रविवार, 28 अगस्त 2011

लोकतंत्र का अगला भाग...अंतराल के बाद

13 दिनों तक किसी सुपरहिट फिल्म की तरह हाउसफुल' चले अन्ना के 'सेलेब्रिटी' आंदोलन का ऐसा सुखांत (happy-ending) शायद पहले से ही सोचकर रखा गया था। आंदोलन की शुरुआत में जिस तरह के तेवर सरकार के थे, संसद की एक बहस में ही सब ऐसे मान गए कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। पूरी संसद में कोई मतभेद ही नहीं दिखा। क्या वाकई ये लोकतंत्र में संभव है, पता नहीं।
एक दलित और एक मुसलिम परिवार की बच्ची आती है और भगवान बन चुके अन्ना को दिल्ली जल बोर्ड का पानी पिलाकर अनशन तुड़वाती है। इसे फिल्मों की भाषा में poetic justice कह सकते हैं। यानी सबको खुश करने की कोशिश। मगर, लोकतंत्र इसमें भी नहीं दिखता। एक पूर्वनियोजित, सुसंयोजित, राजनैतिक कार्यक्रम ज़रूर दिखता है, जैसा कि लोकप्रिय मंच संचालक कुमार विश्वास अन्ना के मंच से बार-बार कह भी रहे थे।
ख़ैर, एक ग़रीब गांव के अन्ना ने जिस तरह से मेट्रो भारत की राजधानी दिल्ली में 13 दिनों तक समां बांधे रखा, वो काबिलेतारीफ है। एक युवा होने के नाते देश के बहरों को आवाज़ सुनाने के लिए किसी भी तरह की गूंज में शामिल होना बुरा नहीं है, मगर सवाल ये है कि क्या ये सिर्फ एक कार्यक्रम भर था, जिसकी तारीख और रूपरेखा पहले से तय थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि अब संसद के बजाय एनजीओ और दूसरे गुट सरकारें चलाएंगे। इस पर भी सोचना ज़रूरी है, नहीं तो डेमोक्रेसी की म्यूज़िकल चेयर के खेल में जो आखिर में हमेशा खड़ा रह जाएगा, वो हम-आप ही होंगे...

पहले गालियों में आती थी बहन-माएं...
आजकल आती हैं नारों में...
वंदे मातरम...

राजधानी में बढ़ गए हैं देशभक्त,
बढ़ गए हैं बुद्धिजीवी...
कार्यक्रमों की तरह आंदोलन भी...

वो मेट्रो में चढ़कर आते हैं
और एसी बसों में भी...
अधूरा काम छोड़कर दफ्तर का...
लड़कियां आती हैं बहाने छोड़कर..
सुना है स्वादिष्ट मिलते हैं गोलगप्पे
रामलीला मैदान में...
जहां होते हैं रोज़ आमरण अनशन

अदालतों में घिस गए हाथ...
घिस गए पन्ने,
गीता-कुरान के...
सच बोलने की झूठी कसमें खा-खाकर
अब कानून से बनेंगे इमानदार...
लोकतंत्र की सब बैसाखियां हमारे लिए...

सब रहनुमा हमारे लिए,
हमारे लिए सब बेईमान,
सब तालियां, सारे जयघोष
हमारे लिए सब भगवान...

सड़कें जाम, लब आज़ाद...
फिर आया पचहत्तर याद...
लोकतंत्र का अगला भाग..
छोटे से अंतराल के बाद...

निखिल आनंद गिरि

11 टिप्‍पणियां:

  1. democrasy ki muzical chair.. hm or aap khade reh jaenge... sahi hai. or iss tarah sochna bhi ki kya waqayi me ye sb tay tha?waise vande matram gaali jesa to nhi lagta.loktantra ka agla bhaag... chhote se antraal ke baad.. hmesha ki trah tum dikh rhe ho isme. achha likha hai.
    keep it up!swaal to uthta hai ki kya desh ngo wale chalaenge.lkin anna pr swal nhi uthne chahye.

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  2. सड़कें जाम, लब आज़ाद...
    फिर आया पचहत्तर याद...
    लोकतंत्र का अगला भाग..
    छोटे से अंतराल के बाद...



    वह... उम्दा कविता..

    मेरी बात : क्या ये कुछ देर की खुशी है...

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  3. छोटे से अंतराल के बाद ही समझ आ सकता है सब !!

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  4. एक दिन का अनशन रख कर देखिये .. और इस मुद्दे को जितना रेखांकित अन्ना ने किया समूचा मीडियाजगत मिलकर नहीं कर सका...कुछ सकारात्मक सोचिये...

