मंगलवार, 6 सितंबर 2011

अंधेरे में सुनी जाती हैं सिर्फ सांसें...

एक सांस का मतलब एक सांस ही नहीं होता हर बार...
और ये भी नहीं कि आप जी रहे हैं भरपूर

मोहल्ले का आखिरी मकान
जहां बंद होती है गली
जहां जमा होता है कचरा
या शहर के आखिरी छोर पर
जहां जमा होता है डरावना अकेलापन
वहां जाकर पूछिए किसी से एक सांस की क़ीमत

या फिर वहां जहां जात पूछ कर रखे जाते हैं किराएदार
और ग़लती से आपका मकान मालिक
एक दिन पूछ देता है नाम
और जब आप सांसे भर कर बताते हैं सिर्फ नाम
तो अगली सांस भरने से पहले ही 'बाप' का नाम
यानी जन्म लेने भर से ही ज़रूरी नहीं
कि आप जब तक जिएं हर जगह सांस ले सकें...

पिता जब ताकते हैं आखों में
शाम को देर से आने पर
या मां पकड़ लेती है कोई गलती
जो नहीं की जाती हर किसी से साझा
सांसें हो जाती है सोने-चांदी से भी क़ीमती

अगर भूल गए हों आप कोई नाम
या भूलने लगे हों खुश रहने के तरीके
तो बंद आंखों से एक सांस भरना
ज़रूरी हो जाता है बहुत

सांसें तब भी ज़रूरी हैं
जब ज़रूरी नहीं लगता जीना
या फिर सबसे ज़्यादा ज़रूरी लगता हो
यानी तब जब आप सच के साथ हों
एकदम अकेले....एक तरफ
और पूरी दुनिया दूसरी तरफ

या तब भी जब आखिरी कुछ सांसे ही बची हों
और मिलना बाकी हो उनसे
जिन्होंने आपके साथ बांटी हो सांसें....
एकदम अंधेरे में...
जब दिखता नहीं कुछ भी
और सिर्फ सुनी जा सकती हो सांसें...

निखिल आनंद गिरि

7 टिप्‍पणियां:

  1. निखिल जी अच्छी कविता है. लगे रहो युवा दोस्त.

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  2. बहुत सटीक अभिव्यक्ति| धन्यवाद|

    जवाब देंहटाएं
  3. जब दिखता नहीं कुछ भी
    और सिर्फ सुनी जा सकती हो सांसें..भावनात्मक प्रस्तुती....

    जवाब देंहटाएं
  4. Aapki poem ko pahli baar padha. padhakr bahut achchha laga. Jo bahut hi vastvikta liye huye hai aur bhavnatmak hai. I like it........

    जवाब देंहटाएं
  5. शुक्रिया धर्म वर्मा जी,
    उम्मीद है आगे भी आते रहेंगे...
    निखिल

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