वर्ष पुराना है. एक तरह से वह एक अकेले इनसान हैं, जिनके पीछे कोई संगठित ताकत नहीं है. न कोई जमा-जमाया संगठन बल, तब देश में उनके पक्ष में इतनी बड़ी प्रतिक्रिया कैसे दिखी?
अब नये लोग राजनीति से जुड़ रहे हैं. सारे राजनीतिक दलों के सक्रिय सदस्यों को जोड़ दें, नक्सल और आरएसएस तक या इन जैसे संगठनों के लोगों को भी शामिल कर लें, तो देश की 121 करोड़ की आबादी में से, इन सारे संगठनों से जुड़े सक्रिय कार्यकर्ता अधिकतम पांच-सात करोड़ होंगे. 121 में से यह सात करोड़ घटा दें. 114 करोड़ की आबादी भारतीय राजनीति से बाहर बसती है. अन्ना की कांस्टीच्यूयंसी (समर्थक वर्ग) इस 121 करोड़ में है. उनके अभियान में नये लोग राजनीति से जुड़ रहे हैं. नया मध्य वर्ग जुड़ रहा है. नये युवा शरीक हो रहे हैं. अगर यह आंदोलन पसरा, तो बड़ी संख्या में बेरोजगार या इस व्यवस्था से क्षुब्ध लोग भी जुड़ेंगे. यह वर्ग पहले वोट नहीं देता था, राजनीति से नफ़रत करता था, अब यह वर्ग राजनीति से जुड़ा, तो शासन का गणित बदल जायेगा. फ़र्ज करिए, देश की मौजूदा राजनीति की जो नियति पांच-सात करोड़ लोग अब तक तय कर रहे थे, अगर उनमें दस-बीस करोड़ नये लोग शरीक हो गये, तो हालात क्या होंगे? अन्ना के आंदोलन की एक और खासियत. आइडियोलोजी (विचार), राजनीति, संगठन से युवा विमुख हो रहे थे.
खासतौर से 1991 के उदारीकरण की अर्थनीति के बाद. अन्ना के आंदोलन ने उस वर्ग को भी उद्वेलित किया है. नाटक से, संगीत से, थियेटर से, सड़क पर अभिनय-नुक्कड़ नाटक से आंदोलन में जान डालने का काम देश में दो-तीन दशकों बाद हो रहा है. ये सारी ताकतें या नये प्रयोग या संकेत या हस्तक्षेप, आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति का प्रोफ़ाइल व चेहरा बदल देंगे. इस आंदोलन ने नब्ज पर हाथ डाला है. हाल ही में ‘स्टेट ऑफ़ द नेशन सर्वे’ हुआ. उस सर्वे की महत्वपूर्ण बात है, यह निष्कर्ष कि भ्रष्टाचार कैसे बड़ा मुद्दा है? 1972 से भी अधिक, इस आंदोलन को समर्थन है. ये तथ्य आने वाले दिनों में राजनीति को गहराई से मथेंगे. बदलेंगे.
मेरे मित्र की एक और टिप्पणी थी. चूंकि वह होटल में रहते हैं, तो टीवी खूब देखने को मिलता है. इसलिए हालात से वाकिफ़ हैं. कहा, कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी का बयान आपने सुना सर? प्रश्नवाचक चेहरा देखकर बोला. जरा देख लीजिए. अन्ना को वह कह रहे हैं कि ‘तुम’ किस हैसियत से भ्रष्टाचार के सवाल उठाते हो. मेरे मित्र का आशय 14 अगस्त को कांग्रेस संगठन व सरकार द्वारा अन्ना पर हमलावर रुख और आरोपों से था. आरोपों से अधिक भाषा से. कहा, सर, दोनों की उम्र देखी है आपने. क्या अन्ना को उन्हें ‘तुम’ कहना चाहिए? अण्णा की शादी हुई रहती, तो उनके पोते मनीष तिवारी की उम्र के होते. फ़िर मेरे मित्र ने सुनाया. मेरे होटल में दो-तीन पढ़े लोग आपस में बात कर रहे थे कि कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी पेशे से वकील हैं. गृह मंत्री पी चिदंबरम भी वकील हैं. कांग्रेसी अभिषेक मनु सिंघवी भी वकील हैं. कपिल सिब्बल साहब भी वकील हैं. गांधीजी कहा करते थे कि जिस समाज में वकील और डॉक्टर अधिक हो जायें, वह समाज बीमार होता है, तो क्या कांग्रेस में वकीलों की भरमार उस महान संस्था की क्षय का प्रतीक नहीं? वकीलों की तो कीमत तय होती है. जो फ़ीस दे, वह उनसे अपने पक्ष में बात कराये. (सिद्धांतवादी, प्रतिबद्ध व आदर्शवादी वकील कृपया मेरे मित्र की इस राय को क्षमा करेंगे, यह वैसे लोगों पर लागू नहीं है.)
