शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

नन्हें नानक के लिए डायरी

जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है।

ये पोस्ट मेरे दो साल के बेटे को देखकर मन में जगी। क्या उसे याद भी रहेगा कि जैसे उसके उठने से लेकर सोने तक उसकी 70 साल की दादी उसके साथ बच्चा बनी फिरती है।

कैसे उसके 76 साल के दादा, नहीं चल पाने की तमाम मजबूरियों के बीच भी उसके साथ थोड़ी देर ज़रूर चलना चाहते हैं। 

मेरे होने को लेकर वो इतना खुश होता है कि दुआ करने का मन होता है कि उसे कभी मां की कमी खले ही नहीं। सोना, रोना, रूठना, मान जाना सब मुझ पर आकर ख़त्म हो जाता है।

पूरे घर के अकेलेपन को उसने अपनी किलकारियों से भर दिया है। वो कहता है कि कबूतर थूकता है तो हमें लगता है ये क्या पारखी नज़र से अपनी भाषा और समझ गढ़ रहा है। वो अपनी साइकिल को चलाता नहीं, उसमें खड़ा होकर सब कमरों का सफर करता है तो लगता है साइकिल चलाने का सिर यही तरीका हो सकता था।

लोई, जो उससे कम से कम आठ साल बड़ी है, उसके बाल वो इस हक़ से खींचता है कि डांटते हुए भी प्यार आता है। जब डांटा तो कहेगा अब नहीं खींचेगा,जैसे ही डर गया फिर आकर कहेगा "खींचूंगा"। परेशान लोई भी उसकी इस अदा पर हंस पड़ती है।
ये डायरी इसीलिए ज़रूरी है कि समय की आपाधापी में जब हम ये लम्हे भूलने लगें तो पलट कर देखने से लगे कि दुनिया कितनी मासूम होकर भी जी जा सकती है।


निखिल आनंद गिरि

रविवार, 1 दिसंबर 2024

राष्ट्रपति

'हम घर के लिए चुनते हैं 
पैर पोंछने की चटाई
तब भी गिन-परख कर पोंछते हैं।

ककरी ख़रीदने पर भी देखते हैं
ज़रा-सा चख कर
कोई तीतापन तो नहीं आ गया झोले में।

बेकार चीज़ों को घर से दूर
फेंक आते हैं कहीं।

नदी में जहां ज़रा-भी मैला हो पानी
हथेली से दूर कर देते हैं
उतरने से पहले।

और राष्ट्रपति ऐसे चुनते हैं 
जैसे बकरीद पर चांपने के लिए 
पालते-पोसते हों बकरी।

जैसे चुनते हों कान साफ करने के लिए
सबसे कमज़ोर लकड़ी।
सुनो जनगण सुनो'

(यहां 'राष्ट्रपति' की जगह 'वाईस चांसलर' या राज्यपाल या कोई और लाभ का पद भी पढ़ सकते हैं)


निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 5 नवंबर 2024

भोजपुरी सिनेमा के चौथे युग की शुरुआत है पहली साइंस फिक्शन फिल्म "मद्धिम"

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि - कथाकार विमल चंद्र पांडेय की भोजपुरी फिल्म "मद्धिम" शानदार थ्रिलर है। 

वरिष्ठ पत्रकार अविजित घोष की "सिनेमा भोजपुरी" किताब में भोजपुरी सिनेमा के अलग अलग दशकों को कंटेंट के लिहाज़ से तीन युगों में बांटा गया था। उसके बाद भोजपुरी सिनेमा में कुछ बहुत नया या उल्लेखनीय हुआ, याद नहीं आ रहा।
चूंकि यह भोजपुरी की पहली साइंस फिक्शन फिल्म बताई जा रही है। इस लिहाज से हम इसे भोजपुरी सिनेमा का नया या चौथा युग भी कह सकते हैं। 

