9 अगस्त की ही एक अमावस भरी रात थी जब इस ब्लॉग के सर्वेसर्वा यानी हम धरती पर आए थे.....हर साल इस रोज़ कविता बन ही आती है..इस बार पुरानी कविताओं को फिर से शेयर करने का जी चाहता है...आपका जी चाहे तो दाद और जन्मदिन की मुबारकबाद देते जाएं...
चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...
तितर-बितर तारों के दम पर,
चमचम करता होगा रात का लश्कर,
चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...
एक दो कमरों का घर रहा होगा,
एक दरवाज़ा जिसकी सांकल अटकती होगी,
अधखुले दरवाज़े के बाहर घूमते होंगे पिता
लंबे-लंबे क़दमों से....
हो सकता है पिता न भी हों,
गए हों किसी रोज़मर्रा के काम से
नौकरी करने....
छोड़ गए हों मां को किसी की देखरेख में...
दरवाज़ा फिर भी अधखुला ही होगा...
मां तड़पती होगी बिस्तर पर,
एक बुढ़िया बैठी होगी कलाइयां भींचे....
बाहर खड़ा आदमी चौंकता होगा,
मां की हर चीख पर...
यूं पैदा हुए हम,
जलते गोएठे की गंध में...
यूं खोली आंखे हमने
अमावस की गोद में...
नींद में होगी दीदी,
नींद में होगा भईया..
रतजगा कर रही होगी मां,
मेरे साथ.....चुपचाप।।
चमचम करती होगी रात।।।
नहीं छपा होगा,
मेरे जन्म का प्रमाण पत्र...
नहीं लिए होंगे नर्स ने सौ-दो सौ,
पिता जब अगली सुबह लौटे होंगे घर,
पसीने से तर-बतर,
मुस्कुराएं होंगे मां को देखकर,
मुझे देखा भी होगा कि नहीं,
पंडित के फेर में,
सतइसे के फेर में....
हमारे घर में नहीं है अलबम,
मेरे सतइसे का,
मुंहजुठी का,
या फिर दीदी के साथ पहले रक्षाबंधन का....
फोटो खिंचाने का सुख पता नहीं था मां-बाप को,
मां को जन्मतिथि भी नहीं मालूम अपनी,
मां को नहीं मालूम,
कि अमावस की इस रात में,
मैं चूम रहा हूं एक मां-जैसी लड़की को...
उसकी हथेली मेरे कंधे पर है,
उसने पहन रखे है,
अधखुली बांह वाले कपड़े...
दिखती है उसकी बांह,
केहुनी से कांख तक,
एक टैटू भी है,
जो गुदवाया था उसने दिल्ली हाट में,
एक सौ पचास रुपए में,
ठीक उसी जगह,
मेरी बांह पर भी,
बड़े हो गए हैं जन्म वाले टीके के निशान,
मुझे या मां को नहीं मालूम,
टीके के दाम..
छत पर मैं हूँ और चाँद है...
आज न जाने जब से मेरी आँख खुली है,
दिन का ताना-बाना थोड़ा-सा बेढब है...
सूरज रूठे बच्चे जैसी शक्ल बनाकर,
आसमान के इक कोने में दुबक गया है...
कमरे के भीतर सन्नाटा-सा पसरा है...
कैलेंडर पर जानी-पहचानी सी तारीख दिखी है...
(जाना-पहचाना सा कुछ तो है कमरे में....)
नौ अगस्त....
नौ अगस्त...
बचपन में माँ ठुड्डी थामे कंघी करती थी बालों पर,
पापा हरदम गीला-सा आशीष पिन्हाते थे गालों पर,
बड़े हुए तो दूर अकेले-से कमरे में,
गीली-सी तारीख है,मैं हूँ,कोई नहीं है....
रिश्तों की कुछ मीठी फसलें,
बीच के बरसों में बोईं थीं,
वक्त के घुन ने जैसे सब कुछ निगल लिया है....
बढ़ते लैंप-पोस्ट और रौशनी की हिस्सेदारी के बीच,
लम्बी सड़कों पर सरपट दौड़ती साँसे,
जिंदगी को कितना पीछे छोड़ आई हैं,
अब ये भरम भी नहीं कि,
पीछे मुड़कर हाथ बढाओ तो
जिंदगी मेरी अंगुली थामकर चलने लगे....
