रविवार, 20 फ़रवरी 2011

तुम्हें मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है...

तुम्हे मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है
मैं महसूस करता हूँ तुमको ही अज़ानों में,
अक्सर माँ की लोरी की तरह ही बोल तेरे,
अक्सर घोल देते हैं मिठास मेरे कानों में...
अब मंज़िल ही कोई, और राहगुजर कोई,
हुआ एक भी सफ़र मेरा और ना हमसफ़र कोई,
मैं फिर भी इन उम्मीदों के सहारे चल रहा हूँ,
कि अनगिन वेदना के क्षणों में जल रहा हूँ-
कि तुम इस धूप में भी बरगदों की छाँव बनकर,
कि बनकर तुम किसी झरने का कलकल स्वर ...
सुख, अमर सुख, दे सको मेरी थकानों में.....

मैं अगणित बार खंडित हो रहा हूँ, दिन-प्रतिदिन;
मैं कितनी बार जीते-जी मरा करता हूँ तुम बिन;
बहारें हैं ज़माने में, मेरी खातिर है पतझड़;
इस मायावी दुनिया में खड़ा हूँ हाशिये पर,
मेरी श्रद्धा, मेरा भी प्रेम अब मायावी बनेगा?
दो आत्माओं का मिलन (भी) दुनियावी बनेगा?
सजेंगे आस्था के फूल दुनिया की दुकानों में.....

मैं थक कर चूर हो जाऊं तो सहलाना मुझे तुम,
ये दुनिया जब लगे छलने तो बहलाना मुझे तुम;
ये सौदे, दोस्त-दुश्मन और अय्यारी की बातें;
मेरे बस की नही हमदम; ये दुनियादारी की बातें;
मेरे आँसू यही कहते हैं तुमसे बार-बार
' मुझे लेकर चलो इस मायावी दुनिया के पार'
दफ़न हो जाएँ किस्से भी हमारे दास्तानों में...

तुम्हे मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है,
मैं महसूस करता हूँ तुमको ही अज़ानों में,
अक्सर माँ की लोरी की तरह ही बोल तेरे,
अक्सर घोल देते हैं मिठास मेरे कानों में...

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

लो टाइड थी...

तुमने जो इक सागर जैसा दुख सौंपा था

अनजाने में...
खूब हिलोरें मार रहा है,

बहुत दिनों तक
दिल के सबसे भीतर के खाने में
जज़्ब किया था इस सागर को,
बहलाया भी...
बाहर बहुत उदासी है,
तुम मन के भीतर रहना सागर...

सब कुछ ठीक था,
मगर अचानक,
इक पूनम की चांद रात में
मैंने ये महसूस किया था
मन के भीतर टूटा था कुछ,
लो टाइड थी...
सब्र बांध का टूट गया था...
सागर रस्ता मांग रहा था...
होठों, आंखों के रस्ते से...

मुझको सब मालूम है साथी,
मेरे  होठों का खारापन,
आंखों में कुछ नमक के ढेले...
मुझको सब मालूम है साथी

जब भी तुम ऐसा कहती हो,
मेरी बातों में तल्खी है,
मेरी नज़र में पानी कम है...
तुमने जो इक सागर जैसा दुख सौंपा था..
छलक रहा है,
बरस रहा है...

देखो ना-
हम दोनों ने जो दुख बोया था
कितना बड़ा हुआ है आज....

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे

न चाहते हुए भी,
जब से मासूम पीठों पर,
किताबों का गट्ठर लदा होगा.....
मासूम चेहरों ने बना ली होगी,
बस्ते में अलबम रखने की जगह....

कई बार कच्चे रास्तों पर,
ढेला खाती होगी
आम की फुनगी,
और गिरते टिकोले बढ़ाते होंगे,
प्यार का वज़न...

बिना किसी वजह के,
जब डांट खाते होंगे
बड़े होते बेटे,
प्यार का अहसास,
पहली बार देता होगा थपकी.....

जब नहीं हुआ करते थे मोबाईल,
नहीं पढे जाते थे झटपट संदेश,
आंखें तब भी पढ़ लेती होंगी,
कि किससे होना है दो-चार...
और हो जाता होगा मौन प्यार

ये भी संभव है कि,
अनपढ़ मांएं या बेबस बहनें,
अक्सर याद करती होंगी चेहरा,
तो रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे...

या फिर दाढ़ी बनाते पिता ही,
पानी या तौलिया मांगते वक्त,
अनजाने में पुकारते होंगे कोई ऐसा नाम,
जो शुरु नहीं होता,
मां के पहले अक्षर से....

एक सहज प्रक्रिया के लिए रची गयी रोज़ नयी तरकीबें,
प्यार ने पैदा किये हैं कितने वैज्ञानिक...

ये सरासर ग़लत है कि,
कवि,शायर या चित्रकार ही,
प्यार की बेहतर समझ रखते हैं.....

दरअसल,
जिसके पास मीठी उपमाएं नहीं होतीं
वो भी कर रहा होता है प्यार,
चुपके-चपके....

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कच्ची उम्र की लड़कियां...


ये कविता तीन साल पुरानी है...मन हुआ शेयर की जाए, तो कर दिया...

कभी-कभी होता है यूं भी,

कि घर से कच्ची उम्र में ही भाग जाती हैं लड़कियां,

और पिता कर देते हैं,

जीते-जी बेटी की अंत्येष्टि...

हो जाता है परिवार का बोझ हल्का..


और कभी यूं भी कि,

बेटियां करती हैं इश्क

और पिता देते हैं मौन सहमति

ताकि बच सके शादी का खर्च,

बेटियां मन ही मन देती हैं

पिता को धन्यवाद...

और पिता भी दब जाता है

बेटी के एहसान तले....


कच्ची उम्र में मर्ज़ी से

ब्याह रचाने वाली लड़कियां,

सदी का सबसे महान इतिहास लिख रही हैं

इतिहास जिसका रंग न लाल है न गेरुआ,

इतिहास जिनमें उनका प्रेमी एक है,

पति भी एक

और भविष्य भी एक ही है....

उनकी आंखों में सबके लिए प्यार है

आमंत्रण रहित..


आप चाहें तो आज़मा लें,

अंजुरी-भर प्यार का आचमन

सिखा देगा जीवन को

अपना शर्तों पर जीने का शऊर...


कच्ची उम्र की लड़कियां

जो पैदा होती हैं

दो-तीन कमरे वाले घरों में,

दूरदर्शन या विविध भारती के शोर में

नीम अंधेरे में,

लैंप की मीठी रौशनी में

पढ़ती हैं,

कुछ रूटीन किताबें

और पवित्र चिट्ठियां..

शादी कर उतारती हैं पिता का बोझ,

बनती हैं माएं...


सच कहूं,

उनकी छाती में दूध होता है अमृत-सा,

अपना बहाव ख़ुद तय कर सकने वाली ये लड़कियां,

मुझे लगती हैं गंगा मईया...

जो कभी दूषित नहीं हो सकती...


इतिहास उन्हें कभी नहीं भूल सकता,

जिन्होंने अपनी मजबूर मांओं के साथ,

एक ही तकिये पर सिर रखकर सोते हुए,

रचा है नयी सदी का नया इतिहास

धानी रंग में...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

हम हैं ताना, हम हैं बाना, नाम-पता ना ठौर-ठिकाना...

वो चिट्ठी मेरे सामने ही आई थी जिसमें लिखा था कि आपको 15 फरवरी को साहित्य अकादमी सम्मान दिया जाना है...इस बार उन्हें सरकारी सम्मान मिला था तो टीवी पत्रकार के तौर पर मिलने जाना हुआ। मतलब, उनसे सवाल भी पूछने थे कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला तो कैसा लगा वगैरह वगैरह। ऐसा क्यों होता है कि मैं जब भी उदय प्रकाश से मिलता हूं, मुझे परिस्थितिवश रीटेक लेने ही पड़ते हैं। उदय प्रकाश मन ही मन झुंझलाते हैं, सामान्य होते हैं और फिर हमारी मुलाकात ख़त्म होती है।  उदय जी के आलोचक कुंठा में यहां तक कहते हैं कि उदय प्रकाश पूरे जीवन में 6-7 अच्छी कहानियां ही लिख सके हैं और साहित्य में उनका योगदान इतना ही भर है। खैर, अगर वो एक-दो भी कहते तो मैं मिलने ज़रूर जाता।
एक पल को भी नहीं लगा कि देश का सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान मिलने पर उदय प्रकाश खुश हों। ऐसा लगा कि मोहनदास को सरकारी पहचान मिलने में देरी अपनी सब हदें पार कर चुकी है....अब मोहनदास को एक लाख रुपये का नमकीन चेक खुश नहीं कर सकता।
बहरहाल, समंदर के किनारे पांव लटकाने भर से जिस तरह समंदर का पूरा अहसास होता है, वही इस छोटी मुलाकात  से हुआ। अपने पाठकों के लिए पूरा इंटरव्यू पेश है।  साहित्यिक पत्रिका ' पाखी ' ने भी इस लेख को जगह दी है..

निखिल- उदय प्रकाश को पढ़ने और पसंद करने वाली तीसरी पीढ़ी भी तैयार हो चुकी है। इस लिहाज से साहित्य अकादमी सम्मान मिलने में देरी नहीं हुई?

