एक दिन मेरी उम्र ऐसी थी कि मुझे बस प्यार करने का मन होता था। तब तुमसे मिलना हुआ और उस एक दिन हमने बहुत प्यार किया था। फिर वो दिन कभी नहीं आया। हमने उस रिश्ते का कोई नाम तो दिया था। क्या दिया था, ठीक से याद नहीं। उस नाम पर तुम्हें बहुत हंसी आई थी। तुम्हारा हंसना ऐसे था जैसे कोई मासूम बच्चा गिर पड़े और उसकी चोट पर मां खिलखिलाकर हंसती रहे। जैसे कोई रोटी मांग रहा हो और आप उसकी पेट पर लात मारकर हंसते रहें। फिर मैंने तुम्हें यूं देखा जैसे कोई कोमा में चला जाए और किसी के होने न होने से कोई फर्क ही नहीं पड़े। मैं तुमसे नफरत नहीं करता। नफरत करने में भी एक रिश्ता रखना पड़ता है। मैं तो तुमसे नफरत भी नहीं करना चाहता। यानी कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता।
उसे सपने बहुत आते थे। उसके सपनों में एक पेड़ आता जिस पर कई तरह के फूल होते थे। वो सभी फूल एक ही रंग के होते थे। वो रोज़ सारे फूल तोड़कर तेज़ी से कहीं भागती थी। रास्ते में रेल की एक पटरी होती थी जहां अक्सर उसे इसी पार रुक जाना पड़ता। वो झुंझला कर फूल को पटरी के नीचे रख देती। सारी खुशबू कुचल कर ट्रेन जैसे ही आगे बढ़ती, सपना ख़त्म हो जाता था। लड़की की शादी तय हो चुकी थी। उसकी मां उसे तरह-तरह की नसीहतें देने लगी। मां ने कहा कि अब तुम्हें कम सोने की आदत डाल लेनी चाहिए। लड़की ने चुपचाप हामी भरी। जबकि असलियत ये थी कि लड़की को रात में नींद ही नहीं आती थी।
मैंने बचपन में एक गुल्लक ख़रीदी थी। मासूमियत देखिए कि जब उसमें खनकने भर पैसे इकट्ठा हो गए तो मैं अमीर होने के ख़्वाब देखने लगा। मैंने और भी कई ख़्वाब देखे। जैसे मैं अंधेरों के सब शहर ख़रीद लूंगा और गोदी में उठाए समंदर में बहा आऊंगा। जैसे मुझे ज़िंदगी जीने के कई मौके मिलेंगे और मैं उसे बीच सड़क पर नीलाम कर दूंगा। फिर किसी बूढ़े आदमी पर तरस खाकर उसे एकाध टुकड़ा उम्र सौंप दूंगा।
मुझे बूढे लोग अच्छे नहीं लगते। क्योंकि वो इतने सुस्त दिखने के बावजूद मुझसे पहले मौत के इतने करीब पहुंच चुके होते हैं जहां पहुंचने का मेरा बहुत मन करता है।
निखिल आनंद गिरि
उसे सपने बहुत आते थे। उसके सपनों में एक पेड़ आता जिस पर कई तरह के फूल होते थे। वो सभी फूल एक ही रंग के होते थे। वो रोज़ सारे फूल तोड़कर तेज़ी से कहीं भागती थी। रास्ते में रेल की एक पटरी होती थी जहां अक्सर उसे इसी पार रुक जाना पड़ता। वो झुंझला कर फूल को पटरी के नीचे रख देती। सारी खुशबू कुचल कर ट्रेन जैसे ही आगे बढ़ती, सपना ख़त्म हो जाता था। लड़की की शादी तय हो चुकी थी। उसकी मां उसे तरह-तरह की नसीहतें देने लगी। मां ने कहा कि अब तुम्हें कम सोने की आदत डाल लेनी चाहिए। लड़की ने चुपचाप हामी भरी। जबकि असलियत ये थी कि लड़की को रात में नींद ही नहीं आती थी।
मैंने बचपन में एक गुल्लक ख़रीदी थी। मासूमियत देखिए कि जब उसमें खनकने भर पैसे इकट्ठा हो गए तो मैं अमीर होने के ख़्वाब देखने लगा। मैंने और भी कई ख़्वाब देखे। जैसे मैं अंधेरों के सब शहर ख़रीद लूंगा और गोदी में उठाए समंदर में बहा आऊंगा। जैसे मुझे ज़िंदगी जीने के कई मौके मिलेंगे और मैं उसे बीच सड़क पर नीलाम कर दूंगा। फिर किसी बूढ़े आदमी पर तरस खाकर उसे एकाध टुकड़ा उम्र सौंप दूंगा।
मुझे बूढे लोग अच्छे नहीं लगते। क्योंकि वो इतने सुस्त दिखने के बावजूद मुझसे पहले मौत के इतने करीब पहुंच चुके होते हैं जहां पहुंचने का मेरा बहुत मन करता है।
निखिल आनंद गिरि
kahna padta hai... sach me aap ek jabardast lekhak hain ...