एकदम कसी हुई कहानी, अफसोस ये कि सिर्फ 47 मिनट में ख़त्म हो जाती है। कहीं से नहीं लगता कि ये निर्देशक की पहली भोजपुरी फिल्म है। कास्टिंग और एक्टिंग दोनों बहुत सधी हुई। 
निर्देशक विमल जी ने बातचीत में बताया कि इस साइंस कल्पना का आधार बचपन में पढ़ी गई "विज्ञान प्रगति" जैसी पत्रिका है तो और अच्छा लगा कि हमारे समकालीन भोजपुरी निर्देशकों को पढ़ने लिखने का महत्व समझना चाहिए। 
ये मर्डर मिस्ट्री किसी भी भाषा में बनती तो इसका असर कम नहीं होता। मगर विमल ने इसे अपनी बोली भोजपुरी में बनाने का साहस दिखाया, ये भोजपुरी सिनेमा के लिए

बहुत सम्मान करने लायक बात है। कोई फूहड़ दृश्य या गाना या संवाद पूरी फिल्म में कहीं नहीं मिलेगा।
क्लाइमैक्स में एक झोल लगा कि पुलिस अपनी तफ़्तीश के सबसे तनावपूर्ण मौक़े पर संदिग्धों के साथ कब मीटिंग रखती है, वो भी बिना हथकड़ी या बंदिश के। ख़ैर, थोड़ा बहुत चलता है, "मद्धिम" को ज़ोर से बधाई।
इसी फिल्म से एक स्क्रीनशॉट, जिसमें निर्देशक ने ख़ुद को पर्दे पर लाने का मोह नहीं छोड़ा है।
ज़िंदाबाद

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 20 अक्टूबर 2024

स्त्री 2 - सरकटे से डर नहीं लगता साहब, फ़ालतू कॉमेडी से लगता है



हिंदी सिनेमा में आखिरी बार आपने कटा हुआ सिर हाथ में लेकर डराने वाला विलेन कब देखा था। मेरा जवाब है "कभी नहीं"। ये 2024 है, जहां देश का प्रधानमंत्री इतना शक्तिशाली है कि चीन अमरीका सबके प्रधानमंत्री मिलते ही गले लग लेते हैं और आप मानकर चल रहे हैं कि इस फिल्म में आपको डरने जाना है, भले ही वो कुछ भी दिखाते रहें। 

अगर आप ऊबकर अपना सर सिनेमा हॉल में दाएं बाएं घुमाएंगे तो देखेंगे कि हर तरफ कोई सरकटा सीट के किनारों में बैठा है और कोई न कोई स्त्री उसके "चंगुल" में बैठी हुई है। शायद खुशी खुशी। दुविधा ये है कि आप मल्टीप्लेक्स की गुफ़ा में ख़ुद शहर के रक्षक बनकर सभी स्त्रियों को देखेंगे या असली फिल्म में हॉरर के नाम पर जो कॉमेडी हो रही है, वह भी देखेंगे। 

फिल्म वाला सरकटा थोड़ी देर और करता तो मेरे बगल वाली सीट पर बैठा पुरुष अपने साथ लाई स्त्री को तीसरी बार भी अपनी जांघ पर बिठा लेता।  लेकिन मैं यू सब आपको क्यूं बता रहा हूं, मुझे तो फिल्म पर बात करनी थी। चलिए शुरू करते हैं - 
यह फिल्म नहीं, आग उगलते लावा में अपने पैसे फेंक कर जला देने का आत्मघाती प्रयास है।