उदयजी– नहीं, ये तो नहीं कहूंगा। देखिए, इस तरह के जो सांस्थानिक सम्मान हैं, या इनकी स्वीकृतियां मैं कहता हूं; अच्छी रचनाओं को हमेशा देर से मिलती है और नहीं भी मिलती हैं। मैं कई बार कहता रहा हूं कि अगर आप अपने समय को व्यक्त कर रहे हैं और सचमुच आपकी रचनाएं, आपका साहित्य विपक्ष का साहित्य है, तो पुरस्कार के बजाय दंड की ज़्यादा गुंजाइश रहती है। तो खुशी है कि इसको एक सांस्थानिक स्वीकृति मिली और मोहनदास पर मिली। ये महत्वपूर्ण यूं भी है कि माना जाता था कि कहानी ऐसी विधा है, जिसको न कविता जैसी हैसियत प्राप्त है और न ही उपन्यास जैसी। तो ये बहुत इनफीरियर(निकृषट) जैसे जेंडर के समय में सोचते हैं ना कि तीसरा जेंडर (हंसते हुए)...उस तरह...तो (कहानी को) ये स्वीकृति, ये सम्मान नहीं था। निर्मल वर्मा को ज़रूर दिया गया था लेकिन किसी एक कहानी पर नहीं, कहानी संग्रह पर दिया गया था। ये पहली बार हुआ है कि एक कहानी को साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया, और मोहनदास जैसी कहानी को। मैं इस मायने में कहना चाहूंगा; आप सब जानते हैं कि लगभग पिछले दस सालों से कहा जा रहा था कि समकालीन साहित्य के केंद्र में कहानी आ चुकी है, लेकिन ये विडंबना थी कि कहानी को केंद्र में आने के बावजूद, इतना बड़ा उसका पाठक समुदाय होने के बावजूद, इतना बड़ा पब्लिक स्फेयर और इतनी सारी पत्रिकाएं केंद्रित होने के बावजूद कहानी को जो सम्मान और जो गरिमा मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिल रही थी, तो ये बहुत बड़ा डिपार्चर है। और ये कभी न भूलें कि साहित्य अकादमी ने इसके पहले किसी कहानी को पुरस्कृत नहीं किया है। खुशी है, बहुत खुशी है। मैं इसको दरअसल पाठकों के ही दबाव के कारण, उनकी आकांक्षाओं की सांस्थानिक स्वीकृति मानता हूं।

निखिल- आप तो कहते भी रहे हैं कि हिंदी के पावर स्ट्रक्चर (सत्ता प्रतिष्ठानों) से खुद को अलग ही रखते हैं, इस संदर्भ में भी पुरस्कार बड़ा है?

उदयजी – हां, इसे हर कोई जानता है कि एंटी एश्टैब्लिशमेंट(establishment) यानी व्यवस्था विरोधी उसके साहित्यकार हैं। मैं ही क्या, प्रेमचंद भी वही थे। मुक्तिबोध भी वही थे। हर लेखक कहीं न कहीं अपने समय की सत्ता व्यवस्था जो होती है, उससे अलग और उसके विपक्ष में जो प्रजा होती है, जनता होती है, नागरिक होते हैं, मनुष्य होते हैं, ये उनके जीवन की विडंबनाओं और उनकी आकांक्षाओं, सपनों की बात करता है और मोहनदास ऐसी ही कहानी है।

निखिल-  मोहननदास एक दलित पात्र को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानी है। एक गैर-दलित/सवर्ण लेखक को ऐसी कहानी पर पुरस्कार मिलना क्या कहता है? वो भी तब जब दलित लेखकों का बड़ा समूह सक्रिय है?

उदय जी- (हंसते हैं) देखिए, मैं एक चीज़ बताऊं आपको...इस तरह की जो identities हैं ना, दलित हैं, माने intermediary identities हैं, सवर्ण identities हैं, जेंडर की identities हैं...मैं मानता हूं कि जो ऑथर है, लेखक, उसकी भी अलग आइडेंटिटी होती है। और लेखक से ज़्यादा दलित कोई हो ही नहीं सकता क्योंकि आप खुद देखिए, एक दलित ही अपने आपको पॉलिटिकली एसर्ट(?) कर सकता है। एक माइनॉरिटी ही अपने आप को राजनीतिक रूप से एसर्ट(?) कर सकता है। लेखक आज तक कभी अपने आप को एसर्ट(?) नहीं कर पाया क्योंकि किसी संगठन, समुदाय के रूप में, किसी कास्ट के रूप में वह होता ही नहीं है; लेखक हमेशा अकेला होता है। असंगठित होता है। और इसलिए आप जिसे उदाहरण देखें...आप परसों का उदाहरण ही लीजिए कि ज़फर पनाही, इतने महत्वपूर्ण, इतने संवेदनशील पत्रकार, उनको सज़ा और उनको 20 साल तक फिल्म न बनाने, लिखने की बंदिश, कठोर सज़ा दी गई। आप अपने यहां देखिए, एक चित्रकार बाहर है इस देश से। एक लेखिका, जानी-मानी, एक वाक्य बोलती है, वो भी संवैधानिक बात और उसपे देशद्रोह का मुकदमा चला दिया जाता है। तो लेखक होना और सच कहना ये बहुत कठिन है। इसलिए मैं मानता हूं कि लेखक से ज़्यादा दलित, अगर सच्चा लेखक है तो, और कोई होता नहीं है।

निखिल- आपके पाठक और आलोचक भी, और अब तो सरकारी संस्थान भी, कहते हैं कि आपकी कहानियों में जादुई पोएटिक टच होता है। तो आप पहले क्या मानते हैं खुद को, एक कवि या एक कहानीकार?

उदय – नहीं निखिल जी, मैं कवि ही हूं। और मैंने (हंसते हुए) शुरुआत अपनी रचनाओं की, बचपन में, कविताओं से ही की थी। कविता और पेंटिग से। और मेरा ये मानना है कि; उदाहरण भी देता हूं, दोस्तों से भी कहता हूं कि जैसे कुम्हार कोई होता है, मिट्टी से खेलता है, घड़े बनाता है, चाक पर चढ़ाता है तो उसकी ऊंगलियां जानती है कि ये मिट्टी कैसी है, इसे मैं क्या बनाऊं; लेकिन अगर धोखे से कभी वो कोई कमीज़ सिल दे...और लोग उसको दर्जी कहने लगें(हंसते हैं) तो मैं दोस्तों से कहता हूं कि मैं दरअसल कहानियां लिखता ज़रूर हूं लेकिन मैं हूं कवि ही। और आप पढ़ें, मोहनदास पढ़ें, आप कोई भी कहानी पढ़ें, वारेन हेस्टिंग्स का सांड अपने आप में एक कविता है। और एक ऐसी कविता जो आख्यानात्मक कविता है, इसको पाठकों ने पसंद भी किया है। बड़े पैमाने पर पसंद किया है। और जिन कहानियों को आप जानते होंगे, आलोचक या मठाधीश या आचार्य जिनको कहते हैं, जिनको वो दुरुह या दुर्गम कहानियां कहते थे, उनको इतनी बड़ी लोकप्रियता मिली। आज सारी भारतीय भाषाओं में इनका अनुवाद है, विदेशों में भी अनुवाद है। तो मैं कह सकता हूं कि पहली बार शायद मैं एक ऐसा लेखक हूं जिसकों पाठकों का और सारी भारतीय भाषाओं का और सभी का भरपूर प्यार, साथ मिला। मोहनदास नेपाली में भी अनूदित है। वहां भी ये बेस्टसेलर है। अभी नेपाल से लड़के आए थे। तो उर्दू में, अंग्रेज़ी में, जर्मन में, सारी भाषाओं में, कन्नड़, मलयालम, कोई ऐसी भाषा नहीं है, ओड़िया में है, मराठी में है। मराठी में बहुत लोकप्रिय है। आपने ये भी देखा होगा कि पिछली बार अमरावती में दलितों का सम्मेलन, 25000 दलित, वहां मोहनदास, मोहनदास हो रहा था। तो उन्होंने मुझे जो सम्मान दिया अमरावती में, उसने सचमुच जीवन की एक धारा बदल दी। वो एक मोड़ है मेरे जीवन का, बहुत निर्णायक मोड़ है, कि शायद लेखक होते हुए मैंने सचमुच ईमानदारी से; जो सबसे उत्पीड़ित हिस्सा है हमारे समाज का, उसकी आवाज़ और अंतरात्मा को छुआ है और उसके पीछे कोई राजनीतिक स्वार्थ नहीं था। वो एक कंसर्न था, ऐसी चिंता थी, जो हर लेखक को, हर नागरिक को होनी चाहिए।

निखिल – इसका मतलब आपको पहले ही बड़ी सम्मान दे चुके हैं देने वाले?

उदय – क्यों नहीं, जब मेधा पाटेकर ने किताब ‘एक भाषा हुआ करती है...’ का विमोचन किया तो मैंने लिखा कि मेरे लिए ये अब तक का सबसे बड़ी पुरस्कार है। मेधा जी ने लिखा है कि दलितों और पीड़ितों के जीवन के अनुभवों को वाणी देने वाले उदय प्रकाश की किताब का विमोचन करते हुए मुझे खुशी हो रही है। वृंदा करंदिकर, इतने बड़े कवि, जिनका मैं सचमुच सम्मान करता हूं, उन्होंने ‘अरेबा-परेबा’, जिसके मराठी की किताब का पुरस्कार दिया, वो पुरस्कार जो उन्हें ज्ञानपीठ से मिली हुई राशि थी, से चलने वाला पुरस्कार, बड़ा पुरस्कार माना जाता है, महाराष्ट्र फाउंडेशन का पुरस्कार। आप ‘पीली छतरी वाली लड़की’ को देखिए कि पेन अवार्ड मिला। पेन अवार्ड दिया ही इसीलिए जाता है जो ऑप्रेस्ड राइटिंग ऑफ द वर्ल्ड लिटरेचर, दबाई गई, दमित जो आवाज़ें हैं विश्व साहित्य की, उनको दिया जाने वाला सम्मान है। तो मैं ये मानता हूं कि, देखिए साहित्य सिर्फ भाषा का कौशल नहीं है, साहित्य सिर्फ शिल्प की बाज़ीगरी नहीं है और ये भी नहीं कि आप अभी दलित एरा चल रहा है तो दलितों पर एक कहानी लिख दी, कम्युनलिज़्म और सेक्यूलरिज़्म तल रहा है, तो आपने उस एजेंडे पर एक कहानी लिख दी। इतना आसान नहीं होता कुछ भी लिखना। कविता हो चाहे कहानी हो, जब तक अपने समय के जो वास्तविक संकट और अंतर्विरोध हैं, उनको आप नहीं पहचानेंगे, तब तक आप नहीं लिख पाएंगे कुछ भी।

निखिल – एक लेखक के लिए पढ़ना कितना ज़रूरी है। आपके महतवपूर्ण लेखक, कवि कौन रहे हैं?

