65 साल के हैं डॉ प्रेमचंद सहजवाला...दिल्ली में मेरे सबसे बुज़ुर्ग मित्र....दिल्ली बेली देखने का मन मेरा भी था, उनका भी...हालांकि, चेतावनी थी कि इसे बच्चों के साथ न देखें...मतलब, 'बूढ़ों' के साथ भी न देखने की छिपी हिदायत भी थी....फिर भी, हमने सपरिवार जाने का रिस्क लिया....मतलब, प्रेमचंद जी, उनकी हमउम्र पत्नी, सुपुत्र कानू और मैं....हॉल की सबसे बुज़ुर्ग ऑडिएंस के साथ कानू और मैं थोड़ा असहज तो थे, मगर अनुभव अलग ही था....ख़ैर, पूरी फिल्म देखने के बाद प्रेम अंकल और आंटी चुपचाप बाहर निकल गए...अंकल ने बिना पूछे कहा, ये फिल्म आमिर ने बनाई है, ये यक़ीन नहीं होता...और आंटी से मैंने राय मांगी तो उन्होंने कहा, क्या सचमुच इस पर कुछ डिस्कशन की जा सकती है...तो मैंने समीक्षा लिखने का विचार छोड़कर ये कविता ही लिख डाली..हां, मेरा इतना ही कहना है कि आइंदा समीक्षा पढ़कर फिल्म देखने से पहले दस बार सोचूंगा..आखिर, दो सौ रुपये (और मेट्रो का किराया अलग से) की भी कोई क़ीमत होती है....
कभी आईने के सामने खड़े होकर
ज़ोर-ज़ोर से बकी हैं गालियां आपने?
बकी तो होंगी कभी किसी पर खीझ से....
मगर हंसी तो नहीं आई होगी ज़रा-सी भी...
अच्छा बताइए,
आप टट्टी देखकर कितनी देर तक खुश हो सकते हैं...
क्या दो सौ रुपये देकर कहा है किसी को आपने,
कि भाई बको गालियां कि हमें हंसना है...
मेरी पीठ के नीचे का जो हिस्सा है...
वहां पटाखे बांध कर जला दो भीड़ में....
थकी-हारी भीड़ खिलखिला ले ज़रा...
क्या मेट्रो में सवार उदास चेहरों को पढ़कर
शर्तिया बता सकते हैं आप,
कि वो किसी ऐसे फ्लैट में रहते हैं,
जिनके मकानमालिक दिखने में शरीफ हों,
और हों एक नंबर के अय्याश?
कि जहां पानी नहीं आए,
तो संतरे के जूस से हगना-मूतना संपन्न होता हो...
खैर छोड़िए, इतना बता दीजिए...
बाज़ार में कब नहीं थी गालियां
या हमारे घर में ही...
इतना तो मानते ही होंगे
कि आदमी के पास जब कुछ कहने को नहीं होता खास..
तभी कुंठा में निकल आती हैं गालियां...
क्या रोग सिर्फ दिल्ली के पेट में होते हैं?
और जहां टिशू पेपर या संतरे नहीं मिलते,
वहां क्या घास की ज़मीन रगड़ने पर भी हंसते हैं लोग?
ख़ैर छोड़िए, हम जादा कहेंगे तो आप कहेंगे
कि कोई शहरी गालियां बेचकर ‘अमीर’ खान बनता है,
तो हमारे भीतर का गंवार मन कुढ़ता है....
शहर की भीड़ में बने रहने के लिए...
हम भी तीन घंटे की मोहलत निकालते हैं,
गालियां सुनकर आते हैं
और लोटपोट हो जाते हैं..
निखिल आनंद गिरि
(‘दिल्ली बेली’ से सही-सलामत लौटकर आनन-फानन में यही लिखना बन पड़ा)
bahut sahi baat kahi hai aapne sahab. main kal se dekh raha hoon sab taareefein hi kiye ja rahe hain. logon ko sunn kar mujhe laga tha ho sakta hai marketing ke liye bhadde gaane banaye honge shayad film sach mein achhi ho. magar sahab film dekh kar aaya hoon aaj. khoon ulta daud raha hai. ichha ho rahi hai koi ek aisa stage mile jahan Aamir Khan se sawal karne ka mauka mile aur main poochhoon kya har do minute par gaaliyaan dena creativity hai? kya gani bhasha ka prayog creativity hai? bhaddi gaaaliyaan dene ke liye bina kahani ki film mein bhadde scenes daal dena creativity hai?
