मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

एक डायरी अनमनी सी

मेरी उम्र के लिहाज़ से ये बात अनफिट लग सकती है मगर सच है। आजकल पुरानी रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह हो गया हूं। कोने में कहीं पड़ा। न कोई नोटिस करता है, न ऐसी कोई चाहत उमड़ती है। बीच-बीच में कोई भीतर झांक लेता है तो खुश हो लिया वरना पड़े रहे अगड़म-बगड़म सोचते। मुझे लगता है हर किसी के साथ ऐसा वक्त आता होगा जब वो 'ब्लॉक' महसूस करता है। मेरा ये ब्लॉक बीच-बीच में आता रहता है। इस बार कुछ ज़्यादा लंबा है। उम्मीद है जल्दी कटेगा ये वक्त। जितनी जल्दी कटेगा, ब्लॉग पर लौटना आसान रहेगा। ये मेरी डायरी है। हर रोज़ भरना चाहता हूं। कई दिन ख़ाली रह गए।

ज़िंदगी में इतना कुछ नया घट रहा है कि सब रुटीन जैसा लगने लगा है। नया घटना एक चीज़ है और मनचाहा घटना अलग। बहुत कुछ अनचाहा घट रहा है इन दिनों। जिन्हें भूल जाना चाहता हूं, वो अकसर याद रहते हैं। कई तारीखें याद रह गई हैं। उनका क्या किया जाए, समझ नहीं आता। कई कविताएं अधूरी हैं। किसी ख़ास वक्त में लिखी गईं। छूट गईं। अब लगता है वो मुझे पहचानती ही नहीं। जैसे कविता मैं नहीं कोई और लिख रहा था। क्या पता कोई और ही लिख रहा हो।

दिल्ली भी अजीब शहर है। नौ-दस साल गुज़र गए मगर अब भी लगता है पूरे शहर को समझना बाक़ी है। या इस शहर ने ही मुझे नहीं समझा। सिर्फ एक पेशेवर रिश्ता रखा है। पूरी ज़िंदगी से ही पेशेवर रिश्ते जैसा लगने लगा है। दिल्ली सबको ऐसा ही बना देती है। थोड़ा चिड़चिड़ा, थोड़ा गुस्सैल, थोड़ा ख़र्चीला। यहां छींकना भी संभलकर पड़ता है। कोई न देखे तब भी 'सॉरी' बोलते हुए।

छींकना भी अजीब आदत है। कुछ लोग ऐसे छींकते है जैसे किसी नई कला को जन्म दे रहे हों। कलाओं को ज़िंदा रहना चाहिए। कविताओं को भी। ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है, ज़िंदा होना ही काफी नहीं।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

अच्छे दिनों की कविता

गांधी सिर्फ एक नाम नहीं थे,
जिनके नाम पर तीन बंदर हुए
या बहुत-से आंदोलन

एक दौर थे जिसमे हुमारे दादा हुए

दादाजी कहते रहे हमेशा
'गांधीजी ने ये किया वो किया
उनकी मौत पर नहीं जला चूल्हा पूरे गाँव में
कोई औरत भेस बदलकर बचाती रही भगत सिंह को'

या फिर पिताजी को ही ले लीजिये
वो सुनाते हैं जब अपने दौर के बारे में
तो कई अच्छी बातें हैं बताने को
जैसे जब बारिश होती थी हुमचकर
उनके समय में
तो हेलीकाप्टर से खाना आता था उनके लिए
महामारी में मरते थे बच्चे
तो सरकार एक भरोसे का नाम थी।

जैसे नेहरू के भाषणों में पुलिस नहीं होती थी
या फिर इन्दिरा गांधी हाथी पर सवार होकर चलती थीं कभी कभी
घरों में चोरियाँ कम थीं
या फिर किसी ने बकरी चुरा भी ली
तो दो दिन दूह कर
लौटा आता था बकरी ।

सबके अपने अपने दौर थे
जैसे एक हमारा भी
जिस पर लिखी जा सकती है एक मुकम्मल कविता
जैसे जब जन्म हुआ मेरा
तो पुलिस वाले
दौड़ा-दौड़ा कर मारते थे सिखों को
और इन्दिरा गांधी की हत्या उनके घर में ही हुई
जैसा कि बी बी सी ने बताया