उदय जी – बहुत...मैं पढ़ता बहुत हूं। सभी ने प्रभावित किया, सबकी प्रेरणाएं हैं। मैं किसका-किसका नाम लूं, विदेशी साहित्यकार भी हैं, अपनी भाषा के भी, अन्य भारतीय भाषाओं के भी साहित्यकार हैं। सबका योगदान है, आप संस्कार वहीं से पाते हैं। एलियट की बड़ी प्रसिद्ध पंक्ति है...जो उसका कथन है ‘tradition and the individual talent’…जो परंपरा है उसी में अपनी वैयक्तिक प्रतिभा भी प्रकट हो सकती है। अगर हम परंपराओं से परिचित नहीं होंगे तो सिर्फ वैयक्तिक प्रतिभाओं के दम पर उछलने-कूदने से कुछ नहीं होता। जैसे आप सिनेमा बनाते हैं, तो सिनेमा के पीछे 20वीं सदी से लेकर आज तक का पूरा इतिहास। उसमें कई बड़े-बड़े काम हो चुके हैं। आपके पहले तारकोवस्की, सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक हो चुके हैं, अब आप उसके बाद बना रहे हैं। तो आपको पूरी परंपरा का, इतिहास का संज्ञान रहना चाहिए और तब आप कुछ नया कर पाएंगे। और आप सोचेंगे कि मैं मौलिक हूं, औप बिना परंपरा को जाने हुए आ जाएंगे तो हास्य पैदा होगा।

निखिल – हिंदी के साहित्यकारों में किन्हें पढ़ना बेहद ज़रूरी मानते हैं?

उदय – मैं तो...हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के जो उपन्यास हैं, ज़रूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि अलग तरह का पोस्ट-मॉडर्न(उत्तर-आधुनिक) उनका नैरेटिव है। दूसरा, मुक्तिबोध मेरी चेतना के केंद्र में रहे हैं, शमशेर को पढ़ना चाहिए। और अज्ञेय को जिनको लगातार निर्वासित-सा किया गया। आप पढ़के देखिए ‘शेखर एक जीवनी’,उनको पढना चाहिए। प्रेमचंद तो रहेंगे ही रहेंगे। उनको तो अवश्य पढ़ना चाहिए, हर कहानी पढ़नी चाहिए। फिर उसके बाद, आज़ादी के बाद, स्वातंत्र्योत्तर जो काल है, जिनकी जन्मशती हम मनाने जा रहे हैं, बाबा नागार्जुन। क्यों नहीं पढ़ना चाहिए। मैंने हाल ही में एक मैगज़ीन के लिए अंग्रेज़ी में लिखा है, कि बाबा नागार्जुन के बारे में धारणा बना दी गई कि वो पेडेस्ट्रियन पोएट हैं, सड़क में खड़े हुए; तो ऐसा नहीं है। आप सोचिए, जिसने मैथिली में लिखा हो, बांग्ला में लिखा हो, संस्कृत में लिखा हो, जो पाली जानता रहा हो, कितनी भाषाओं का ज्ञाता रहा हो। आइजनआवर, टीटो, नेहरू, मिसेज़ गांधी, रजनी पाम दत्त, चीन-भारत विवाद, इन सब पर जिनकी रिमार्केबल(उल्लेखनीय) कविताएं रही हों, उसको आप कहें कि वो एलिट नहीं है, अभिजात नहीं है, वो जनकवि हैं। आपने उनकी ऐसी छवि बना दी। बाबा नागार्जुन अभिजात के कवि थे, एक ऐसे एलिट पोएट थे, जो पीपुल्स एलीट थे, जनता के अभिजात। तो इसी रूप में देखिए, पुनर्व्याख्याओं की ज़रूरत है, पुनर्मूल्याकंन की ज़रूरत है। कोल्ड वॉर का जो समय था, आप जानते हैं कि इतनी ज़्यादा राजनीति थी कि एक तरफ सोशलिस्ट और एक तरफ कैपिटलिस्ट ब्लॉक है, उन दोनों की टकराहट के बीच जो साहित्य रचा गय, उसमें कहा गया कि ये तो ‘शिविरबंदी’ थी। ये उनके खेमे का है, ये हमारे खेमे का है। और आज भी आ देखते हैं कि तरह-तरह के लेखक संगठन बने हुए हैं, गुट बने हुए हैं, उससे बहुत नुकसान हो रहा है। आप सोचिए, शमशेर को लगभग ये मान लिया गया था कि वो प्रगतिशील नहीं हैं। मुक्तिबोध को तो मनोरोगी तक घोषित कर दिया गया था। लेकिन आज देखिए, मुक्तिबोध, शमशेर, अज्ञेय के बिना आप साहित्य की कल्पना नहीं कर सकते।

निखिल – आप कुछ संगठनों की तरफ इशारा कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि राजधानी में पैठ जमाए इन संगठनों की शरण में आकर ही बड़ा साहित्यकार बना जा सकता है, अन्यथा कोई नहीं पूछेगा?

उदय – नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। अब मैं कहां से दिल्ली में रहता हूं। आप अपने समय को देखेंगे, समय के परिवर्तनों को देखेंगे, स्वीकृति देर से ही सही होगी ज़रूर। हां आपका कहना बिल्कुल सही है कि जो राजधानियां हैं, जिनमें दिल्ली भी है, और राज्य के जो सत्ता-केंद्र हैं, जैसे लखनऊ, भोपाल, पटना, वहां जो रहने वाले हैं, उनके लिए एक्सेस(पहुंच) हो जाता है। संगठनों से। वो वहीं रहते हैं, संपर्क बनाते हैं, प्रभाव बनाते हैं, गुट बनाते हैं और एक प्रेशर ग्रुप(दबाव समूह) बनाते हैं। ज़्यादातर यही होता है। मैं एमपी का हूं, कई पीढ़ियों से, मगर अब एमपी के लोगों को ये पता चला है, जब साहित्य अकादमी सम्मान मिला है। मगर, राज्य का शिखर सम्मान अब तक नहीं मिला है। शायद ही उस राज्य का कोई सरकारी सम्मान मिला हो। तो, राजधानियों में ज़रूर केंद्रित रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं ये संस्थाओं से भी कहूंगा कि बड़े शहरों, राजधानियों से अलग हटकर जो छोटे कस्बे, वहां के साहित्यकार, लेखक, कवियों पर भी ध्यान दें। और ये शिकायत बहुतों को है। ऐसे कई महत्वपूर्ण लेखक हैं; वैकम मोहम्मद बशीर, जिन्हें मलयालम का प्रेमचंद कहते हैं, वो कहां रहते थे। कोई त्रिवेंद्रम में नहीं रहते थे। छोटी सी जगह भैरप्पा....वसवन्ना, प्रसन्ना, कई नाम हैं। राजधानियों से थोड़ा विकेंद्रण, आपका कहना सही है, होना चाहिए। जानकीवल्लभ शास्त्री हैं, मुज़फ्फरपुर में पढ़े हैं, उनको सम्मान क्यों नहीं मिला। मुक्तिबोध, छत्तीसगढ़ के छोटे से खंडहर में रहते थे और उनको, अगर उस समय नेहरू जैसे लोग न होते, श्रीकांत वर्मा, नेमिचंद जैन, अशोक वाजपेयी, इन लोगों को श्रेय जाता है कि उन्होंने मुक्तिबोध को पहचान दी, केंद्रीयता दी। हम तो नेमिचंद जैन के आभारी हैं, कि मुक्तिबोध रचनावली पूरी की पूरी सामने आई...देश के सबसे अविकसित प्रदेश में पड़े थए मुक्तिबोध, वहां से।

निखिल – मौजूदा साहित्य में क्या संभावनाएं हैं?

उदय जी – निखिल जी, ये प्रतीक्षा का समय है। चीज़ें इतनी तेज़ी से बदली हैं, बहुत तेज़ी से बदली हैं और बदलती जा रही हैं। आप बेसिकली मानें, मोटे तौर पर तकनीक, पूंजी, श्रम; इन तीनों का क्या चरित्र है, क्या भूमिका है, स्वरूप किया हैं, इससे पता चलता है कि समाज कैसा बना, कैसे बदला। मैं बार-बार कहता रहा हूं कि ये जो 80 के बाद का दौर है, जेसे हम ग्लोबलाइज़ेशन कहते हैं, इसमें न सोचें कि सिर्फ नई अर्थव्यवस्था पैदा हुई है, टेक्नॉलॉजी नई आई है। उसने बड़े पैमाने पर समाज को बदल डाला है। इंटरनेट हैं, मोबाइल, आईपॉड हैं, कम्युनिकेशन(संप्रेषण) के दूसरे साधन हैं, कैपिटल-पूंजी फ्री हो गई हैं आवारा हो गई है। पहले वही पूंजीपति थे, जिनके पास बड़ कैपिटल था। अब फोर्ब्स की सूची में वो हैं, जिनके पास कोई उद्योग, फैक्ट्री नहीं हैं। ताज्जुब है। सर्विस सेक्टर जो नया आया है, पुराने श्रमिकों की हालत खराब कर दी है। आप लोग भी हैं; मीडिया, कॉल सेंटर वाले। यह जो वर्ग आया है नया, क्या इसकी पहचान है। हो क्या रहा है, मैं देख रहा हूं कि जो आज के जीवन में मनुष्य के सामने आने वाले संकट हैं, उनके जो अनुभव हैं, उनको व्यक्त करने वाली कहानियां अभी उस तरह से नहीं आई है। कहीं न कहीं एक हैंगओवर है पुराना, खुमारी इतिहास की, अभी उतरी नहीं है। राजनीति कहीं नहीं है। आप पढ़े फुकुयामा को, पोस्ट ह्यूमन फ्यूचर, साफ कहता है आपका जो समय है, उसकी ड्राइविंग सीट पर राजनीति नहीं है। अब वो है पूरी की पूरी कैपिटल और टेक्नोलॉजी और राजनीति जो है उसकी खिदमतगार, सेवक की भूमिका में है। ये न सोचें कि इस समय कोई भारत का प्रधानमंत्री है, मुख्यमंत्री है। ये सबके सब कॉरपोरेट पूंजी के प्रबंधक हैं। सारी नीतियां बन रही हैं। ऐसे समय में अपने मनुष्य के संकट को देखना बहुत बड़ा टास्क है, साहित्यकारों की ज़िम्मेदारी है।

निखिल – अंत में, कवि उदय प्रकाश क्या कहना चाहेंगे?

उदय – (हंसते हुए) मुझे कविताएं तो याद नहीं रहती अपनी, फिर भी कुछ पंक्तियां जो बार-बार कहता हूं...

आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता
कुछ नहीं बोलने और कुछ नहीं सोचने पर
आदमी मर जाता है
(ये इंटरव्यू उदय जी के घर पर 23 दिसंबर 2010 को लिया गया था)
 
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

अकेले में नहीं मिलने वाली लड़कियां....

आप मुझसे प्रेम करते हैं...

तो चलिए मान लिया कि प्रेम करते हैं...

आपकी सभी शर्तें भी मान लीं...

