मैथिली का आइटम लोकगीत (गाम के अधिकारी हमर बड़का भइया हो) |
'सामा-चकवा' की मूर्ति |
ख़ैर, पर्व से खेल और अब खेल से भव्य समारोह तक का सफर करने वाले सामा चकवा (चकेवा, चकवा, चकबा सब एक ही हैं..) का दिल्ली में भव्य आयोजन देखकर सबसे अच्छा ये लगा कि आयोजन करने वाले लोग एकदम नई उम्र के थे। 25 से 30 साल वाले दर्जन भर बिहारी नौजवान। आधे लोगों से मेरा परिचय था और आधे से वहीं हुआ। युवाओं के हाथ में आयोजन का असर भी बड़ा ख़ूबसूरत दिखा। घर में पर्दे के पीछे या अकेले में औरतों के गाए जाने वाले मिथिला के लोकगीत दिल्ली के इस ऑडिटोरियम में ऐसे पेश किए जा रहे थे जैसे मुंबई या दिल्ली के चकाचौंध भरे माहौल में सुनिधि चौहान ''शीला की जवानी....'' या ''जलेबीबाई...'' गा रही हों। सच कहूं तो मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। ये वही दिल्ली है जहां मेटालिका (कितने लोग इस बैंड से वाकिफ हैं, मुझे नहीं पता) का एक कन्सर्ट 2700 की टिकट पर आप देखने जाते हैं मगर हुड़दंग के डर से शो रद्द हो जाता है। लेडी गागा आती हैं तो धुएं वाली रातों को दिखा-दिखाकर टीवी वाले ऐसा समां बांधते हैं कि जैसे बस यही सुनकर हिंदुस्तानी संगीत को मोक्ष मिलना तय था। सामा चकेवा के 'आइटम लोकगीत' सुनकर न तो कोई शोर होता है और न ही इसका टिकट एक भी रुपये का है। फिर भी लोगों की भीड़ है, और समय पर तालियां बजती हैं। एक बार उन लोगों को भी त्रिवेणी का मुफ्त रुख ज़रूर करना चाहिए जिनके मन में बिहार का मतलब हिंदी और भोजपुरी फिल्मों में अक्सर बाज़ारू साज़िश के तौर पर फिल्माया जाने वाला एक फूहड़, निहायती बुद्धू (जिसकी बोली और लहजा देखकर सिर्फ हंसा या दुत्कारा जा सके), अधपका शहरी किरदार ही बैठा हुआ है। मैंने देखा कि दिल्ली की सभ्य सड़कों पर 'सामा चकवा' के गीत गाती महिलाएं चल रही थीं तो कारवाले रुककर फोटो खींच रहे थे, 'बिहारी' कहकर हंस नहीं रहे थे।
क्या पता बिहार से निकलकर दिल्ली-मुंबई तक पलायन कर कब्ज़ा कर चुके लोग अमेरिका या लंदन के किसी शहर में भी इसी तादाद में नज़र आएं और वहां हमारा कलुआ (भोजपुरी लोकगीतों का नया रॉकस्टार, ज़्यादा जानने के लिए यूट्यूब की मदद ले सकतें हैं) ''कलुआ कन्सर्ट'' में इतनी भीड़ जुटाए कि हज़ारों डॉलर ब्लैक में टिकट बिकें।
निखिल आनंद गिरि
क्या पता बिहार से निकलकर दिल्ली-मुंबई तक पलायन कर कब्ज़ा कर चुके लोग अमेरिका या लंदन के किसी शहर में भी इसी तादाद में नज़र आएं और वहां हमारा कलुआ (भोजपुरी लोकगीतों का नया रॉकस्टार, ज़्यादा जानने के लिए यूट्यूब की मदद ले सकतें हैं) ''कलुआ कन्सर्ट'' में इतनी भीड़ जुटाए कि हज़ारों डॉलर ब्लैक में टिकट बिकें।
निखिल आनंद गिरि
बढिया है ... दिल्ले में सामा-चकेवा आप देख लिए। अगर “विचार” पर आए होते तो बिहार में ही दर्शन हो जाता।
जवाब देंहटाएंदिल्ले=दिल्ली
जवाब देंहटाएंबिहार में तो देखे ही....ननिहाल जा रहे थे तो रोसड़ा वाले रूट में केवस-अंगार घाट से पहले खूब सारी लड़कियां-महिलाएं सामा-चकवा लेकर चली जा रही थीं....बिहार में देखे तो क्या देखे...दिल्ली में फंक्शन की तरह देखे तो लगा कि दरभंगा-समस्तीपुर का दिल्ली इस तरह आना भी ज़रूरी है...
जवाब देंहटाएंऐसे समारोह के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा .
जवाब देंहटाएंबहुत मन है कि मराठी,मलयालम,तमिल...भाषी सहेलियों को अपनी भाषा में भी कोई प्रोग्राम दिखाने का मौका मिले...मुंबई में भी ऐसे कार्यक्रम हों तो कुछ बात बने..:)
रश्मि जी,
जवाब देंहटाएंएकदम सही कहा....मैं अप्रैल में मुंबई गया था तो वहां भी देखा कि कैसे करोड़ों-अरबों में खेलने वाला पूरा शहर गुड़ीपर्व के मौके पर (शायद ग़लत बोल रहा हूं, मतलब नया साल..) सफेद रंग से सजा हुआ था.....लगा कि मुंबई की तरक्की की असली वजह शायद यही है...मिट्टी से जुड़ाव...
bilkul sahi aur sachi bat hai. aur aapne likha v bahut acha hai
जवाब देंहटाएंAbsolutely Right Nikhilji whatever You write the capital of bihar will be delhi after some time.
जवाब देंहटाएंइस पर्व के बारे में बताने का शुक्रिया .... ऐसी लोक संस्कृति के प्रति जाग्रति फैलाने का भी शुक्रिया
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