बुधवार, 20 जुलाई 2011

कौन कब मरता है, बस ये देखना है...

ज़र्रा-ज़र्रा इक शहर छलनी हुआ है,

आप कहते हैं महज़ इक हादसा है...

रात के खाने का सब सामान था,

दाहिना वो हाथ अब तक लापता है

आपके आने से ही क्या हो जाएगा

छोड़िए भी आपसे कब क्या हुआ है...

एक मेहनतकश शहर के चीथड़े में

ढूंढिए तो कौन है जो खुश हुआ है....

कौन कब मरता है, बस ये देखना है

मुल्क ही बारुद में लिपटा हुआ है

ठीक है मुंबई कभी रुकती नहीं है....

इक समंदर आँख में ठहरा हुआ है...


निखिल आनंद गिरि
(13 जुलाई को मुंबई में हुए बम धमाके के तुरंत बाद... )

5 टिप्‍पणियां:

  1. किसी दिन हम भी ऐसे ही किसी ढेर में लापता हो जायेंगे ...

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  2. मुल्क ही बारुद में लिपटा हुआ है

    इतना ही बहुत है.

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  3. भाई निखिल आप तो कमाल की ग़ज़ल भी लिखते हैं। इस हादसे पर इससे बेहतरीन रचना मैंने नहीं पढ़ी। रोंगटे खड़े हो गए।

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  4. ह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना

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