मेरे मित्र के अनुसार अण्णा को ‘तुम’ कहने के लिए या अपशब्द कहने के लिए माफी मिले, तो कहने वाले कहेंगे ही. उसने कहा कि होटल में वही दो लोग बात कर रहे थे कि केरल में, केरल की यूडीएफ़ सरकार ने (जिसमें मुख्य दल कांग्रेस है) एक कंपनी पर भ्रष्टाचार व धोखाधड़ी का मामला दायर किया है. वहां कांग्रेसी सरकार उस कंपनी के खिलाफ़ लड़ रही है. पर उस कंपनी के पक्ष में कांग्रेस के ही एक केंद्रीय प्रवक्ता वकील अदालत में बहस कर रहे हैं. अब आप ही बताएं कि ऐसे परस्पर विरोधी चरित्र के लोग अगर कांग्रेस जैसी संस्था में होंगे, तो उसका भविष्य क्या होगा? मेरे मित्र का यह भी निष्कर्ष था. अण्णा धोती, कुरता व गांधीवादी टोपी पहनते हैं और बात-बात में गांधी का जिक्र करते हैं, तो उन्हें गांधी दर्शन विरोधी लोग कैसे सहन करेंगे? आज लगभग सारी सरकारें (अपवादों को छोड़कर) गांधी से दूर निकल गयी हैं.
प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने भाषण में 13 मिनट भ्रष्टाचार पर बोला. पर इसे रोकने के सवाल पर कहा कि कोई जादू की छड़ी नहीं है कि भ्रष्टाचार रोका जा सके. पहले भी इंदिरा जी, जब ऐसे आरोप उठते थे, तो यही कहती थीं कि कोई जादू की छड़ी नहीं है कि तुरंत हल निकल जाये. पर 64 वर्षो में कब-कब भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की गंभीर कोशिश हुई? यह तो कोई सरकार बताये? 1967 में लोकपाल विधेयक की चर्चा हुई. पर आज तक यह संसद से पास नहीं हुआ, तो गलती किसकी है? राजनीतिज्ञों और सरकारों की या अन्ना या रामदेव की? विदेशों में भारतीय धन रखा है, यह 1974 से चर्चा चल रही है, पर उसे लाने या नियंत्रित करने की चर्चा किसी सरकार ने नहीं की. यह दोष अन्ना का है या रामदेव का? भ्रष्टाचार सुरसा की तरह बढ़ता गया, पर उसे रोकने के लिए संसद ने या राजनीति ने 64 वर्षो में सख्त और कठोर कानून क्यों नहीं बनाये? क्या इसके लिए अन्ना या रामदेव दोषी हैं? भ्रष्टाचारियों को फ़ांसी चढ़ाने या सख्त सजा देने का कानूनी प्रावधान कौन कर सकता था, संसद और राजनीति ही न?
