किसी भी शहर या इलाके को
समझने के लिए गूगल के बजाय गलियों में घूमना मुझे हमेशा ज़्यादा बेहतर लगा है। कई शहरों या लोगों को एक साथ समझना हो तो
हिन्दुस्तान में दो और विकल्प हो सकते हैं। एक तो ट्रेन का सफर और दूसरा शादियों
के फंक्शन। इस अप्रैल के महीने में मुझे दोनों ही मौके मिले।
सीज़न हो ऑफ-सीज़न, ट्रेन
का सफर बिहार के किसी मुसाफिर के लिए हमेशा ‘कैटल क्लास’ का सफर ही होता है। मेरा अनुभव थोड़ा लंबा है तो
अब लंबी ट्रेन यात्राओं के लिए ‘जुगाड़’ ढूंढना सीख गया हूं। एसी बोगी के अटेंडेंट को कुछ पैसे
देकर ऐसी जगह पर रात काटी जा सकती है जहां टीटी आपको ढूंढते रह जाएंगे। जैसे-तैसे बिहार पहुंचकर एक रिसेप्शन में पहुंचा
तो देखा अब वहां भी टेबल-कुर्सी के बजाय ‘बफे सिस्टम’ (buffet) ही चल रहा है। अगर आपको बफे
सिस्टम में भी खाने को सब कुछ मिले और चम्मच न मिले तो यकीन मानिए आप बिहार में
हैं।
इसके बाद बिहार और बंगाल की
सीमा पर दूसरी शादी में जाने का मौका मिला। किसी भी राज्य का विकास देखना-समझना हो
तो उसके सुदूर बॉर्डर (सीमांत) इलाकों को देखना चाहिए। कटिहार और मालदा के बीच का
इलाका, जहां मुझे दो दिन गुज़ारने थे, इतने पिछड़े हैं कि अब भी वहां बड़ी
गाड़ियां देखकर बच्चे पीछे भागते हैं और धूल भरी सड़कों में आपका चेहरा सन जाता है।
यहां न ओला चलती है, न ऊबर। न ऑड है, न ईवन। सिर्फ एक पैसेंजर ट्रेन है जो दिन में
तीन बार मालदा तक जाती है।
बंगाल की शादियों में एक
बात ग़ौर करने लायक थी कि खाने-पीने (हलवाई) का सारा ज़िम्मा पुरुषों की बजाय महिलाओं
के हाथ में था। चार महिलाओं की टीम ने शाम होते-होते कई स्वादिष्ट सब्ज़ियां और
पकवान तैयार कर डाला। समसी (मालदा का एक क़स्बा) में मुस्लिम आबादी ज़्यादा है,
मगर एक मस्जिद के ठीक सामने हिंदू शादी में ऑर्केस्ट्रा लगा था और पूरी रात
बेरोकटोक सबने मस्ती की। ये बात तब की है, जब पूरे बंगाल में चुनाव चल रहे हैं।
मालदा वही इलाका है जहां हाल ही में सांप्रदायिक हिंसा की ख़बरों से मीडिया की
नज़र पहली बार उधर गई थी। मगर उनकी नज़र ऐसी ज़रूरी चीज़ों पर भी जानी चाहिए जो
शोर कम मीठा सुकून ज़्यादा देती हैं, बिल्कुल मालदा के मशहूर आमों की तरह।
निखिल आनंद गिरि