2024 में मेरी उम्र इतनी हो चुकी है कि अब हॉरर से डर नहीं लगता साहब, ख़राब कॉमेडी से लगता है। इस फिल्म में कॉमेडी ऐसी है जिससे नहीं, जिसपर हंसी आती है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता याद होगी - "अगर आपके घर के एक कमरे में आग लगी हो, और दूसरे में आप चैन से सो रहे हों तो मुझे कुछ नहीं कहना"। यहां एक "राक्षस" औरतों को उठाकर ले जा रहा है और वहां उस लड़की का प्रेमी और उसके दोस्त कॉमेडी में व्यस्त है । वो दिल्ली से अपने दोस्त को खतरे के मुंह में झोंकने के लिए बुलाकर लाते हैं कि उसे अकेला छोड़ देंगे और भूत जब उसे मार डालेगा तो सबको मज़ा आएगा। ये हमारे समाज की कॉमेडी का स्तर है, तो फिर मुझे किसी से कुछ नहीं कहना।
कुछ दृश्य ज़रूर अच्छे हैं जैसे डर के मारे हाथी के पुतले में घुसकर उधर उधर रास्ता भटकते दोस्तों का परेशान होना।
और क्या कहा जाए। पंकज त्रिपाठी अभी भी कालीन भैया के टोन से बाहर नहीं आ सके हैं। लड़कियों को बचाने के लिए लड़कियों का क्या क्या नहीं बनवा दिया है फिल्म में। कॉमेडी और भूत(नी) के नाम पर कॉमेडी को याद करना हो तो "I M kalam" याद कीजिए, जब भाटी के यहां काम करने वाले लड़के छोटू को उसका बड़ा स्टाफ लपटन अपने कमरे में सोने नहीं देता और वो बाहर से डरावनी आवाज़ें निकालकर कैसे डराता है। डर वहां कॉमेडी की शक्ल में है और कितना सुंदर भी है।

स्त्री -2 में ऐसा कुछ भी नया नहीं, जिसे आपने पहले की भुतहा फिल्मों में न देखा हो। और तो और, जब भूत-भूतनियां आपको डरा नहीं पातीं  तो निर्देशक इस बार आपको अक्षय कुमार से डराएगा कि बेटा जी डर जाओ वरना ये कहीं भी किसी भी फिल्म में कुछ भी बनकर आ सकता है। अगली बार तो मुख्य किरदार बनकर आने वाला है।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

मैं लौटता हूं

 प्रिय दुनिया,
बहुत दिनों तक भुलाए रखने का शुक्रिया!
मैं इतने दिन कहां रहा
कैसे बचा रहा
यह बताना ज़रूरी नहीं
मगर सब कुछ बचाते बचाते
खुद न बचने का डर वापस लाया है।

इस बीच एक लंबी रात थी
जो शायद अब भी है
मगर अंधेरे में दिखने लग जाता है
लंबी रातों में।
एक बार उदासी कुछ यूं थी कि
मैंने किसी गिलास को पकड़ने के बजाय
एक औरत की गर्दन पकड़ ली
बहुत देर बाद मालूम हुआ
अंधेरा कितना खतरनाक,
कितना अंधेरा हो सकता है।

मुझे अंधेरे में कई हाथ दिखते हैं
कई गर्दनें दिखती हैं
संभव है ज्यादातर औरतों की गर्दनें हों
मुझे लगता है कि जब देखूंगा
उजाले में उन हाथों को
क्या उनके हाथ में उजाले की गर्दन भी होगी?

इन भुलाए गए बहुत दिनों में
मैं एक बंद कमरे को दुनिया समझता रहा
ऐसा कई लोग करते हैं अपने उदास दिनों में
मगर कहने की हिम्मत नहीं करते।

इसी बीच कुछ प्यार करने का मन हुआ
तो मैंने अपनी चीख से प्यार किया
उस लड़की का चेहरा भी दिमाग में आया
जिसे कभी किसी से प्यार की उम्मीद नहीं रही।
मैं कई बार लड़ा अपने डर से
दवाईयों से, घर से
कई बार तो डॉक्टर से।

तो मैं कहना चाहता हूं जो
सिर्फ इसी भाषा में संभव है
कि दुनिया में कुछ भी इतना प्यारा नहीं
जितना भुलाए जाने का डर।

मैं लौटता हूं
अपने तमाम डर के साथ
कविता की तरह नहीं
बरसों बाद लौटी चीख की तरह।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 17 अगस्त 2024

बेस्टसेलर होने के पीछे की अंधेरी दास्तान है "टिप टिप बरसा पानी"


आजकल फिल्मी गीतों या नामों पर हिंदी साहित्य में किताबों के नाम रखे जाने का ट्रेंड है। 

