ज़र्रा-ज़र्रा इक शहर छलनी हुआ है,
आप कहते हैं महज़ इक हादसा है...
रात के खाने का सब सामान था,
दाहिना वो हाथ अब तक लापता है
आपके आने से ही क्या हो जाएगा
छोड़िए भी आपसे कब क्या हुआ है...
एक मेहनतकश शहर के चीथड़े में
ढूंढिए तो कौन है जो खुश हुआ है....
कौन कब मरता है, बस ये देखना है
मुल्क ही बारुद में लिपटा हुआ है
ठीक है मुंबई कभी रुकती नहीं है....
इक समंदर आँख में ठहरा हुआ है...
निखिल आनंद गिरि
(13 जुलाई को मुंबई में हुए बम धमाके के तुरंत बाद... )
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जवाब देंहटाएंमुल्क ही बारुद में लिपटा हुआ है
जवाब देंहटाएंइतना ही बहुत है.
बहुत ही सुंदर अभिवयक्ति..
जवाब देंहटाएंभाई निखिल आप तो कमाल की ग़ज़ल भी लिखते हैं। इस हादसे पर इससे बेहतरीन रचना मैंने नहीं पढ़ी। रोंगटे खड़े हो गए।
जवाब देंहटाएंह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना
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