जब किताबों का दौर आया तो
धनंजय चटर्जी को सरेआम फांसी हुई
एक स्कूली लड़की से बलात्कार के जुर्म में
गांधी हमारे दौर की किताबों में नहीं
नोटों पर थे
और औरतें मदद करना तो दूर,
मदद मांग भी नहीं सकती किसी मर्द से।

इस तरह जितना बड़े हुए
जोड़ी जा सकती है एक और बुरे दिन की तारीख
कहीं बारिश नहीं होती ऐसी
कि डूबकर लिखी जा सके कविता
जैसे टैगोर लिखते रहे बारिश के दिनों में।

जितना बदलना था बदल चुका समय
अब सिर्फ़ होता है क्रूर
जिसमें परछाईं भी भरोसे के लायक नहीं।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

क्षणिकाएं

छुट्टी
घर से निकला
घर से छुट्टी लेकर
दफ्तर घर हो गया।
मैं रोज़ नौ घंटे की छुट्टी पर रहता हूं
दफ्तर में।

विकल्प
चुनना एक व्यवस्था की तरह नहीं
व्यवस्था एक मजबूरी की तरह
जैसे हरे और पीले में चुनना हो लाल।
यह रंगों की अश्लीलता नहीं

व्यवस्था का अपाहिज होना है।
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 15 अगस्त 2015

खिड़की

खिड़की पर लड़कियां नहीं बैठती
नई दुल्हनें भी नही
पुरुष बैठतें है खिड़कियों पर
यह खिड़की रेलगाड़ी या बस भी हो सकती है
किसी देश की खिड़की
या दुनिया की कोई भी सभ्य खिड़की
खिड़कियों से दुनिया को इस तरह देखें
कितनी बराबर यानी एकरस है।

इस तरह डर लड़की को नहीं 
लड़की के गहनों को भी नहीं।
खिड़की पर बैठा पुरुष डरता है
बाहर के अनजाने पुरुष से
जो खिड़की से हाथ डालकर
कभी भी खींच सकता है
दूसरे पुरुष का सारा दंभ।

खिड़की के बाहर की स्त्रियां
फिलहाल सुरक्षित हैं
दो पुरुषों के आपसी संघर्ष में।
दुनिया चैन से सो रही है
खिड़की पर बैठे पुरुष

जाग रहे हैं बस।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 9 अगस्त 2015

हो ना..

एक बिंदु से शुरू होती है हर रेखा
इस तरह
रेखाओं का होना
बिंदुओं का नहीं होना नहीं होता

जैसे दीवारों का होना
ईंटों का होना भी होता है।
बारिश का होना
बहुत-सी बूंदो का होना।
धुएं का होना
आग का होना
राख का होना।
दुनिया का होना
और अंधेरे का होना
उम्मीद का होना भी होता है

इस तरह नहीं होना किसी का

सबसे ज़्यादा मौजूद होना भी होता है
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 1 जुलाई 2015

सीढ़ियां

सीढियां कहीं नहीं जाती
कोई कंपन,  कोई धड़कन
नहीं उनकी शिराओं में
वो चुपचाप सुनती हैं
धम्म से चढ़ते हैं पैर उनकी छाती पर
और चले जाते हैं रास्ता बनाते।
सीढियां रास्ता नहीं हैं
इसीलिए टूटने लगी हैं।
जो सीढ़ियों की छाती पर चढ़ते हैं
उनसे सविनय निवेदन है
सीढ़ियों को कुछ रोज़ के लिए अकेला छोड़ दें।
उन्हें टूटने का डर नहीं
दुख है फिर से जोड़े जाने का

जोड़ा जाना सहानुभूति नहीं है

स्वार्थ है छातियां रौंदने का।
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 23 जून 2015

नहीं

एक सुबह का सूरज
दूसरी सुबह-सा नहीं होता
एक अंधेरा दूसरे की तरह नहीं होता।
संसार की सब पवित्रता
एक स्त्री की आंखें नहीं हो सकतीं
एक स्त्री के होंठ
एक स्त्री का प्यार।
तुम जब होती हो मेरे पास
मैं कोई और होता हूं
या कोई और स्त्री होती है शायद
जो नहीं होती है कभी।
मेरे भीतर की स्त्री खो गई है शायद
ढूंढता रहता हूं जिसे

संसार की सब स्त्रियों में।
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 20 जून 2015