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  5. सुंदर...बस सुनियोजित वाली बात पर भरोसा करने का भरोसा नहीं कर पा रहा...शायद इसलिए भी कि पहली बार किसी को देश के लिए 13 दिन तक भूखे रहते देखा है।

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  6. अरुण जी,
    अन्ना ने जो किया, उसके चश्मदीद गवाह हम भी थे...उनकी निष्ठा को लेकर कोई शक नहीं है....और एक दिन का अनशन तो उनकी टीम ने भी नहीं रखा था,तो इसका मतलब क्या निकाला जाए कि वो भी मेरी तरह 'नकारात्मक' सोचते थे...
    मैं भी चाहता हूं कि कुर्सी के खेल में देश का कबाड़ा कर रहे तथाकथित नेताओं को सबक मिले, मगर अन्ना के साथ खड़ा हर टीम मेंबर उतना ही साफ-सुथरा था, ये नहीं मानने के मेरे अपने तर्क हैं..कई चीज़ें एकदम आक्रामक, साफ और उसी तेवर में लग रही थीं, जैसा मुझे पसंद हैं...मगर कुछ चीज़ें (और लोग) इतने प्रायोजित थे कि कार्यक्रम ही लग रहा था....जब अन्ना जैसे सादे, लोप्रोफाइल आदमी के साथ करोड़ों लोग चलने को तैयार थे, तो क्या ज़रूरत थी वहां नचनियों और एक्टरों से पंचायती कराने की...ऐसी कई चीज़ें हैं, जिनसे नकारात्मक होना लाज़मी है, वरना मेरी सोच के बारे में मुझसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता...
    शरद बाबू,
    सुनियोजित तो कई चीज़ें साफ दिख रही थीं....क्या ज़रूरत थी टोकन के तौर पर दलित और मुसलमान बच्ची के हाथों 'सबसे बड़ा रोज़ा' (बकौल विश्वास) खोलने की..और उनके परिचय को बार-बार मीडिया में ऐसे बताया जा रहा था जैसे कार्यक्रम में शामिल लोगों के नाम बताए जाते हैं...क्या अन्ना को इन 12 दिनों के बाद भी 'कुछ' साबित करने की ज़रूरत थी,,,मुझे तो नहीं लगता...

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  7. निखिल भाई.... जिसतरह से बार बार इसे दलित विरोधी और मुसलमान विरोधी बताया जा रहा था... यह करना बस औपचारिकता था... और कोई भी बच्ची यह अनशन तुडवा सकती थी... ऐसे में इकरा के तुडवा दिया तो इसमें कोई अन्यथा नहीं है... नचनिया बुलवाना.. फ़िल्मी सितारों को बुलाना आयोजन पक्ष की ओर से नहीं था... वो तो लोग सोलिडरिटी दिखाने आते हैं..उन्हें मना नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका अपना न्यूज़ वैल्यू है... खैर... आपकी सकारात्मक सोच आपके आलेख में कम दिख रही है...

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  8. अरुण जी,
    दिक्कत तो यही है...हम प्रतीकों से जवाब देने में जुट जाते हैं...मगर सांच को आंच क्या...साबित करने/औपचारिकता निभाने की ज़रूरत ही क्या थी किसी को, इसी पर कोफ्त होती है...इकरा ने तुड़वाया इस पर आपत्ति नहीं, मगर जिस तरह से अनाउंस किया जा रहा था, लग रहा था कि बहुत कुछ साबित करने की कोशिश की जा रही है...ज़रूरत ही क्या थी...और फिर जब अन्ना जैसा नायक खुद ही वहां था, तो किसी और का मंच पर आना जुटाने जैसा ही लगता है....वो मुंबई से ही अपनी सॉलिडैरिटी दिखाते, क्या फर्क पड़ जाता...
    खैर, लेख में सकारात्कमक सोच की कमी हो सकती है....मगर, ये लेख ऐसा ही लिखा जाना था..

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  9. संभावित वैचारिक मतभेद के बावजूद, कविता की तारीफ करने में क्या जाता है...मजा आ गया...दिखा कि जब दिल के जज़्बात कीबोर्ड के जरिए निकलते हैं, तो रंग कैसे चढ़ता है

    नोट- वैसे, असल डेमोक्रेसी यही है

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  10. koi bhi aandolan ek yojna ke tahat hi hota hai...aap ise suniyojit shabd de sakte hain...samay badal chuka hai... na to hum ...na to aap sach ko uske sacche roop me swikar karne ko taiyar hain....kyoki sach ko bhi sandarbho me paribhashit kar ...uske mayne badal diye jate hain...andolan ka vifal hona zyada dukhad hoga.....safal hua to hum sab ek bade pariwartan ki taraf ek kadam to badha hi sakenge...shak ki gunjaish hai ...to bharose ki zarurat usase kahi zyada ....kuch badala hai...to bahut kuch aur badal sakta hai....kavita acchi thi...badhai....

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  11. रवि बाबू,
    शुक्रिया....हम भी चाहते हैं एक बड़े परिवर्तन का गवाह बनना मगर शक की गुंजाइश है कि खत्म ही नहीं होती....

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