हाल ही में मैंने अपने साथी तोमोजित भट्टाचार्य की एक अंग्रेज़ी पुस्तक पढ़ी "Destination Delhi"। उसमें भी एक अनोखा प्रयोग ये था कि किताब के हर अध्याय का नाम हिंदी फिल्मी गानों का टाइटल था - जैसे "एक अकेला इस शहर में", "हम आए हैं यूपी बिहार लूटने", "वो शाम कुछ अजीब थी" आदि।

वरिष्ठ कवि व कथाकार अभिज्ञात के नए हिंदी उपन्यास का शीर्षक 'टिप टिप बरसा पानी' भी ' '90 के दशक की मशहूर फिल्म "मोहरा" से उठाया गया है, जो रवीना टंडन पर बेहद लुभावने अंदाज़ में फिल्माया गया था। सिर्फ शीर्षक ही नहीं, पूरा उपन्यास ही "मोहरा" की तरह नए-नए उतार चढ़ाव से भरा पड़ा है। 

इस उपन्यास का शीर्षक "मोहरा" भी रख देते तो शायद ज़्यादा सार्थक होता क्योंकि पूरी कहानी में हर पात्र किसी न किसी की बिसात पर बिछा मोहरा ही है। उपन्यास के लेखक की उम्र अगर न बताई जाए तो लगेगा कि नई वाली हिंदी के किसी अभी-अभी उगे लेखक ने बेस्टसेलर होने की जुगत में इस उपन्यास को लिखा है। सिर्फ भाषा ही नहीं, कच्ची उम्र के कुछ दृश्य भी ऐसी ताज़गी से रचे गए हैं कि आप एक साथ अनुभवी साहित्य में लुगदी का आनंद ले सकते हैं।

अभिज्ञात हिंदी साहित्य में लंबा अनुभव रखते हैं। इस कहानी में उन्होंने बड़ी चतुराई से अंग्रेज़ी साहित्य के भीतर का काला संसार रचा है और हिंदी वालों को क्षणिक क्लीन चिट दे दी है। मुख्य पात्र अंग्रेज़ी का एक बेस्टसेलर लेखक है, जिसका मुख्य काम शोहरत के लालच में किसी भी तरह से संपर्क साधना और अय्याशी के लिए इस्तेमाल करना है। अपने उपन्यास के प्लॉट के लिए वो अपने संपर्क में आए कुछ युवाओं को ऐसे जाल में फंसाता है कि आप अगर अपनी भाषा के लेखक हैं, तो आप अपनी मर्यादा का थर्मोमीटर ज़रूर चेक करने लगेंगे कि आपने बुलंदियों की सीढियां चढ़ने के लिए जाने अनजाने किसी का इस्तेमाल तो नहीं किया है।

शुरू में आपको लगता है कि आप ये साधारण भाषा वाली अति साधारण कहानी पूरी क्यूं पढ़ेंगे जबकि आपके पास अपने बाल कटाने, गाड़ी धुलवाने, बच्चों को खेलने-खिलाने जैसे कई अधूरे काम पूरे करने हैं, फिर अचानक एक मोड़ तक पढ़ चुकने के बाद ये कहानी आपको नहीं छोड़ती। हर पन्ने पर कहानी मीलों का सफ़र तय करती है। कोलकाता से अमरीका तक। और इस बीच में क्या-क्या नहीं होता।

आसान दिखती कहानी के पात्र बहुत कसाव के साथ एक दूसरे के साथ बंधे हुए हैं जो समय समय पर ज़रूरत के हिसाब से उग आते हैं। ऐसी कहानियों पर कोई फिल्म या आज के ज़माने में कोई वेबसीरीज बने तो ताज्जुब नहीं होगा। चूंकि उपन्यासकार अभिज्ञत अभिनेता भी हैं तो वेबसीरीज के नायक "अनिमेष" की भूमिका भी ख़ुद उन्हें ही निभानी चाहिए क्योंकि एक साहित्यिक यात्रा में जितने शेड्स लेखक की निजी ज़िंदगी में होते हैं, अभिज्ञात ने वो सब जिए ही होंगे। 