कि ये नहीं कर सकते, वो कर सकते हैं...

अब जितना बच गया है शर्तों में...

उतना ही प्रेम कीजिए मुझसे...
 
देखना चाहता हूं कैसे बांटती हैं अकेलापन...
 
अकेले में नहीं मिलने वाली लड़कियां...
 
 
निखिल आनंद गिरि

रविवार, 30 जनवरी 2011

ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है...

यहां दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में सदैव तत्पर है...
प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं

जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
और उदास रौशनी का
जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
और बीच में हैं फ्लाईओवर.....

हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...
और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...
इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...
आप कह सकते हैं शर्तियां...
मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...
जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...

हमें ठीक तरह से याद है....
आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'

चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,
जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में
नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,
ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...

काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,
जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...
जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
दुम ज़रूरी है....
और प्यार करने के लिए कंडोम.....

फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...
कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...
ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
हे राम ! कहने की आज़ादी हो....

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

यहां दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में सदैव तत्पर है...

प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं

जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...

ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....

और उदास रौशनी का

जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं

और बीच में हैं फ्लाईओवर.....

हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...

और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...

इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...

आप कह सकते हैं शर्तियां...

मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...

जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...



हमें ठीक तरह से याद है....

आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....

जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-

'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'



चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,

जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में

नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,

ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...



काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,

जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...

जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,

दुम ज़रूरी है....

और प्यार करने के लिए कंडोम.....



फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...

कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...

ये 1948 नहीं कि मरते वक्त

हे राम ! कहने की आज़ादी हो....



इतना तबाह कर कि तुझे भी यक़ीं न हो,

इक था भरम के वास्ते, वो दोस्त भी न हो....

महफिल से वो गया तो सभी रौनकें गईं..

ऐसा न हो वो आए, मगर ज़िंदगी न हो

ठिठुरे हैं जो नसीब, उनका अलाव बन...

सूरज ही क्या कि सबके लिए रौशनी न हो

मेरी ही नज़र छीन ले, कोई शख्स क्यूं गिरे...

मौला तेरे किरदार में कोई कमी न हो...

तौबा कभी न चांद पर, हरगिज़ करेंगे इश्क

उतरे कहीं खुमार, तो पग भर ज़मीं न हो...

साए थे, शोर था बहुत, इतना सुन सका...

कंक्रीट के जंगल में कोई आदमी न हो...

मंज़िल मिली तो कह गए, बाक़ी है कुछ सफ़र

वो उम्र क्या कि उम्र भर आवारगी न हो

ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक

रोने के वक्त हंसने की बेचारगी न हो...



किसी धर्मग्रंथ या शोध में लिखा तो नहीं,

मगर सच है...

प्यार जितनी बार किया जाए,

चांद, तितली और प्रेमिकाओं का मुंह टेढ़ा कर देता है..

एक दर्शन हर बार बेवकूफी पर जाकर खत्म होता है...



आप पाव भर हरी सब्ज़ी खरीदते हैं

और सोचते हैं, सारी दुनिया हरी है....

चार किताबें खरीदकर कूड़ा भरते हैं दिमाग में,

और बुद्धिजीवियों में गिनती चाहते हैं...

आपको आसपास तक देखने का शऊर नहीं,

और देखिए, ये कोहरे की गलती नहीं...



ये गहरी साज़िशों का युग है जनाब...

आप जिन मैकडोनाल्डों में खा रहे होते हैं....

प्रेमिकाओं के साथ चपड़-चपड़....

उसी का स्टाफ कल भागकर आया है गांव से,



उसके पिता को पुलिस ने गोली मार दी,

और मां को उठाकर ले गए..

आप हालचाल नहीं, कॉफी के दाम पूछते हैं उससे...



आप वास्तु या वर्ग के हिसाब से,

बंगले और कार बुक करते हैं...

और समझते हैं ज़िंदगी हनीमून है..

दरअसल, हम यातना शिविरों में जी रहे हैं,

जहां नियति में सिर्फ मौत लिखी है...



या थूक चाटने वाली ज़िंदगी.....

आप विचारधारा की बात करते हैं....

हमें संस्कारों और सरकारों ने ऐसे टी-प्वाइंट पर छोड़ दिया है,



कि हम शर्तिया या तो बायें खेमे की तरफ मुड़ेंगे,

या तो मजबूरी में दाएं की तरफ..

पीछे मुड़ना या सीधे चलना सबसे बड़ा अपराध है...



जब युद्ध होगा, तब सबसे सुरक्षित होंगे पागल यानी कवि...

मां, तुम मेरा गला घोंट देना

अगर प्यास से मरने लगूं

और पानी कहीं न हो...



जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....

अभी वक्त की मारामारी है, कुछ सपनों की लाचारी है,

जगती आंखों के सपने हैं...राशन, पानी के, कुर्सी के...

पल कहां हैं मातमपुर्सी के....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....



अभी वक्त पे काई जमी हुई, अपनों में लड़ाई जमी हुई,

पानी तो नहीं पर प्यास बहुत, ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,

इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....



उम्र का क्या है, बढ़नी है, चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...

घर में मां अकेली पड़नी है, बाबूजी का क़द घटना है,

सोचूं तो कलेजा फटना है, इक दिन टूटेगा......





उसने हद तक गद्दारी की, हमने भी बेहद यारी की,

हंस-हंस कर पीछे वार किया, हम हाथ थाम कर चलते रहे,

जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...



जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ, सर्वस्व समर्पण करते रहे,

तुम मोल समझ पाए ही नहीं, ख़ामोश इबादत जारी है,

हर सांस में याद तुम्हारी है...इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...



अभी और बदलना है ख़ुद को, दुनिया में बने रहने के लिए,

अभी जड़ तक खोदी जानी है, पहचान न बचने पाए कहीं,

आईना सच न दिखाए कहीं! जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....



अभी रोज़ चिता में जलना है, सब उम्र हवाले करनी है,

चकमक बाज़ार के सेठों को, नज़रों से टटोला जाना है,

सिक्कों में तोला जाना है...इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....



इक दिन नीले आकाश तले, हम घंटों साथ बिताएंगे,

बचपन की सूनी गलियों में, हम मीलों चलते जाएंगे,

अभी वक्त की खिल्ली सहने दे... जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..



मां की पथरायी आंखों में, इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,

मेरे आने की आस लिए..उस उम्र का हर पल बोलेगा....

टूटे चावल को चुनती मां, बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,

दिन भर का सारा बोझ उठा, सूना कमरा, सिर धुनती मां....

टूटे ऐनक की लौटेगी रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...



मां तेरे आंचल में सिर रख, मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,

मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....तू चूमेगी, पुचकारेगी,

तू मुझको खूब दुलारेगी...इस झूठी जगमग से रौशन,

उस बोझिल प्यार से भी पावन, जन्नत होगी, आंचल होगा....

मां! कितना सुनहरा कल होगा.....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....



वहां हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की

वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास

एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...

गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...



एक कटोरी हुआ करती थी,

जो कभी खत्म नहीं होती....

पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...

रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...



कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता

जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन

ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...



एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,

अड़हुल, कनैल और चमेली भी...

दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..

और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....

और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....

भगवान होने में कितना बचपना था...



एक छत हुआ करती थी, जहां से दिखते थे,

हरे-उजले रंग में पुते, चारा घोटाले वाले मकान...

जहां घाम में बालों से, दीदी निकालती थी ढील....

जूं नहीं ढील, धूप नहीं घाम....

और सूखता था कोने में पड़ा...

अचार का बोइयाम...



एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,

ज़िल्द वाली किताबों में...

मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...

और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....

छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,



छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...

आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....

वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई, और उसका रंग भी काला है...



इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,

मगर पिता बूढ़े होने लगें,

तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....

क्या ऐसा नहीं हो सकता,



कि हम रोते रहें रात भर



और चांद आंसूओं में बह जाए,



नाव हो जाए, कागज़ की...



एक सपना जिसमें गांव हो,



गांव की सबसे अकेली औरत



पीती हो बीड़ी, प्रेमिका हो जाए....



मेरे हाथ इतने लंबे हों कि,



बुझा सकूं सूरज पल भर के लिए,



और मां जिस कोने में रखती थी अचार...



वहां पहुंचे, स्वाद हो जाएं....



गर्म तवे पर रोटियों की जगह पके,



महान होते बुद्धिजीवियों से सामना होने का डर

जलता रहे, जल जाए समय



हम बेवकूफ घोषित हो जाएं...

एक मौसम खुले बांहों में,



और छोड़ जाए इंद्रधनुष....

दर्द के सात रंग,

नज़्म हो जाए...



लड़कियां बारिश हो जाएं...

चांद हो जाएं, गुलकंद हो जाएं,

नरम अल्फाज़ हो जाएं....

और मीठे सपने....

लड़के सिर्फ जंगली....

जब रात से निचोड़ लिए जाएंगे अंधेरे

और उगने लगेगा सूरज दोनों तरफ से..

जिन पेड़ों को तुम देखते हो रोमांस से,

उन्हें देखना सौभाग्य समझा जाएगा...

मिटा दिए जाएंगे रेगिस्तानों से पदचिह्न

और बाक़ी रहेंगे सिर्फ रुपये जैसे सरकारी निशान...

वर्जित क्षेत्रों में पूजे जाने के लिए....





इतना नीरस होगा समय कि,

दम घोंटकर कई बार मरना चाहेगी दुनिया...

समर्थ लोगों की बेबस दुनिया....



जब थोड़ी-सी प्यास और पसीना फेंटकर,

प्रयोगशालाओं में जन्म लेंगी कविताएं...

जैविक कूड़ा समझकर उड़ेल दिया जाएगा अकेलापन...

सूख चुके समुद्रों में....



लगातार युद्धों से थक चुके होंगे योद्धा...

खून का रंग उतना ही परिचित होगा,

जितनी मां....

चांद पर मिलेंगे ज़मीन के मुआवज़े

और कहीं नहीं होगा आकाश...



इतिहास ऊब चुका होगा बेईमान किस्सों से,

तब बड़े चाव से लिखी जाएंगी बेवकूफियां..

कि कैसे हम चौंके थे, बिना प्रलय के...



जब पहली बार हमने चखा था चुंबन का स्वाद...



या फिर भूख लगने पर बांट लिए थे शरीर....