जवाब देंहटाएंTheatre mein public ka reaction dekh kar us se bhi zyada dukh ho raha tha. koi iinsaan gaali de raha hai to log hans kyun rahe hain? main unhein gaaliyaan doon aur kahoon mazak tha to maan lenge?
BHaarat mein jo 'C' Grade movies banti hain 'Sheila ki Jawani' type unmein aur is film mein kya fark hai?
badhai ho is perfect review ke liye.
धन्यवाद जी
जवाब देंहटाएंमै यूँ तो इस फिल्म को १२० रूपये खर्च कर के, माल की पार्किंग में मोटर सायक्ल को पार्क कर के, देखने जाता नहीं लेकिन अब तो इसे इन्टरनेट से भी डाउनलोड नहीं करूँगा, किसी दोस्त ने ला कर दे भी दी तो भी ना कर दूंगा क्योंकि फिल्म चाहे फ्री में मिल जाए पर मेरा वक्त तो बहोत कीमती है ना
आपकी कविता पढ़ कर अच्छी लगी :)
वाह क्या धर के धोया है आपने । ऐसी कवितामई समीक्षा तो पहली बार पढी है , इसे कहते हैं ठीक कनपट्टी पे लगाना । और बिल्कुल सही चिपकाया है आपने । वाहियात ..शब्द अच्छा है इस फ़िल्म के लिए
जवाब देंहटाएंऔर इस पर मुसीबत यह है कि निखिल जैसे मेरे नौजवान दोस्त अंकल लोगों को ऐसी फिल्म दिखाने के लिये फेसबुक पर इश्तिहार छाप देते हैं कि 'दिल्ली बेली' देखने कौन कौन चलेगा? फिर वे चैट पर भी पीछा नहीं छोड़ते. जब उनसे अंकल पूछें कि अच्छा कब देखना चाहता है बेटा तो कहते हैं - 'कहो तो आज ही आ जाऊँ!' इस के बावजूद कविता में लिखते हैं कि बुज़ुर्ग अंकल आंटी के साथ फिल्म देखते हुए असहज महसूस करते रहे! भला कोई इन्साफ करे, नौजवान या बूढा, कि असहज अंकल आंटी हुए या निखिल!
जवाब देंहटाएंफिल्म सारी वीभत्स रस से भरी है या भोंडी कॉमेडी से. किसी सेट में ज़रा सी सुंदरता नहीं है. रजाई के भीतर कोई औरत बेसाख्ता चीखती चिल्लाती एक आदमी का संभोग कर रही है. एक बुरी जगह पर कोई आदमी एक बुज़ुर्ग महिला के वक्षस्थल को ही पंच कर देता है... यदि सेक्स भी फिल्मों में अच्छी बात है तो कोई सौंदर्य नाम की चीज़ तो हो! अर्ध नग्नता भी सुंदर हो तो चलती है, पर ऐसे फूहड़ दृश्य 'लगान' फिल्म के निर्माता की फिल्म में है यह सोच कर और अधिक शर्म आती है भाई. अब मैं यह तो कह नहीं सकता कि फिल्म मत देखो वर्ना आमिर मुझ पर मुकदमा ठोंक सकते हैं अतः केवल अपना ताजिरबा बाँट सकता हूँ. जिसके पास दो सौ रुपए फालतू हों वह किसी गरीब की बेली ना भरे भाई, जा कर दिल्ली बेली देखे...
जवाब देंहटाएंआप ग़ज़ब लिखते हो भाई। आपसे मिलना बनता है। कुछ पल अच्छे कटेंगे।
जवाब देंहटाएंजो हिन्दुस्तान के पुरस्कार समारोह में न जाता हो और विदेशी पुरस्कार के लिए भटकता हो उसकी फ़िल्म देखना तो कब का मैंने छोड़ दिया था।
एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
जवाब देंहटाएंयही विशे्षता तो आपकी अलग से पहचान बनाती है!
भाई आप बहुत अच्छा लिखते हैं। जिसे पढ़कर बहुत खुशी मिलती हैं।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
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