तो अगर आप नई वाली हिंदी के नाम पर भाषा की खिचड़ी के साथ कहानी का सूखा पापड़ नहीं खाना चाहते तो अभिज्ञात को पढ़िए। वो पुरानी वाली हिंदी के आदमी हैं, मगर उनकी रची प्रेम कहानी पढ़कर नए वाले लौंडे बहुत दिनों तक पानी भरेंगे।

(युगवार्ता में प्रकाशित)
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

चालीस की सड़क

दुनिया अब बाज़ार में बदल गई है
दोस्त अब आत्महत्याओं में बदल गए हैं
मंच अब मंडियों में बदल गए हैं
कविताएं अब पंक्तियों में बदल गई हैं

तुम्हारी याद एक बच्चे की नींद में बदल गई है
मेरा रोना अब लोरियों में बदल रहा है।
इस वक्त जो मैं खड़ा हूं
चालीस की तरफ जाती एक सड़क पर
जिसका नाम जीवन है
और जो एक पीड़ा में बदल गया है - 

मैं बदलना चाहता था एक प्रेमी में
एक अकेले कुंठाग्रस्त कवि में बदलता जा रहा हूं

दुनिया बदल जाती केले के छिलके में 
तो कितना अच्छा होता
फिसल जाते हम सब।

दुनिया एक प्लेस्कूल में बदल गई है
जहां मेरे दो बच्चे पढ़ते हैं
चहचहाते हैं, नई भाषाएं सीखते हैं
दुनिया का नक्शा काटते हैं।
और मैं उनके लौटने का इंतज़ार 
करता हूं सड़क के उस पार

मैं एक भिक्षुक में बदलना चाहता था
जिसके कटोरे में मीठी स्मृतियां होतीं 
मगर मैं एक चौकीदार में 
बदलता जा रहा हूं
सावधान की मुद्रा में खड़े
उम्र के बुझते हुए लैंप पोस्ट के नीचे

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 31 जुलाई 2024

रिंगटोन

एक सस्ता फोन मां के पास है
जो चाह कर भी नहीं टूटता
पिता के पास भी है फोन
वह ख़ुद भी टैंपर्ड ग्लास की तरह
टूटने से बचाते हुए हमें
हमारी सुरक्षा के भ्रम में हैं।

एक लैंडलाइन अब तक है 
हमारे यहां जो कुछ दिन में
इतिहास बन जाएगी।

जितने लोग हैं दुनिया में
उनसे कहीं ज़्यादा हैं फोन
ग़लत नंबर वालों के कॉल सबसे ज़्यादा
कर्ज़ वालों के भी
थाई मसाज कराने के लिए भी 
कर लेता है कोई अजनबी संवाद।
कोई वोट मांगने के लिए भी
कर लेता है झूठमूठ याद। 

जो असल में याद आते हैं
बहुत प्रतीक्षा करने पर भी 
नहीं आता उनका कोई फोन कॉल

विज्ञान तुम आगे बढ़ो इतना कि
जीवन-मृत्यु के दो संसारों में 
बंट गए अभिन्न लोग
एक बार कॉल कर सकें एक-दूसरे को
या किसी रिंगटोन के सहारे ही
खोल दो उनकी अनंत नींद

कविता में याद करने की अपनी सीमाएं हैं।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 17 जुलाई 2024

पुकार


देखो मां!
तुमसे मिलने कौन आया है

मुझे गिराओ किसी पत्ते की लंगड़ी से
मैं चूमूंगा मिट्टी 
पत्ते फूल की तरह झड़ेंगे

मैं आंगन में अकेला टहलता हूं
एक बूढ़ी अलगनी है, 
एक उदास कुआं है
मिट्टी के चूल्हे में सिर्फ धुआं है
इस वीराने में रोऊंगा नहीं
जानता हूं
तुम यही छिपी हो कहीं