मंगलवार, 25 जनवरी 2011

26 जनवरी की झांकी का ब्लॉग प्रसारण LIVE


दो साल पहले हमारे दोस्त हार्दिक ने अंग्रेज़ी में ये मेल भेजा था। तब हम हिंदी के नाम पर कमाने-खाने वाली एक इंटरनेट संस्था से जुड़े हुए थे। उसी के ब्लॉग पर इस मेल का हिंदी अनुवाद छपा था, जिसे फिर से अपने निजी ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूं...लेख के संदर्भ थोड़े पुराने लग सकते हैं, मगर सवाल वही हैं...आप चाहें तो अपने ब्लॉग पर भी इसे शेयर कर सकते हैं...दो कौड़ी के एसएमएस भेजकर देशभक्त बनने से बेहतर उपाय बता रहा हूं...इस पोस्ट के नीचे एक कविता भी है, पढ़ी जा सकती है...


गणतंत्र दिवस की परेड और झांकियां देखकर मेरा देशभक्त मन भी कुछ सोचने लगा.....सरकारें पांच सालों के लिए आती हैं (हालांकि ऐसा होना भी दुर्लभ ही है)....वही मंत्री, वही संतरी, वही परेड....बोर तो हो ही जाते होंगे पांचवा साल आते-आते....मुझे लगता हैं कि मुश्किल से मिली छुट्टी में टेलीविजन पर अपना कीमती समय ऐसे खर्च नहीं किया जा सकता....कुछ तो बदले भाई...

दिल्ली के राजपथ पर झांकिया तो निकलें मगर ज़रा हट के....चार सालों में जिस अवाम को सरकार नज़रअंदाज़ करती रही, पांचवे साल उनकी झांकी लगनी चाहिए....दर्शक दीर्घा में भी कैबिनेट और नौकरशाहों के अलावा कुछ और कुर्सियां लगायी जायें, जिनमें बिज़नेस व कारपोरेट के मसीहा बैठें....झांकियों में बेहद तैयारी के साथ हो रहे नाच-गाने में भी ज़रा सी तब्दीली आनी चाहिए....बदलनी चाहिए सीधा प्रसारण कर रही आवाज़ें भी...कुछ इस तरह से....

राष्ट्रपति भवन के दूर के छोर से मैं देख सकता हूं कि भोपाल गैस त्रासदी के शिकार चले आ रहे हैं...अद्भुत क्षण हैं...टेढी-मेढी शारीरिक संरचना, खून की बीमारियों और मानसिक रोगों से ग्रस्त असंख्य लोग....चूंकि, गणतंत्र का सबसे ख़ास अनुभव इन्होंने बटोरा है, तो पहली झांकी इनकी....आगे और भी मनोरम झांकिया हैं, जो आपका दिल गर्व से भर देंगी...वाह ! क्या बात है...

कैमरा अब कॉरपोरेट मसीहाओं की और घूमता है, फिर ज़रा-सा पैन करता है उन कुर्सियों की तरफ जो स्वास्थ्य मंत्रालय और मध्य प्रदेश सरकार के लिए आरक्षित है....

कमेंटरी चालू है-

मै देख पा रहा हू कि लंबे सफेद लिबासों में पूरी तरह से नग्न अवस्था में कुछ महिलाएं चली आ रही हैं...वो आर्म्ड फोर्स एक्ट में संशोधन या समाप्ति जैसे नारे भी लगा रही हैं.....मणिपुर की यह झांकी ऐतिहासिक भी है और मनोरम भी...वाह! क्या बात है...

कैमरा मुड़ता है सेना प्रमुख की तरफ, रक्षा मंत्री की तरफ और मुस्कान बिखेरते नॉर्थ इस्ट के अधिकारियों की तरफ....परेड जारी है और कमेंटरी भी....

अगली झांकी कुछ मैले-कुचैले लोगों की हैं....मैं अनुमान से कह सकता हूं कि ये केरल के एक गांव के किसान हैं, जो अपने गांव में कोका कोला का प्लांट लगाये जाने का विरोध कर रहे हैं.....उनके हाथ में कुछ बैनर तो हैं, मगर दिल्ली के अफ़सरों की कुछ समझ में नहीं आ रहा....क्षमा करें, मुझे भी कुछ समझ में नहीं आ रहा....वो इस बार भी चुपचाप दिल्ली के राजपथ से गुज़र जायेंगे, यूं ही....

अब हल्की-हल्की धूप बढने लगी है.....कैमरा पर्यावरण मंत्री की ओर घूमता है, जो कोका कोला पीकर गला तर कर रहे हैं....बीच-बीच में उठ-उठ कर किसानों को हाथ उठाकर अंगूठा भी दिखा रहे हैं.....

और अब अगली झांकी गुजरात से....गोधरा और आसपास के इलाकों से हुजूम शामिल है...और इन खूबसूरत घावों को देखिए, जो कभी नही भरने वाले...(कैमरा घावों के थोड़ा और नज़दीक जाता है)...ये दृश्य कभी नहीं भूले जा सकते....घाव अंदर से रिस रहे हैं.....राजपथ लाल हो गया है....सब प्रधानमंत्री को सलामी देते आगे बढते हैं.....

कैमरा अब भीड़ की तरफ घूम गया है, जो पूरी झांकी का आनंद ले रही है....गुज़रात के मुख्यमंत्री कुछ उद्योगपतियों के कान में फुसफुसा रहे हैं....उद्योगपति मुस्कुरा रहे हैं.....सब खुश हैं....ये खूबसूरत नज़ारा कभी-कभी ही नसीब होता है....वाह! क्या बात है.....”

कमेंटरी जारी है-

देवियों और सज्जनों, यह असली भारत की असली झांकी है....अद्भुत, अविश्वसनीय!! झांकी में आगे कुछ खनिज मजदूर हैं, अल्पसंख्यक भी और ओड़िशा या झारखंड के आदिवासी हैं.....ओड़िशा त्याग और सहनशीलता का राज्य रहा है.....इस राज्य ने हमेशा अपनी ज़मीन लुटाई है और खुद को गौरवान्वित महसूस किया है....ये भी बताते चलें कि हालिया सर्वेक्षण में सबसे “लुटे-पिटे” राज्यों की सूची में यही राज्य अव्वल आया है....हम ओड़िशा को उसकी इस उपलब्धि के लिए सलाम करते हैं.....

कैमरा अब ओड़िशा के राज्यपाल की तरफ पैन करता है, जो एक बुलेटप्रूफ़ कैबिनेट में बैठे हैं और लोगों को हाथ दिखा रहे हैं.....मुझे लगता है वो कुछ चेहरों को पहचान गये हैं......उनके अंगरक्षक भी बंदूक ताने हैं और मुस्कुरा रहे हैं.....

"और अब मैं......मैं क्या....हे भगवान....पूरी दर्शक दीर्घा स्तब्ध है........राजपथ की सड़कों पर मुंबई की एक लोकल ट्रेन आती दिख रही है.....इस ट्रेन की रफ़्तार बहुत कम है.....मैं देख रहा हूं कि 1500 लोगों की क्षमता वाली इस ट्रेन में 7000 लोग हैं.....हर दरवाज़े से लोगों की टांगें बाहर दिख रही हैं....कुछ लोग इसकी छत पर भी चढ़ गये हैं....खिड़कियों से झोले और बैग लटके हुए हैं.....विकलांगों का डिब्बा भी खचाखच भरा है.....

इस झांकी को देखकर विदेश से आये कुछ मेहमान दर्शक अचंभे में हैं....वो तालियां पीट रहे हैं....

और अब झांकी एक हैरतअंगेज क्लाइमेक्स की तरफ बढ़ रही है.....ट्रेन की रफ़्तार बढ़ी है....कुछ लोग ट्रेन से बाहर गिर गये हैं.....पूरा देश तालियां बजा रहा है.....वाह!! क्या बात है.....सचमुच भारत जादूगरी का देश है.... मुझे अरविंद अडिग की याद आ रही है....उनकी किताब के कुछ पन्नों से यह दृश्य मिलता है......मुझे आशा है कि आप अरविंद अडिग को जानते हैं, जिन्होंने इस साल का बुकर जीता है.... "

तो, ये था दिल्ली में आयोजित परेड का सीधा प्रसारण.....आशा है आपने झांकी का भरपूर मज़ा लिया होगा...ये सिर्फ झांकी थी, इसीलिए परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं....आशा है कल से फिर आपकी ज़िंदगी रफ़्तार पकड़ लेगी....आप हर रोज़ की तरह कदमताल करने लगेंगे....

जय हिंद......जय हो.....

हार्दिक मेहता
 
(हिंदी में अनुवाद : निखिल आनंद गिरि)

एक ख़ास पल...


एक देश है जो हर साल,

२६ जनवरी को फहराता है तिरंगा...

जहाँ लोग बेसब्री से इंतज़ार करते हैं,

विश्व कप जीतने का...

जहाँ लोग इंतज़ार करते हैं,

कि कब लाल बत्ती बुझे,

और ज़िंदगी की दौड़ में वो भाग सकें

तेज़ "सबसे तेज़".....


इंतजार है एक सुपरहीरो का,

जो हर वो काम कर सके,

जिसे नहीं कर पाता आम आदमी..


आम आदमी रो नहीं सकता देर तक,

नहीं कर सकता खुल कर प्यार,

अपनी नाराज़ प्रेमिका से....


एक देश है जिसकी आधी आबादी,

डुबोती है पावरोटी चाय में,

और अभिनय करती है खुश होने का....

सड़क के किनारे फटी हुई चादर में,

माँ छिपाती है अपना बच्चा,

पिलाती है दूध.....


एक देश है जहाँ,

रंगीन पानी पीकर

लोग बन जाते हैं मर्द.....

और नही समझ पाता कोई,

तीन कोस पैदल चलकर,

पानी लाने का दर्द....


एक देश जहाँ

शौचालयों से वाचनालयों तक

व्यर्थ ही होती दिखी है ऊर्जा...


जहाँ तिरंगे में लिपटकर,

देश का सपूत सो जाता है....

और उसकी मौत पर,

पेट्रोल पम्प के टेंडर का खेल,

शुरू हो जाता है....


एक देश जहाँ २६ साल की है...

देश की आधी आबादी,

पहनती है ब्रांडेड जींस,

और बोलती है खादी...


एक देश,

जहाँ कैलेंडर की तारीखों में,

मनाये जाते हैं ख़ास दिन,

और देश का आम आदमी,

ज़िंदगी में ढूँढता रह जाता है,

एक ख़ास पल,

कि वो कर सके प्यार

अपनी नाराज़ प्रेमिका से,

बहुत देर तक....