कचरा


जिन्होंने ज़मीन पर घर बनाए
रहे ज़मीन पर
उनका हक़ है कि कचरा ज़मीन पर फेंके
जिनके घर आसमान में हैं
उनसे सविनय निवेदन है
आसमान में कचरा फेंकने की जगह ढूंढ लें।
ज़मीन पर अघोषित निषेधाज्ञा है
लिफ्ट से उतरने पर।
आसमान आत्ममुग्धता का शिकार होता जा रहा है
इन दिनों इतने घरों को देखकर
दरअसल वह कचरा फेंकने की असली जगह है।
ज़मीन पर नींव खोदी जा सकती है
आसमान से सिर्फ बचा जा सकता है

ओज़ोन की परतों के सहारे।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 16 जून 2015

चश्मा

 चश्मा कितना भी सुंदर हो
आंखे कितनी भी कमज़ोर
चश्मे का मतलब दो नयी आंखों का होना नहीं होता
इसके अलावा
सही नंबर का चश्मा जरूरी है
सही नंबर की आंखो पर
सही नंबर की दुनिया देखने के लिए
चश्मे से दुनिया साफ दिख सकती है
सुंदर नहीं
कई तरह के चश्मे लगाकर भी नहीं।
आंखे नहीं हो पहली जैसी
और दुनिया हो भी
तब भी नहीं। 

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 12 जून 2015

कुछ लोग

सबसे मीठी चाय ज़रूरी नहीं
सबसे अच्छी हो स्वाद में।
सबसे ज़्यादा ज़रूरी नहीं होता
सबसे पहले कहा गया वाक्य
सबसे ऊंची या बार-बार सुनी आवाज़
सबसे सच्ची या गहरी नहीं होती
सबसे ज़्यादा चुप्पी भी हो सकती है।

सबसे ऊंची जगहें नहीं होतीं,
सबसे ज़्यादा हवादार।
सबसे छोटी कील कर देती है
दीवार को आर-पार।
सबसे मज़बूत लोहे भी
खा जाते हैं ज़ंग अक्सर।
सबसे मोटे चश्मे
नहीं देख सकते सबसे दूर तक

सबसे पुरानी किताबों में
लिखा भी न मिले शायद
सबसे भयानक, असभ्य, काले
सबसे गरीब लोगों ने ही
उगाये सबसे पहले अन्न
बनाई सबसे लंबी सड़कें
सबसे ऊंची इमारतें
सबसे प्राचीन और समृद्ध सभ्यताएं।
सबसे ज़्यादा भुला दिए गए कुछ लोग

सबसे अधिक याद आते हैं अक्सर।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 1 जून 2015

हैंगओवर

बारहमासा अमरूद की तरह नहीं

महामारी की तरह आते हैं
कभी-कभी अच्छे दिन

कभी नहीं जाने के लिए।
मक्खियां चखें तमाम अच्छी मिठाइयां

मच्छरों के लिए तमाम अच्छी नस्ल के ख़ून
चमगादड़ों के लिए सबसे दिलकश अंधेरे

और चूंकि जंगल नहीं के बराबर हैं
तो भेड़ियों-सियारों-लकड़बग्घों की रिहाइश के लिए

तमाम अच्छे शहर
गुजरात से दिल्ली से अमरीका से मंगल तक।


एक से एक रंगीन चश्मे इंडिया गेट पर
युवाओं के लिए हनी सिंह के सब देशभक्ति गीत,

सबसे तेज़ बुलेट कारें, सबसे अच्छी दुर्घटनाओ के लिए
सबसे मज़बूत लाठियां, सदैव तत्पर पुलिस के लिए

सबसे अच्छी हत्याओं का सीधा प्रसारण
सबसे रंगीन पर्दों पर।

सबसे अच्छे हाथी, कुलपतियों की तफरी के लिए
सबसे अच्छे पुरस्कार, अच्छे दिनों की याद में

