सोमवार, 27 जून 2011

रो चुके बहुत...

प्यार हमें कहीं भी हो सकता है...

उन लड़कियों से भी जिनसे कभी मिले नहीं...

और मिलना संभव भी नहीं...


जहां हम नहाते हैं,

उसकी दीवारों पर एक बिंदी देखती है लाल रंग की...

शर्म से लाल है शायद...

बताइए क्या प्यार करने को इतनी वजह काफी नहीं...


क्या हंसना सिर्फ इसीलिए नहीं होता

कि रो चुके होते हैं हम बहुत....

बहुत रो चुके होते हैं हम....

और भूल जाते हैं अगली बार रोना।


कभी-कभी अकेले में

हम सबसे बुरे होते हैं...

और तब मरने के लिए इतनी वजह काफी होती है कि

जीने का तरीका ही नहीं आया

कभी-कभी मरना शौक की तरह ज़रूरी लगता है...

कोई डांटे इस बुरी लत पर

और हम आधा छोड़कर मरना, जी उठें...


और सुनिए, यहां गोली मार देने के लिए

ये ज़रूरी नहीं कि आपका झगड़ा हो...

इतनी वजह काफी है कि

आपके पास बंदूक है...
 
निखिल आनंद गिरि
 
(इस कविता को हिंदी मैगज़ीन पाखी के जून अंक में भी जगह मिली है)

9 टिप्‍पणियां:

  1. यकीन कीजिये आपको पढ़ कर हमें सच में अपनी जवानी याद आ जाती है.
    बस तैरते जाना है, लेकिन ना पतवार कि कदर है ना नाव की.

    जवाब देंहटाएं
  2. पर यहाँ अधूरी क्यों लगायी... क्या आज कि कविता कहीं से भी शुरू हो सकती है/जाती है ?

    http://kalam-e-saagar.blogspot.com/2011/06/blog-post.html

    जवाब देंहटाएं
  3. absolutely bahut si baaton ki vajah nahi hoti... ham saare aadtan vajah dhoodhte hain

    जवाब देंहटाएं
  4. कोई डांटे इस बुरी लत पर

    और हम आधा छोड़कर मरना, जी उठें...

    तो फिर अब जी उठिए ......

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बढ़िया लिखा है आपने.
    -------------------------------------
    आपकी एक पोस्ट की हलचल आज यहाँ भी है

    जवाब देंहटाएं

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