कि वो खुल कर रो सके,

बहुत देर तक.....

 
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

इक था भरम के वास्ते...

इतना तबाह कर कि तुझे भी यक़ीं न हो,

इक था भरम के वास्ते, वो दोस्त भी न हो....


महफिल से वो गया तो सभी रौनकें गईं..

ऐसा न हो वो आए, मगर ज़िंदगी न हो


ठिठुरे हैं जो नसीब, उनका अलाव बन...

सूरज ही क्या कि सबके लिए रौशनी न हो


मेरी ही नज़र छीन ले, कोई शख्स क्यूं गिरे...

मौला तेरे किरदार में कोई कमी न हो...


तौबा कभी न चांद पर, हरगिज़ करेंगे इश्क

उतरे कहीं खुमार, तो पग भर ज़मीं न हो...


साए थे, शोर था बहुत, इतना सुन सका...

कंक्रीट के जंगल में कोई आदमी न हो...

 
मंज़िल मिली तो कह गए, बाक़ी है कुछ सफ़र

वो उम्र क्या कि उम्र भर आवारगी न हो


ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक

रोने के वक्त हंसने की बेचारगी न हो...

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 17 जनवरी 2011

मूरख मिले 'बलेसर', पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले...

कौन कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ गुनगुनाया जाए बलेसर को....कमरे में, छत पर, नींद में, सड़क पर, संसद के सामने, चमचों के कान में, सभ्य समाज के हर उस कोने में जहां काई जमी है...आज, कल, परसों, बरसों....इंटरनेट पर शायद ही कहीं बलेसर के वीडियो उपलब्ध हैं...मुझे चैनल के लिए आधे घंटे का प्रोग्राम बनाने का मौका मिला था, तो उनके कुछ वीडियो मऊ से मंगाए गए, जहां के थे बलेसर....वो अपलोड कर पाऊंगा कि नहीं, कह नहीं सकता मगर, इन गीतों के बोल डेढ़ घंटे बैठकर कागज़ पर नोट किए.....हो सकता है, लिखने में कुछ शब्द गच्चा खा रहे हों, मगर जितना है, वो कम लाजवाब नहीं....भोजपुरी से रिश्ता रखने वाले तमाम इंटरनेट पाठकों के लिए ये सौगात मेरी तरफ से....जो भोजपुरी को सिर्फ मौजूदा अश्लील दौर के चश्मे से देखते-समझते हैं,  उनके लिए इन गीतों में वो सब कुछ मिलेगा, जिससे भोजपुरी को सलाम किया जा सके....रही बात अश्लीलता की तो ये शै कहां नहीं है, वही कोई बता दे...जिय बलेसर, रई रई रई....  


दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

मेला है मेला बाबू, मेला है मेला...

दो दिन की दुनिया है, दो दिन झमेला..

दो दिन का हंसना है, दो दिन का मेला...

आना अकेला और जाना अकेला...

साथ न जाएगा, गुरु संग चेला

दुनिया ये दुनिया, दो दिन की दुनिया...

दो दिन की दुनिया में लड़े सारी दुनिया...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

हिटलर रहा नहीं, न रहा सिकंदर..

दारा रहा नहीं, रहा कलंदर...

राम रहे नहीं, न रहा सिकंदर....

सब ही को जाना है, दो दिन के अंदर..

कोई रहेगा ना, कोई रहा है...

बेद-पुरान में ये ही कहा है...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

मेला है मेला बाबू, मेला है मेला...

कोई ना बोलावे, बस पइसा बोलावे ला..

कोई ना नचावे, बस पइसा नचावे ला...

देस-बिदेस, बस पईसवे घुमावेला

ऊंच आ नीच सब पईसवे दिखावेला...

साथ न जाएगा, पईसा ई ढेला

पीड़ा से उड़ जाई, सुगना अकेला....

दुनिया झमेले में...

रोज-रोज-रोज कोई आग लगावेला...

बांटे-बंटवारे का नारा लगावेला

पुलिस, पेसी, मलेटरी जुटावेला,,,

गोला-बारुद के ढेर लगावेला....

रूस से कह दो, हथियार सारा छोड़ दे,

कह दो अमरीका से, एटम बम फोड़ दे...

दुनिया झमेले में....


आजमगढ़ वाला पगला झूठ बोले ला...

समधी के मोछ जइसे कुकुरे के पोंछ साला झूठ बोले ला...

समधिनिया के बेलना झूठ बोले ला...साला झूठ बोले ला..

समधिनिया के पेट जइसे इंडिया के गेट, साला झूठ बोले ला...

अलीगढ़ वाला बकरा झूठ बोले ला...

अरे झूठ बोले ला...साला झूठ बोले ला...

बभना के कईले धईले, कुछहु न होले जाला-2,

धोबिया के अइले गइले, चले लाठी भाला, साला झूठ बोले ला...

कलकत्ता वाला चमचा, झूठ बोले ला....

अपने त बोले, साला हमके न बोले देला-2

तीनों चारों भाई-बाप, सर्विस कुर्ता वाला, साला झूठ बोले ला...

बिना मोछ वाला मोटका, झूठ बोले ला...

बाहर बिलार, घर में शेर का शिकार करे-2

हमरी कमाई बैला, बैठल-बैठल खाला, साला झूठ बोले ला...

ई चवन्नी छाप हिजरा, झूठ बोले ला...

कल-करखाना, साला टिसनो से बोले-बोले-2

खाया है माल. किया लाखों का दीवाला, साला झूठ बोले ला..

नई दिल्ली वाला गोरका झूठ बोले ला...

दिल का है काला साला, बगुला के चाल चले-2

बिदेसी दलाल है, कमाया धन काला, साला झूठ बोले ला...

समधिनिया के बेलना झूठ बोले ला...

श्यामा गरीब के, सोहागरात आई आई..

श्यामा औसनका के, सोहागरात आई आई..

जे दिन ‘बलेसरा’ पाएगा, ताली-ताला, साला झूठ बोले ला...

आजमगढ़ वाला पगला झूठ बोले ला...


हिटलरशाही मिले, चमचों का दरबार न मिले...

ए रई रई रई...

दुश्मन मिले सवेरे, लेकिन मतलबी यार ना मिले...

दुश्मन मिले सवेरे...

कलियन संग भंवरा मिले, बन मिले बनमाली...

ससुरारी में साला मिले, सरहजिया और साली...

तिरिया गोरी हो या काली, लेकिन छिनार ना मिले...

हाथी मिले, घोड़ा मिले; मिले कोठा-कोठी...

सोना मिले, चांदी मिले, मिले हीरा-मोती...

ईंटा-पत्थर मिले, नीच कली कचनार ना मिले...

सागर से जा मिले सुराही, धरती से असमान,

होली से जा मिले दीवाली, मिले सूरज से चांद,

मरदा एक ही मिले, हिजरा कई हजार ना मिले....

सरबन अइसन बेटा मिले, मिले भरत सा भाई,

मोरध्वज सा पिता मिले, मिले जसोदा माई...

पांचो पंडा मिले, कौरव सा परिवार ना मिले...

चित्तू पांडे, मंगल पांडे, मिले भगत सिंह फांसी..

देस के लिए जान लुटा दी, मिले जो लोहिया गांधी...

हिटलरशाही मिले, चमचों का दरबार ना मिले...

बांझिन को जो बेटा मिले, मिले भक्त को राम,

प्रेमी संग में श्यामा आ मिले गुरू से ज्ञान..

मूरख मिले ‘बलेसर’, पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले....

दुश्मन मिले सबेरे, लेकिन मतलबी यार ना मिले...


कुछ सस्ता शेर
बुढापा के सहारा, लाठी-डंडा चाहिए...

जवानी में लड़की को लवंडा चाहिए...

और ये भी...

सासु झारे अंगना, पतोहिया देखे टीभी....

बदला समाज, रे रिवाज बदल गईले...

भईया घूमे दुअरा, लंदन में पढ़े दीदी....

सासु झारे अंगना, पतोहिया देखे टीभी....

अगर गीत अच्छे लगे हों तो ये भी बताइए कि ढोल-मंजीरे के साथ कब बैठ रहे हैं खुले में....मिल बैठेंगे दो-चार रसिये तो जी उठेंगे बलेसर

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

बाईं तरफ चलने में मौत है...

जब हम सड़क पर चलते थे,


तो चलते थे बाएं होकर....

सख्त हिदायत थी किताबों में...


फिर थोड़ी समझ बढ़ी,

देखने का मन हुआ...

कि अगर बाईं ओर सारे पैदल हैं,

तो दाईं ओर कौन है...

बीच में इतनी गाड़ियां, इतने धुएं

और इतने चुंबन थे कि,

सच कहूं कुछ देखने का मन ही नहीं किया...


कुछ सोचने का भी नहीं,

कि गांव का टुन्ना जिसने आज तक सड़क नहीं देखी,

वो किस ओर चलता है...

और जिनके घरों के बाईं ओर,

वास्तु के हिसाब से या तो नालियां थीं,

या फिर कूड़ेदानों की जगह...


यूं कुछ दिन तक हम चलते रहे लेफ्ट में...

जो पैदल मिला, मुस्कुरा दिए...

गुमान था कि कायदे से चलते हैं...

फिर एक दिन अचानक,

हमारे ठीक आगे का आदमी,

जो चल रहा था बाएं...

खिसक लिया बीच वाली कार में बैठकर....

एक और सड़क के बीचोंबीच चिल्लाने लगा,

और उसे कुचल दिया गया तेज़ी से...


कुछ ने सहानुभूति में खूब बकीं गालियां...

कुछ ने तमाशा किया और चल पड़े...

कि उन्हें समय से घर लौटना था,
बीवियों का ब्लाउज़ और बच्चों का डेरी मिल्क लेकर....

हालांकि बाद में मालूम हुआ,

सड़क पर एक नोट गिरा था,

जिसे लपकने गया था कुचला हुआ आदमी....

फिर इतना डर, इतनी घिन्न

कि सड़क पर चलना छूट गया....


हमने ढूंढी वो नसीहत भरी किताबें...

और चीरकर उड़ा दी दाएं-बाएं...


सारा झगड़ा सड़क पर चलने का है जनाब....

आकाश में उड़ने वाले न दाएं चलते हैं न बाएं..

वो देखते हैं सड़क पर मौत

और चीरते जाते हैं हवाएं...