64 वर्षो में इन्होंने यह कदम क्यों नहीं उठाया? जबकि जवाहरलाल जी से लेकर मनमोहन सिंह तक हर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार को देश का सबसे बड़ा दुश्मन कह चुका है. प्रगति में बाधक बता चुका है. क्या इस राजनीतिक विफ़लता के कारण ही अन्ना या बाबा रामदेव का उदय नहीं हुआ? अगर राजनीति, संसद ने अपना काम किया होता, तो अन्ना या रामदेव के उदय को जनसमर्थन कहां से मिलता? इस तरह संसद या राजनीति को अप्रासंगिक या महत्वहीन बनाने का काम तो राजनीति ने किया है. फ़िर अन्ना या रामदेव को दोष क्यों? अन्ना या रामदेव तो राजनीति की विफ़लता के मुद्दे पर उभर रहे हैं. अगर इन मुद्दों को राजनीति ने हल कर लिया होता, तो इन्हें खड़ा होने की जगह कहां मिलती? मेरे मित्र को इस पर भी आपत्ति है कि कांग्रेस कह रही है कि इसके पीछे कोई और हाथ है?
अन्ना पर तरह-तरह के आरोप लगाये जा रहे हैं. यह भी कहा गया कि अन्ना ने प्रधानमंत्री को पत्र में जो कहा है, उससे लोकतंत्र की हत्या हुई है. पर अन्ना पर जो आरोप लगे, वैसे ही आरोप तो जेपी पर भी 1974-75 में लगे. देशद्रोही, सीआइए एजेंट, पूंजीपतियों के साथी वगैरह-वगैरह. 1977 में जनता ने इन आरोपों का करारा जवाब दिया, पर कांग्रेस ने सीखा ही नहीं है. वह फ़िर उसी भाषा-मुहावरे में बोल-बतिया रही है. क्या इसे ही कहते हैं, इतिहास दोहराना ! मेरे मित्र की एक और जिज्ञासा थी. कांग्रेस ने अन्ना पर 14 अगस्त को गंभीर आरोप लगाये. इसी तरह रामदेव व उनके साथियों पर रामदेव जी के आंदोलन के बाद गंभीर आरोप लगे हैं. अगर ये लोग आंदोलन नहीं करते, तो क्या इन्हें अपराध करते रहने की छूट कायम रहती? या ये व्यवस्था के खिलाफ़ सवाल उठा रहे हैं, तब इन्हें घेरा जा रहा है? इस अर्थ में ब्लैकमेलर की भूमिका में कौन है? व्यवस्था या अन्ना-रामदेव? मित्र की बात से समझ में आयी कि अण्णा की ताकत क्या है? असल ताकत तो अन्ना का चरित्र है. चरित्र, वसूल और साख खोती मौजूदा राजनीति को एक गांधीवादी चुनौती दे रहा है. वह बहुत पढ़े-लिखे नहीं हैं. न उनके पास धन-बल है. न संगठन. लोगों को लगता है कि यह आदमी सच्चा है. छल-कपट, षडयंत्र से दूर. सत्ता पाने के लिए नहीं लड़ रहा. देश बदलने की लड़ाई में कूदा है. इसलिए शायद यह आदमी सही हो. यही कारण है कि अन्ना को देशव्यापी समर्थन मिल रहा है.
अंत में मेरे मित्र ने एक और चुभती हुई बात कह दी. इस देश में दाउद इब्राहिम को नहीं पकड़ा जा सकता, हाल में मुंबई में हुए विस्फ़ोट के अपराधियों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, बोफ़ोर्स के दोषी क्वात्रोची को देश से भगा कर बचा दिया जाता है. उनके ऊपर से प्रामाणित मुकदमा उठा लिया जाता है, विदेशी बैंकों में देश का धन लूटने वाले शान व चैन से रहते हैं, स्वतंत्र हैं, बड़े-बड़े अपराधी व तस्कर मजे में हैं, उनका रुतबा है. राजनीति, संसद व विधायिका में अपराधी भरे हैं, पर ये सब कानून की पकड़ से बाहर हैं. पर एक गांधीवादी, धोती-कुरता व गांधीवादी टोपी पहना इनसान जब बदलाव की बात उठाता है, तो उसे गिरफ्तार करने में देश की पूरी ताकत लग जाती है. उस इनसान का अपराध क्या है? अपने मित्र के बहुत-सारे सवालों का जवाब नहीं दे पाया. क्योंकि ऐसे सवालों के जवाब आसान नहीं हैं?
हरिवंश