देखो ये किसके नन्हें पांव है
जो अपने पुरखों को गुदगुदी करते हैं

आओ खेलें लुकाछिपी
एक दो तीन चार
...
धप्पा करो एक बार

सुनो मेरी पुकार
ढूंढ रहा हूं अनंत तक तुम्हें।

                                                                          
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 मई 2024

याद का आखिरी पत्ता

विजय
छल पर निश्छल की
कोलाहल पर शांति की
युद्ध पर विराम की
अनेक पर एक की
हंसी पर आंसू की 
मृत्यु
एक उपलब्धि है
जिस पर गर्व करना मुश्किल है

तुमने वह पा लिया मुझसे पहले
जिसके बाद कुछ पाने की इच्छा नहीं बचती
मृत्यु बुद्ध हो जाना है
रोना, कलपना, मिलना बिछड़ना
सब छोड़ शुद्ध हो जाना है

मन एक साथ इतनी आवाज़ें करता था
अब शांत है
स्मृतियां धीमे धीमे टहलती हैं

हमारी याद में एक नंबर पर चलती गाड़ी है 
एक फिरोज़ी रंग की नहीं खरीदी गई साड़ी है
एक रिसता हुआ नल है
सीलन वाली दीवार है
एक नहीं सुनी गई पुकार है
और कभी न खत्म होने वाला इंतजार है

उस पत्ते पर अब तुम्हारा चेहरा है
जो बोधिवृक्ष से टूट कर गिरा था
हमारी याद में एक पत्ता खड़कता है
और उसे छू लेने को
मुझ सा कोई अनंत तक लपकता है।

निखिल आनंद गिरि

मरने की फुरसत

गो कि यही चलन है मेरी दुनिया का
जीते जी भुला दिए जाते हैं लोग
अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो

ख़ैर बताओ बातें अपनी दुनिया की
कुछ तो अलग दिखाई देता होगा सब
क्या वहां भी पैदल चलना पड़ता है
चलते चलते चप्पल टूट भी जाती है
क्या वहां भी मुझसा कोई हाथों में
टूटी चप्पल लेकर मीलों चलता है

क्या वहां भी छोटी मोटी अनबन पर
साथी यूं ही रूठ जाया करते हैं
या फिर जैसे तुम्हें थी जल्दी जाने की
वहां भी ऐसे हाथ छुड़ाया करते हैं
फिर सालों तक आंसू वाली रातों में
सपने बनकर आया जाया करते हैं?

वहां किताबें तो होंगी ना पढ़ने को
जिसमें कोई फूल की पत्ती रहती हो?
बाग बगीचे घुघू पाखी की चीचीं 
और नदी भी कोई धीमे बहती हो?
यहां नदी में उतरी थीं तो पार गईं 
वहां नदी से आने की ज़िद करती हो?

मेरा क्या है मैं तो जैसा तैसा हूं
तुम्हें ही ज़्यादा सर्दी गर्मी लगती थी
मीठी वाली गोली तुम्हें खिलाने को
मन बहलाने को रखनी ही पड़ती है
वहां की दुनिया में भी क्या बीमारी से
अच्छे भलों की दुनिया रोज़ उजड़ती है?

अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो
इस दुनिया से उस दुनिया की दूरी का
कोई भी अंदाज़ा मुझको मिल जाता
तो मैं बच्चों के साथ कुछ ना कुछ करके
तुमसे मिलने ट्रेन पकड़ के आ जाता

ठीक से रहना, तुम्हें ठीक की आदत थी
मैं तो जैसे तैसे ठीक ही रहता था
तुमको जाने की जल्दी थी चली गईं
वक्त के आगे किसकी लेकिन चलती है
यहां तुम्हारी उम्र भी मुझको जीनी है
मरने की फुरसत ही नहीं निकलती है।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 24 अप्रैल 2024

जाना

तुम गईं..