जवाब देंहटाएंगज़ब!
जवाब देंहटाएंkamaal ka likha hai ...............
जवाब देंहटाएंइतने सहज शब्दों में इतनी गहरी बातें ...बहुत ही अच्छा लिखा है ।
जवाब देंहटाएंनफरत करने में भी एक रिश्ता रखना पड़ता है।
जवाब देंहटाएंसच है!
जीवन के कई मोड़ ऐसे होते हैं जब मौत बड़ी लुभावनी और ममतामयी गोद सी प्रतीत होती है...
'मुझे बूढे लोग अच्छे नहीं लगते। क्योंकि वो इतने सुस्त दिखने के बावजूद मुझसे पहले मौत के इतने करीब पहुंच चुके होते हैं जहां पहुंचने का मेरा बहुत मन करता है।'....अपनी सी बात!
वाह!! आप तो कमाल का लिखते हैं..
जवाब देंहटाएंये सपने देखने की बीमारी कब से पाल ली?
जवाब देंहटाएंनिखिल आज से मुझे भी बूढ़े लोगों से रश्क होने लगा .......एक बढ़िया पोस्ट ....बधाई !
जवाब देंहटाएंमैंने और भी कई ख़्वाब देखे। जैसे मैं अंधेरों के सब शहर ख़रीद लूंगा और गोदी में उठाए समंदर में बहा आऊंगा। जैसे मुझे ज़िंदगी जीने के कई मौके मिलेंगे .......................
जवाब देंहटाएंक्योंकि वो इतने सुस्त दिखने के बावजूद मुझसे पहले मौत के इतने करीब पहुंच चुके होते हैं जहां पहुंचने का मेरा बहुत मन करता है।.....
...
गिरि जी अब क्या कहूँ ....बस लगता है की सबकी कहानी एक ही जैसी है पाता नहीं इस दुनिया में कोई साबुत बचा भी है या नहीं ..... :)
बहुत अच्छा लिखा है...यह सपने देखने की बीमारी बड़ी जानलेवा है..
जवाब देंहटाएंवाकई बहुत अच्छा लिखा है आपने।
जवाब देंहटाएंसादर
मनोज अंकल,
जवाब देंहटाएंसपने देखने की बीमारी पाली नहीं, छुआछूत की है...सो लग गई...
तूलिका जी,
मेरी बातों को इतना सीरियसली मत लीजिए..कम से कम किसी से रश्क करने की वजह मत बनाइए...
आनंद जी, आपका जवाब तो निधि जी ने दे दिया...जानलेवा बीमारी ने कब किसे साबुत छोड़ा है...
सबका शुक्रिया...
नफरत करने मैं भी एक रिश्ता रखना पड़ता है ...
जवाब देंहटाएंसच कहा असल मैं हम जिस से नफरत करते है ..उसे हमेसा याद करते है .बहुत अच्छा लिखा है
achchha likha hai,,, abhar
जवाब देंहटाएंयशवंत जी, ममता जी, आशा जी...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...ब्लॉग पर आते रहें...
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जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है...बूढ़े लोग नापसंद है लिखकर उसके पीछे की पसंदगी झलक ही रही है।
जवाब देंहटाएंadbhut...u r really incredible.... d technique of ur writing is amazing.. I read ur blog specially.
जवाब देंहटाएंमुझे बूढे लोग अच्छे नहीं लगते। क्योंकि वो इतने सुस्त दिखने के बावजूद मुझसे पहले मौत के इतने करीब पहुंच चुके होते हैं जहां पहुंचने का मेरा बहुत मन करता है।
जवाब देंहटाएंज़बरदस्त पंक्तियाँ गिरी जी... बड़ी हीं अलग तरह की सोच है... ऐसे हीं लिखते रहिए...
मुझे बूढे लोग अच्छे नहीं लगते। क्योंकि वो इतने सुस्त दिखने के बावजूद मुझसे पहले मौत के इतने करीब पहुंच चुके होते हैं जहां पहुंचने का मेरा बहुत मन करता है।
जवाब देंहटाएंज़बरदस्त पंक्तियाँ गिरी जी... बड़ी हीं अलग तरह की सोच है... ऐसे हीं लिखते रहिए...
विश्वदीपक 'तन्हा'