जितना हवाओं में ज़हर भरता है,

उनकी उम्र लंबी होती है...


निखिल आनंद गिरि
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मंगलवार, 11 जनवरी 2011

सौ बार मर गया...

इस बार कुछ उम्मीद से मैं अपने घर गया...

वीरान चेहरे देखकर, चेहरा उतर गया..


बाबूजी थे खामोश, मां अजनबी लगी,

हर एक पल में सच कहूं, सौ बार मर गया...


ज़ख्मों को देख और भी नमकीन हुए लोग,

ऐ ज़िंदगी, मैं तेरे तिलिस्मों से डर गया..


ये पीठ थी, रक़ीब के खंजर के वास्ते

शुक्रिया ऐ दोस्त, ये अहसान कर गया...


सब झूठ है कि रूह को देता है सुकूं इश्क,

मैं जिस्म तक गया, वो तल्खी से भर गया....


सर्दी पड़ी, अमीरी रज़ाई में छिप गई...

फिर मौत का इल्ज़ाम ग़रीबी के सर गया...

निखिल आनंद गिरि
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शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

कद्दूकस और तीसरे पीरियड में छुट्टी...

युवा कहानीकार (और मेरे साथी) गौरव सोलंकी को राजस्थान पत्रिका ने इस कहानी के लिए विशेष सम्मान दिया है....क्या इत्तेफाक है कि कुछ दिन पहले ही उनकी कहानियों को मेरे ब्लॉग पर डालने के लिए हम दोनों ने समीक्षा का बहाना ढूंढा था...खैर, ये बहाना भी  बुरा नहीं...

कद्दूकस मुझे बहुत प्यारा लगता था। उसे देखकर हमेशा लगता था, जैसे अभी चलने लगेगा। बहुत बाद में मैंने जाना कि कुछ चीजों के होने का आपको उम्र भर इंतज़ार करना पड़ता है। उस से पहले मैंने रसोई में कई काँच के गिलास तोड़े, बोलना और छिपकर रोना सीखा।

मेरी माँ शहर की सबसे सुन्दर औरत थी और हम सब यह बात जानते थे। मैं भी, जो बारह साल का था और चाचा भी, जो बत्तीस साल के थे। ऐसा जान लेने के बाद एक स्थायी अपराधबोध सा हमारे भीतर बस जाता था। हम सब आपस में घर-परिवार की बहुत सारी बातें करते और उस से बाहर निकल आने की कोशिश करते लेकिन आखिर में हम सो या रो ही रहे होते। मैं अकेला था और मेरे भाई बहन नहीं थे। वे होते तो हम सब एक साथ अकेले होते। हमारा घर ही ऐसा था। बाद में मैंने अख़बारों में वास्तुशास्त्र के बारे में पढ़ा तो पता चला कि सदर दरवाज़ा दक्षिण की ओर नहीं होना चाहिए था और रसोई के पूर्वी कोने में जो लोहे की टंकी रखी थी, जिसमें माँ आटा और मैं अपनी कॉमिक्स रखता था, उसे घर में कहीं नहीं होना चाहिए था।

मैं आठवें बरस में था, जब मैंने आत्महत्या की पहली कोशिश की। मैं रसोई में चाकू अपनी गर्दन पर लगाकर खड़ा था और आँगन से मुझे देखकर माँ दौड़ी चली आ रही थी। वह मेरे सामने आकर रुक गई और प्यार से मुझे उसे फेंक देने को कहने लगी। मेरा चेहरा तना हुआ था और मैं अपना गला काट ही लेना चाहता था कि न जाने आसमान में मुझे कौनसा रंग दिखा या माँ की बिल्लौरी आँखें ही मुझे सम्मोहित कर गईं, मैंने चाकू फेंक दिया। फिर माँ ने मुझे बहुत प्यार किया और बहुत मारा। मगर उसने मुझसे ऐसा करने की वज़ह नहीं पूछी। उसे लगा होगा कि कोई वज़ह नहीं है।

मेरी माँ बहुत सुन्दर थी और वह नाराज़ भी हो जाती थी तो भी उससे ज़्यादा दिनों तक गुस्सा नहीं रहा जा सकता था। उसके शरीर की घी जैसी खुशबू हमारे पूरे घर में तैरती रहती थी और आख़िर पूरे शहर की तरह हम भी उसमें डूब जाते थे।

पूरा शहर, जिसके मेयर से लेकर रिक्शे वाले तक उसके दीवाने थे। वह नाचती थी तो घर टूट जाते थे, पत्नियां अपने पतियों से रूठकर रोने लगती थीं, स्कूलों के सबसे होनहार बच्चे आधी छुट्टी में घर भाग आते थे, बाज़ार बन्द हो जाते थे और कभी कभी दंगे भी हो जाते थे।

यह 2002 की बात है। फ़रीदा ऑडिटोरियम में माँ का डांस शो था। उसमें तीन हज़ार लोग बैठ सकते थे और एक हफ़्ते पहले से ही टिकटें ब्लैक में बिकने लगी थीं। इसी का फ़ायदा उठाकर महेश प्रजापति और निर्मल शर्मा नाम के दो आदमियों ने ब्लैक में फ़र्ज़ी टिकटें भी बेचनी शुरु कर दीं। वे पचास रुपए वाली एक टिकट दो सौ रुपए में बेच रहे थे और इस तरह उन्होंने पाँच सौ नकली टिकटें बेच डालीं। शो रात दस बजे था। आठ बजते बजते सब लोग ऑडिटोरियम के बाहर जुटने लगे। नौ बजे से एंट्री शुरु हुई। साढ़े नौ बजते बजते तीन हज़ार लोग अन्दर थे और पाँच सौ नाराज़ लोग बाहर। उनमें बूढ़े भी थे, औरतें भी और बच्चे भी। उन्हें आयोजकों ने अन्दर घुसने नहीं दिया, जबकि वे दावा करते रहे कि उन्होंने दो-दो सौ रुपए देकर टिकटें खरीदी हैं। यह उनमें से अधिकांश की एक दिन की आमदनी थी और मिस माधुरी का शो नहीं होता, तो वे इससे चार दिन का खर्चा चला सकते थे। वे परिवार वाले थे और उन्हें अब अपने बच्चों और पत्नियों के आगे बेइज्जत होना पड़ रहा था। उन्हें न ही महेश प्रजापति दिखाई दे रहा था और न ही निर्मल शर्मा। सिपाही अब उन्हें धकेलकर परिसर से बाहर निकालने लगे थे। वे कह रहे थे कि उनकी बात सुनी जाए। उनकी बात नहीं सुनी गई।

तभी भीड़ में से एक ग्यारह बारह साल के लड़के ने यूं ही चिल्लाकर कहा कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति स्टेशन पर गए हैं और बाराखंभा एक्सप्रेस से दिल्ली भाग जाने वाले हैं। पाँच सात मिनट में ही पाँच सौ लोग यह बात जान गए और वे तेजी से स्टेशन की ओर बढ़ गए। जबकि उनमें से अधिकांश को नहीं पता था कि बाराखंभा एक्सप्रेस कहाँ से आती है और कहाँ को जाती है और उसका वक्त क्या है। वे सब दस बजे तक स्टेशन पहुँचे। वहाँ उन्हें पता लगा कि बाराखंभा एक्सप्रेस के आने का सही वक्त साढ़े चार बजे है, मगर वह सुबह सात बजे तक आएगी। वह अँधेरी रात थी और स्टेशन मास्टर ने अपने जीवन में पहली बार इतने लोग एक साथ देखे थे। उसे लगा कि ये सब लोग कहीं जाना चाहते हैं और वह ख़ुशी के मारे टिकट खिड़की खोलकर बैठ गया। यह जानकर कि ट्रेन सुबह आएगी, भीड़ आधे घंटे में वापस लौट गई। जाने से पहले उन्होंने सुबह सात बजे से पहले स्टेशन आने का संकल्प लिया और आठ दस लोगों को रात भर वहीं निगरानी के लिए छोड़ दिया। यह बहुत बड़ी बात भी नहीं थी कि दो सौ रुपए पानी में चले गए थे मगर वह तारीख ही ऐसी थी कि बात बड़ी होती जा रही थी। बाद में जब मैंने पागलों की तरह वास्तुशास्त्र पढ़ा तो जाना कि फ़रीदा ऑडिटोरियम और स्टेशन, दोनों के दरवाज़े उनसे ठीक विपरीत दिशाओं में थे, जिनमें उन्हें होना चाहिए था। साथ ही माँ ने उस दिन लाल रंग की स्कर्ट पहनी थी और वह जब शो में आई थी तो उसने पहले बायां पैर स्टेज पर रखा था।

लाल रंग ख़ून का रंग था और यह हम सब भूल गए थे।

वहाँ जो लोग रुके, संयोगवश आरिफ़, इंतख़ाब आलम, नासिर, जब्बार, सुहैल, सरफ़राज़ के पिता, नवाब अली, शौकत और उसका चार साल का बेटा थे। उन्होंने चने खरीदकर खाए और रात में दो दो बार चाय पी। सुबह पौने आठ बजे ट्रेन आई तो नासिर और शौकत को छोड़कर सब बैठे बैठे सो गए थे। रात वाले दस बीस लोग और आ जुटे थे। कुछ बच्चे भी अपने पिताओं के साथ तमाशा देखने आए थे। ज़्यादातर लोग मिस माधुरी का शो भूल चुके थे और बस निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति को मार पीटकर घर लौट जाना चाहते थे। शौकत को उसी दिन अपनी ससुराल से अपनी बीवी को लाना था और अब वह जल्दी पीछा छुड़ाकर घर लौट जाना चाहता था। वह जब पानी पीने के लिए प्याऊ की ओर गया तो जब्बार की बहन सबीना (शायद उसका यही नाम था...और धीरे धीरे आप देखेंगे कि इतने सारे नामों का कोई ख़ास अर्थ नहीं रह जाएगा) उसे देखकर मुस्कुराई। वह किसी दूसरी ट्रेन से बनारस जा रही थी और सुबह से स्टेशन पर खड़ी थी।