जैसे रेलवे के सफर में

बिछड़ जाते हैं कुछ लोग

कभी न मिलने के लिए

 

जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो

जैसे नए परिंदों से घोंसले

जैसे लोग जाते रहे

अपने-अपने समय में

अपनी-अपनी माटी से

और कहलाते रहे रिफ्यूजी

 

जैसे चला जाता है समय

दीवार पर अटकी घड़ी से

जैसे चली जाती है हंसी

बेटियों की विदाई के बाद 

पिता के चेहरे से


तुम गईं

जैसे होली के रोज़ दादी

नए साल के रोज़ बाबा

जैसे कोई अपना छोड़ जाता है

अपनी जगह 

आंखों में आंसू


निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

नदी तुम धीमे बहते जाना

नदी तुम धीमे बहती जाना 
मीत अकेला, बहता जाए
देस बड़ा वीराना रे
नदी तुम..

बिना बताए, इक दिन उसने
बीच भंवर में छोड़ दिया
सात जनम सांसों का रिश्ता
एक झटके में तोड़ दिया
एक नदी भरकर आंखों में
फिरता हूं दीवाना रे
नदी तुम.. 

वही पुरानी गलियां सारी
वही शहर के रस्ते हैं
वही फूल जो तुमने रोपे
मुझे देखकर हंसते हैं
किसे दिखाएं जीते जीते
घुट घुट कर मर जाना रे
नदी तुम..

उफनती लहरों से बचकर
मछलियों लेना उसको धर
बड़ा भोला है वो दिलबर
नदी तुम रहना मां बनकर
नदी वो लंबी नींद में होगी
उसको हौले से सुलाना रे
नदी तुम धीमे बहती जाना रे..



निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

प्रेतशिला

प्रिय जो छोड़ गया शरीर 
उसे जलाने के बाद
धूप में तपती सीढियां चढ़कर 
जलाने होते हैं तलवे
उसकी याद को छोड़ आना होता है 
सात सौ सीढ़ियों के उस पार
....
....
तब जाकर मुक्ति देती है प्रेतशिला

प्रेतशिला मुक्ति का द्वार है 
एक बार मुड़े तो
पीछे मुड़कर देखना तक मना है
छोड़नी होती हैं
मिलने की तमाम अधूरी इच्छाएं
रोते रोते छोड़नी होती हैं
हंसी खुशी बिताई तमाम स्मृतियां

अब उसे कितना बुखार?
किस मौसम में कैसा व्यवहार
कितने कपड़ों को साफ किया उसने
कितने बर्तन धोए जले जले
कितनी रातें तन्हा चांद तले!
सब कुछ छूट जायेगा

उतरती सीढियों में टकराती हैं निगाहें
ऊपर चढ़ते बिलखते नए चेहरों से
उनको हौसला भरकर झूठ कहना होता है
"बस कुछ सीढियां और"
कितनी सीढियां, कितने बिछोह!
किस किस से पूछा जाए
किसने कैसे साथ छोड़ा, ओह!

किसी की पत्नी जलकर मरी
किसी की डूबकर नदी में
किसी की पत्नी को लील गई
कम उम्र में ही बीमारी
सब सीढ़ियों पर रोएंगे

हर साल हर महीने हर हफ्ते हर घड़ी
कोई न कोई आएगा प्रेतशिला
अपने-अपने प्रिय प्रेतों के लिए 
नए कपड़े लेकर
प्रिय पकवान, कोई फोटो या कोई हंसती तस्वीर
रोते रोते लाएगा, छोड़ जायेगा
सशरीर

यह प्रेतशिला नहीं
आंसुओं का टीला है
जहां आंसुओ के आरपार
जीवन और मृत्यु के धागे उघड़ रहे हैं।

(प्रेतशिला गया के पास एक जगह है जहां अपने प्रिय की मृत्यु के बाद मुक्ति के लिए आने का रिवाज है)

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं
जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह 
लटकी थी देह
उधर लुढ़क गई।
मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने
एक शरीर की मृत्यु को।

रोते हुए सगे संबंधियों के बीच
मैंने देखा वो एक चेहरा 
जिसके पास रोने को कोई उपयुक्त वजह नहीं थी।
वह उस औरत का दुधमुंहा शिशु था
जिसे दूध पिलाकर शरीर छूट गया मां का।

