कुछ किताबों के पहले पन्ने पर जंतर लिखकर
हमें वश में करने की साज़िश थी...
गणित उतना जितना हिसाब के काम आ सके,
कि कितने मरे, कितने बाक़ी हैं मर जाने को..
समाजशास्त्र जिसमें लिखी होती थी,
लड़की की शादी की सही उम्र...
और ये नहीं कि जब चूमने का मन करे तो,
मौलिक अधिकार के बदले मजबूर पिता क्यों याद आते हैं...
भूगोल में कभी नहीं दिखा तुरपाई करती मां का चेहरा...
जहां कहते हैं बसती है सारी दुनिया....
तो फिर वो क्या था जो किताबों में दर्ज था..
मां की जगह....
जंतर ही होगा....
अंग्रेज़ी इतनी कि बस पूछिए मत...
चलिए बता देते हैं....
इतनी कि कूंकूं करते...
जब बोलें बड़े सलीके से,
मगरूर हाकिमों के सामने...
तो लगे कि इंसान की योनि में भटक कर आ गए,
हमें तो दुम वाला एक जानवर होना था...
और क्या बताएं उस दोगले समय के बारे में...
जब लिखावट के नंबर मिला करते थे...
और हमें कंप्यूटर भी सिखाया गया..
जहां सब लिखावटें एक-सी बोरिंग....
सब निर्देश एक जैसे उबाऊ...
इतिहास भी आधा-अधूरा मिला पढ़ने को...
सनकी राजाओं का ज़िक्र ही तो इतिहास नहीं.....
ख़त्ताती के उन हाथों का क्या,
जिन्होंने रचे खूबसूरत इतिहास,
दीवारों पर, मीनारो पर, रौज़ों पर....
और अब कोई नामलेवा तक नहीं...
उस कोचवान इलियास का इतिहास भी तो हो..
जिसकी सात पुश्तों ने किया अदाब..
नवाबों की बेगमों को...
और झुके रहे उनकी खिदमत में....
और बेटों को पुश्तैनी शौक के बजाय सिखाया हुनर,
मेकैनिक का, मिस्त्री का...
कि पैसा ज़रूरी है शौक से ज़्यादा...
जिन बेंचों पर टिका के बैठे रहे बचपन...
उनका इतिहास कहां मिलेगा...
कि टूटीं, कि बेच दी गईं....
और उस रोशनदान का,
जहां से दिखती थी बाहर की दुनिया...
और हम तब तक निहारते...
जब तक पेशाब के बहाने उचक कर खड़ा हुआ जा सकता है....
(हिंदी पत्रिका 'पाखी' के जून अंक में प्रकाशित)
निखिल आनंद गिरि
हमें वश में करने की साज़िश थी...
गणित उतना जितना हिसाब के काम आ सके,
कि कितने मरे, कितने बाक़ी हैं मर जाने को..
समाजशास्त्र जिसमें लिखी होती थी,
लड़की की शादी की सही उम्र...
और ये नहीं कि जब चूमने का मन करे तो,
मौलिक अधिकार के बदले मजबूर पिता क्यों याद आते हैं...
भूगोल में कभी नहीं दिखा तुरपाई करती मां का चेहरा...
जहां कहते हैं बसती है सारी दुनिया....
तो फिर वो क्या था जो किताबों में दर्ज था..
मां की जगह....
जंतर ही होगा....
अंग्रेज़ी इतनी कि बस पूछिए मत...
चलिए बता देते हैं....
इतनी कि कूंकूं करते...
जब बोलें बड़े सलीके से,
मगरूर हाकिमों के सामने...
तो लगे कि इंसान की योनि में भटक कर आ गए,
हमें तो दुम वाला एक जानवर होना था...
और क्या बताएं उस दोगले समय के बारे में...
जब लिखावट के नंबर मिला करते थे...
और हमें कंप्यूटर भी सिखाया गया..
जहां सब लिखावटें एक-सी बोरिंग....
सब निर्देश एक जैसे उबाऊ...
इतिहास भी आधा-अधूरा मिला पढ़ने को...
सनकी राजाओं का ज़िक्र ही तो इतिहास नहीं.....
ख़त्ताती के उन हाथों का क्या,
जिन्होंने रचे खूबसूरत इतिहास,
दीवारों पर, मीनारो पर, रौज़ों पर....
और अब कोई नामलेवा तक नहीं...
उस कोचवान इलियास का इतिहास भी तो हो..
जिसकी सात पुश्तों ने किया अदाब..
नवाबों की बेगमों को...
और झुके रहे उनकी खिदमत में....
और बेटों को पुश्तैनी शौक के बजाय सिखाया हुनर,
मेकैनिक का, मिस्त्री का...
कि पैसा ज़रूरी है शौक से ज़्यादा...
जिन बेंचों पर टिका के बैठे रहे बचपन...
उनका इतिहास कहां मिलेगा...
कि टूटीं, कि बेच दी गईं....
और उस रोशनदान का,
जहां से दिखती थी बाहर की दुनिया...
और हम तब तक निहारते...
जब तक पेशाब के बहाने उचक कर खड़ा हुआ जा सकता है....
(हिंदी पत्रिका 'पाखी' के जून अंक में प्रकाशित)
निखिल आनंद गिरि
बेहद संवेदनशील्।
जवाब देंहटाएंbadhiyaa
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत निखिल भाई , अतिसुन्दर, हर शब्द दिल में बैठने लायक है| धन्यवाद
जवाब देंहटाएंकमाल है...बहुत सुंदर निखिल जी...
जवाब देंहटाएंवहां भी पढ़कर अच्छी लगी थी
जवाब देंहटाएंक्या कहूं सर, बस मज़ा आ गया...सच खालिस...
जवाब देंहटाएंकमाल है...बहुत सुंदर निखिल जी...
जवाब देंहटाएंकमाल है...बहुत सुंदर निखिल जी...
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