लोटमलोट हुए राष्ट्रभक्तों, शांतिदूतों और साहित्यकारों के लिए।

 
सबसे अच्छे दिनों को हुड़-हुड़ हांकते

सबसे ज़्यादा मुस्कुराते लोग
बोरिंग सेल्फी की तरह

आत्ममुग्धता की बास मारते
प्रेम की तमाम संभावनाओं को ख़ारिज करते।

 
सबसे अच्छे नारे, मंदिर, शौचालय, बैनर

मूर्तियां, होर्डिंग और पोस्टर
शहर की सबसे सभ्य सड़कों पर

जिन पर इत्मीनान से लेंड़ी चुआते हो कौव्वे
और वहीं बीड़ी सुलगाने की जुगत में

कोई कवि या पागल
नाउम्मीदी की तमाम संभावनाओं के बीच

किसी चायवाले भद्रजन से मांगता हो माचिस
तो अच्छे दिनों के हैंगओवर में,

वह उड़ेल दे खौलती केतली से
किरासन या तेज़ाब जैसी कोई चीज़

और मुस्कुराकर कहे जय हिंद।
निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 21 मई 2015

रेखाचित्र

कोई कहीं दौड़ता नहीं
फिर भी हारता कई बार।
कई बार दौड़ते कुछ लोग
पहुंच जाते किसी और रेस में
मैदान हरे-भरे, कंक्रीट के।

आसमान से कोई दागता गोली,
दौड़ पड़ते सब
जो लाशें बचतीं
जीत जातीं।
जीत ख़बर बनती
पदक बंटते लाशों को।

खोते जाते मैदानों में कुछ लोग
मिलते आपस में,
नई दौड़ के लिए।
हारे हुए लोगों की रेस चलती अनवरत
अंतरिक्ष के मैदानों तक
हार जाने के लिए।
विलुप्त होते रहे
थक कर बैठे
सुस्ताते लोग
ख़बर नहीं बन सके
थके-हारे लोगों को
प्याऊ का पानी पिलाते लोग।

पहले पानी लुप्त हुआ समुद्रों से
फिर गहराई का नाता टूटा पृथ्वी से
जैसे छत्तीसवीं मंजिल का रिश्ता
अपार्टमेंट के ग्राउंड फ्लोर से।

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के 'मई 2015' अंक में प्रकाशित)

रविवार, 17 मई 2015

अपने समय के बारे में

आप जब कहते हैं,

कि यह एक ख़राब समय है
तब आप कोस रहे होते हैं सिर्फ वर्तमान को

अतीत के पक्षपाती चश्मे से,
संभव है आपकी ख़राब घड़ी भर ही ख़राब हो समय।

दरअसल वह एक ख़राब समय था जो,

वीर्य की तरह बहता चला आया वर्तमान की नसों में।



जिस क़ातिल की सज़ा बदली सज़ा-ए-मौत में

(इसे रिहाई भी समझा जा सकता है)

उसने अतीत में झोंकी थी एक औरत तंदूर में।

समय तंदूर में झुलसा था तब

और आप अब काला बता रहे हैं।

अंधेरा पैदा करने के लिए

बहुत से धुंधले उजाले भी काफी हैं।


जिन चेलों ने आज बटोरे प्रशस्ति पत्र

उनके पत्रों पर कहीं दर्ज नहीं

कहां और कितने गुरुओं को बांटी थी कल कौन-सी बोतलें।


संभव यह भी है कि अच्छा समय ढंक दिया गया हो

किसी लोकतांत्रिक ढक्कन से।

जैसे आप खिड़कियां ढंकते हैं कमरों की,

और सुरक्षित महसूस करते हैं

आपकी बच्चियां लूडो खेलती हैं आराम से।

ठीक उसी लोकतांत्रिक समय खिड़की के बाहर,

जहां जब बच्चियां पैदा हुईं

तो मांओं ने छातियां ढंक दी उनकी

और आसमान की तरफ अश्लील और डरावनी संभावनाओं से देखा।


दरअसल यह एक अश्लील समय है,

हत्या की खबरों में सिबाका गीतमाला की तरह

दलित नरसंहार में सवर्णों की सकुशल रिहाई जैसे

दिल्ली में दम तोड़ता उत्तर-पूर्व जैसे

पृथ्वी की छाती पर उग आए मकान जैसे

बकरों की जगह उल्टे लटके मुसलमान जैसे।


इस वक्त आपके रंगीन चश्मे के भीतर

अगर दिख रहा है सच जैसा कुछ

तो सबसे अश्लील है भगवान
जिसे पसंद है समय का नंगा नाच।।


('पहल' पत्रिका (98वें अंक) में प्रकाशित
निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

नन्हें नानक के लिए डायरी

जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...