वह शिशु अब दूध के लिए रोता नहीं
उसने मृत्यु को समझा आठ महीने में
अब जीवन को समझेगा
निर्बाध।

वह अपनी बड़ी बहन को देखेगा तो मां याद आयेगी
बड़ी बहन उसे देखेगी तो मां याद आयेगी
दोनों पिता को देखेंगे तो मां याद आयेगी
पिता रोने की उपयुक्त जगह ढूंढकर
रोएंगे तो सब याद आएगा ।

कोई बस ख़ाली सी
कोई मंदिर सूना सा
कोई किताब चेहरे जितनी 
कोई पर्दा अकेला सा
कोई गली अनजानी सी
कोई समय अनमना सा
क्यों नहीं मिलता 
हंसते मज़बूत दिखते पिताओं को

पिताओं के पास रोने की जगह क्यूं नहीं होती 
दुनिया में?

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 25 जनवरी 2024

चालीस की ओर

मैंने एक डायरी खरीदी
कविताएं लिखने के लिए
फिर उसमें रोज़ का खर्चा लिखने लगा
मोटी डायरी थी
और खर्च करने को पैसे नहीं थे
प्रेम था थोड़ा बहुत
कविताएं उससे भी कम।

समय हमारी इच्छाओं से चलता हुआ घोड़ा नहीं
समय केले का छिलका है
फिसल रहे हैं हम सब
दुनिया प्रेमिका की तरह है
एक दिन भुला देगी।

पहले पिता फिसलेंगे या मां
यह डर इतना बड़ा है कि
सोचते सोचते मेरे पांव भी अब छिलके पर हैं
बच्चे सुरक्षित हैं फिलहाल
लेकिन बस मेरे खयालों में ही।

बच्चों के लिए क्या है दुनिया
सिवाय प्लेस्कूल के
शोर बहुत है और उसी से सीखना है।

चालीस की तरफ़ आते आते लगता है
जीवन में कोई ईशान कोण नहीं
सब दिशाओं में वास्तु का दोष है

जब दाढ़ी नहीं उगती थी
तो दाढ़ी उगना आख़िरी इच्छा की तरह थी 
अब दाढ़ी बनाने में 
सुबह का सबसे कीमती समय ज़ाया होता है।

तानाशाह की दाढ़ी सिर्फ बच्चा खींच सकता है
चालीस की ओर का कोई आदमी 
सिर्फ गोली खा सकता है
गोली या तो डॉक्टर लिखेगा
या विद्रोह में शामिल होने पर
कोई हमउम्र पुलिस अफ़सर

इस उम्र पर बहुत कुछ लिखा गया
मगर लिख देने से क्या होता है
मेरी प्रेमिका ये उम्र नहीं देख सकी

जब लगा मर जायेगी
बच गई
जब लगा बच जाएगी 
मर गई


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 18 जनवरी 2024

दुख का रुमाल

इस सर्दी में कंबल ज़रा-सा सरका
तो सुन्न पड़ गया अंगूठा
हवा के साथ सुर्र से घुस आई
तुम्हारी याद दुख बनकर
कोई सुख ओढ़ाने नहीं आया।

लू वाली गर्मियों में
हाथ वाले पंखे की खड़-खड़ बन
बारिश के मौसम में
चप्पलों की छप छप बन
ऐसे ही आती रहेगी याद।

टिफिन में मीठे अचार का टुकड़ा बनकर भी 
याद आ सकती है
या अजनबी दिल्ली में पहली बार
ग़लत बस में चढ़ने की डांट बनकर

तुम्हारा जाना बड़ा दुख है
इससे बड़ा दुख है
तिल-तिल याद का आना

ज़िंदगी एक दुख भरे गाने की तरह है
जिसके रियाज़ में आते हैं आंसू
आ जाती है तुम्हारी याद भी
आंसू पोंछते हुए रुमाल की तरह

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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