एक शहर था,
जहाँ मेरी एक सिहरन,
तुम्हारे घर का पता ढूंढ लेती थी,
और फ़िर,
शोरगुल भरे शहर में,
तुम्हारे अहसास मैं आसानी से सुन पाता था...
एक शहर जहाँ जिस्म की दूरियां,
एहसास के रास्ते में कभी नहीं आयीं,
कभी नहीं.....
आज मुझे अहसास हुआ है,
उम्र का रस्ता तय करने में,
कुछ न कुछ तो छूट गया है...
कच्चे ख्वाब पाँव के नीचे,
नए ख्वाबो को लपक रहा हूँ....
हांफ रहा हूँ,
हाँफते-हाँफते अब अचानक मुझे,
याद आया है कि,पिछले मोड़ पर
नींद फिसल गई है "वॉलेट" से,
दिल धक् से बेचैन हुआ है....
इतनी लम्बी सड़क पे जाने किस कोने में,
बित्ते-भर की नींद किसी चक्के के नीचे,
अन्तिम साँसे गिनती होगी....
ख्वाब न जाने कहाँ मिलेंगे..
नौ अगस्त पूरे होने में
बीस मिनट अब भी बाकी हैं,
छत पर मैं हूँ और चाँद है...
(वो भी आधा, मैं भी आधा)
चाँद मेरे अहसास के चाकू से आधा है,
केक समझकर मैंने आज इसे काटा है,
आधा चाँद उसी शहर में पहुँचा होगा,
जहाँ कभी एहसास कि फसलें उग आई थीं,
जहाँ कभी मेरे गालों पर,
गीले-से रिश्ते उभरे थे....
..............................
ख़ास वक्त है, रोना मना है...
आओ इक तारीख सहेजें,
आओ रख दें धो-पोंछ कर,
ख़ास वक्त है....
कलफ़ लगाकर, कंघी कर दें...
आओ मीठी खीर खिलाएं,
झूमे-गाएं..
लोग बधाई बांट रहे हैं,
चूम रहे हैं,चाट रहे हैं...
किसी बात की खुशी है शायद,
खुश रहने की वजह भी तय है,
वक्त मुकर्रर
9 अगस्त,
घड़ियां तय हैं
24 घंटे...
हा हा ही ही
हो हो हो हो
हंसते रहिए,
ख़ास वक्त है,
रोना मना है...
खुसुर-फुसुर लम्हे करते हैं,
बीते कल की बातें,
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा दिन बिखरे हैं,
रेशा-रेशा रातें....
उम्र की आड़ी-तिरछी गलियों का सूनापन,
बढ़ता है, बढ़ता जाता है...
एक गली की दीवारों पर नज़र रुकी है...
दीवारों पर चिपकी इक तारीख़ है ख़ास,
एक ख़ास तारीख पे कई पैबंद लगे हैं...
हूक उठ रही दीवारों से,
उम्र की लंबी सड़क चीख से गूंज रही है...
जश्न में झूम रहे लोगों की की चीख है शायद,
जबरन हंसते होठों की मजबूरी भी है,
उघड़े रिश्ते,भोले चेहरों का आईना,
कभी सिमट ना पाई जो, इक दूरी भी है...
वक्त खास है,
आओ चीखें-चिल्लाएं हम...
जश्न का मातम गहरा कर दें...
इसको-उसको बहरा कर दें...
आओ ग़म की पिचकारी से होली खेलें,
फुलझड़ियां छोड़ें...
आओ ना, क्यों इतनी दूर खड़े हो साथी,
सब खुशियों में लगा पलीता,
हम-तुम वक्त की मटकी फोड़ें...
ख़ास वक्त है,
इसे हाथ से जाने न देंगे,
जिन घड़ियों ने जान-बूझकर
कर ली हैं आंखें बंद,
उनकी यादें भी भूले से
आने न देंगे...
सांझ ढले तो याद दिलाना
आधा चम्मच काला चांद,
वक्त की ठुड्डी पर हल्का-सा,
टीका करेंगे...
तन्हा चीखों का तीखापन,
फीका करेंगे....
हा हा ही ही
हो हो हो हो
हंसते रहिए,
ख़ास वक्त है,
रोना मना है...
निखिल आनंद गिरि