जवाब में शौकत भी मुस्कुराया। फिर वह बिना कुछ बोले प्याऊ की टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीने लगा। तभी मोहनीश अग्रवाल नाम के एक लड़के ने, जो ट्रेन से उतरकर चाय पी रहा था और जिसने नारंगी साफा बाँध रखा था, समझा कि सबीना उसे देखकर मुस्कुराई है। वह सबीना के पास आकर खड़ा हो गया और बोलने लगा कि नम्बर दे दो और आई लव यू। सबीना घबरा गई और उसने शब्बार पुकारा (उसने शौकत से शुरु किया लेकिन घबराहट के बावज़ूद उसे इतना होश था कि अपने भाई को ही पुकारे)। बीस पच्चीस लोग, जिन्हें एक स्कूली लड़के ने रात अपने मन से बनाकर कह दिया था कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति बाराखंभा एक्सप्रेस से जाएँगे, पागलों की तरह स्टेशन और ट्रेन के डिब्बे छान रहे थे। तभी उन्हें सबीना की पुकार सुनी। सबसे पहले शौकत उसके पास पहुँचा और उसने मोहनीश अग्रवाल को एक थप्पड़ मारा। जवाब में मोहनीश अग्रवाल ने भी शौकत को थप्पड़ मारा। चाय पी रहे उसके दो तीन दोस्त भी आगे आ गए। वे और आगे आ ही रहे थे कि तभी भीड़ ने उन्हें घेर लिया। निर्मल शर्मा भी उसी तरह तिलक लगाए रखता था, जिस तरह मोहनीश अग्रवाल ने लगा रखा था। भीड़ के ज़्यादातर लोगों ने उसे टिकट खरीदते हुए बस एक नज़र ही देखा था, इसलिए उन्हें लगा कि यही निर्मल शर्मा है और इसीलिए सबीना चिल्लाई है। कुछ लोग सबीना की दाद देने लगे और बाकी मोहनीश अग्रवाल और उसके साथियों को मारने लगे।

बाद में जो हुआ, वह यह था कि मेरे शहर के सैंकड़ों लोग अचानक स्टेशन पर आ गए। उनके पास पैट्रोल के गैलन थे और लाठियाँ भी। बच्चे भी थे, जो ट्रेन पर पत्थर फेंक रहे थे। उनमें से कोई ऐसा नहीं था, जिसने मिस माधुरी के शो का टिकट खरीदा था। टिकट वाली ठगी के शिकार तो मोहनीश अग्रवाल को पीटकर ही पेट भर चुके थे। वे सब हैरान होकर देख रहे थे कि ट्रेन चल पड़ी है और भीड़ ने एक डिब्बे में आग लगा दी है।

मैं नहीं जानता कि सब ख़त्म कर डालने पर आमादा वह भीड़ अचानक कहाँ से आ गई थी, लेकिन मुझे लगता रहा कि मोहनीश अग्रवाल वह हरकत न करता और जब्बार, शौकत और बाकी लोग उस समय स्टेशन पर न होते तो शायद कुछ भी न हुआ होता। मोहनीश दो चार फ़िकरे कसता और अपनी ट्रेन चलने पर उसमें चढ़ जाता। सबीना कुछ देर परेशान रहती और भूल जाती। जब्बार उस समय किसी की साइकिल का पंक्चर लगा रहा होता और दोपहर में अपने घर जाकर खाना खाकर आधा घंटा सोता। लेकिन यह सब नहीं हुआ। आगे बहुत सी हत्याएँ और पुलिसिया प्रताड़नाएँ थीं। ख़ून के कई हफ़्ते और अमावस सी नफ़रत। मेरी माँ मिस माधुरी उस दिन देर तक सोती रही। तीसरे पीरियड में मेरी छुट्टी हो गई थी और चाचा मुझे लेने आए थे।

गौरव सोलंकी

(पूरी कहानी पढ़ने के लिए गौरव के निजी ब्लॉग पर चक्कर लगा सकते हैं...)


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बुधवार, 5 जनवरी 2011

ठूंठ पीढ़ियां, बेबस माली...

जिन पेड़ों ने फल नहीं दिए,

उन्हें भी सींचा गया था सलीके से

भरपूर खाद-पानी और देखभाल के साथ..

हवा भी उतनी ही मिली थी उन्हें,

जितनी बाक़ी पेड़ों के नसीब में थी....

उम्मीद के लंबे अंतराल ने दिया

माली को ठूँठ पेड़ों का दुख..


ये दुख नहीं बना चर्चा का विषय

बुद्धू बक्से के बुद्धिजीवियों के बीच

या किसी भी अखबार के पन्ने पर,


पीढ़ी दर पीढ़ी उगते रहे ठूंठ

और घेरते रहे जगह,

फलदार पेड़ों के बरक्स....


फलदार पेड़ों को क्या था..

झूमकर लहराते रहे अपनी किस्मत पर....

ठूंठ पेड़ों से बिना उलझे,

मुंह घुमाकर समझते रहे,

कि हर ओर हरी है दुनिया....


उधर मालियों ने फिर भी सींचा,

नए बीजों को, नई उम्मीद से...

जब तक नीरस नहीं हुई पूरी पीढ़ी...


फिर बेबस मालियों ने सोचा उपाय

ठूंठ पेड़ों से कुछ काम निकाला जाये..

गर्दन में फंसाकर फंदे,

वो झूल गए इन्हीं पेड़ों पर...

और थोड़े-से फलदार पेड़ देखते रहे

अपनी तयशुदा मौत का पहला भाग...


काश! फलदार पेड़ों ने किया होता प्रतिरोध

ज़रा-सा भी,

तो ठूंठ पेड़ों में फल तो नहीं आते,

मगर वो समय रहते शर्म से

टूटकर गिर ज़रूर जाते,


ज़िंदा रहते माली

ताकि,

फलदार पेड़ों की भी हरी रहती डाली....


निखिल आनंद गिरि

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सोमवार, 3 जनवरी 2011

कंपकंपाती ठंड में मल्टीप्लेक्स की 'मिर्च' का मज़ा...

फिल्म की शुरुआत में ही रिलायंस ग्रुप का बोर्ड लगा दिखे तो ये चिंता दूर हो जाती है कि आप जिस फिल्म को देखने जा रहे हैं, वो बेहद तंगहाली में बनाई गई होगी, इसलिए अच्छी हो या बुरी, निर्देशक के साथ सहानुभूति ज़रूर रखी जानी चाहिए। विनय शुक्ला कोई नए डायरेक्टर नहीं हैं...अवार्ड विनिंग फिल्में बनाना उनका मकसद रहा है और इस लिहाज से ये फिल्म भी सफल करार दी जानी चाहिए। ये अलग बात है कि मेरे साथ हॉल में फिल्म देखने वाले सिर्फ चार लोग ही और थे। चार से याद आया, फिल्म का नाम चार कहानियां भी रखा जा सकता था, क्योंकि इसमें क्रेडिट्स आने तक चार अलग-अलग मगर एक जैसी कहानियां चलती हैं।

मुंबई में संघर्षरत एक फिल्म राइटर अपनी गर्लफ्रेंड के संपर्क से एक प्रोड्यूसर से मिलता है और उसे अपनी वो कहानी सुनाता है, जिस पर दो सालों से वो फिल्म बनाने की सोच रहा है....फिल्म में संघर्ष आगे बढ़ना है इसलिए कहानी रिजेक्ट हो जाती है...खैर, वो दूसरी कहानी ढूंढता है, जिसमें प्रोड्यूसर के मनमाफिक बिकाऊ सेक्स भी होता है। इस दूसरी कहानी में चार कहानियां हैं, कुछ औरतें हैं, मर्द हैं और शरीर की हेराफेरी है। जो आदर्शवादी कहानी रिजेक्ट होती है, वो क्या थी, इसका पता ग्यारह मुल्कों की पुलिस भी नहीं लगा सकती। बस, वो अज्ञात कहानी हज़ारों-लाखों फिल्म लेखकों के ज़ख्मों को सहलाने का काम कर जाती है, जो बिहार से लेकर बंबई (वाया दिल्ली) तक एकाध स्क्रिप्ट लिए गुलज़ार बनने का ख्वाब पाले बैठे हुए हैं।

फिल्म में पंचतंत्र से लेकर इटालियन लोककथाओं तक के तमाम रेफरेंसेज़ हैं। यही फिल्म की जान भी हैं। कहानी आगे बढ़ाने का तरीका कहीं से कमज़ोर नहीं है। कहानी के भीतर कई कहानियां चलती हैं और इस तरह से ग्रिप बना रहता है। बेहद खूबसूरत लोकेशन्स और कसे हुए संवादों के बीच कहानी कहीं छूटती नहीं और नारी-विमर्श का सबसे प्रचलित रूप भी ठीकठाक आगे बढ़ता है। जैसा कि विनय कई जगह दावा करते हैं कि ये वुमैनहुड (नारीत्व) का उत्सव है, लगभग सही ही लगती है। मगर, ये उत्सव बौद्धिकता की आड़ में मसाला फिल्म ही बनकर रह जाता है। पंचतंत्र से लेकर राजा-रजवाड़ों और फिर मुंबई की अफरातफरी वाली ज़िंदगी में लड़की के लिए शरीर का जुगाड़ कभी मुश्किल नहीं रहा। ये फिल्म शक, अफवाहों और साज़िशों के बीच हर बार यही बात साबित करती दिखती है। एक कमज़ोर दिल का दर्शक अगर ढंग से ये फिल्म देखना शुरू करें तो बगल में बैठी प्रेमिका उसे मांस के टुकड़ों वाली लड़की से ज़्यादा कुछ नहीं लगेगी, ‘वेश्या’ तक लग सकती है। हर औरत इतनी चालू, चालबाज़ और चालाक लगने लगे कि भोलाभाला दर्शक मान बैठे कि सिर्फ शरीर के उत्सव का जुगाड़ ढूंढने में ही औरत कितनी ओवरस्मार्ट हो सकती है। कम से कम नारी की आज़ादी का उत्सव मनाने का ये मकसद तो नहीं ही होना चाहिए कि हर मर्द को मानसिक रूप से इतना बीमार दिखाया जाए कि उसे अपने होने पर शर्म आने लगे। विभूति नारायण राय को फिल्म दिखाकर नए साल में पूछा जाना चाहिए कि नारी को लेकर उनका संकल्प कुछ बदला कि नहीं।

आखिर तक आते-आते फिल्म थोड़ी लंबी और उबाऊ लगने लगती है। आखिरी कहानी तो बेहद चलताऊ किस्म की है, जिसमें एक अधेड़ पति होटल बुक करता है और लड़की की डिमांड करता है तो उसकी बीवी ही परोस दी जाती है। यहां तक की मजबूर औरतें तो हम पहले भी देख चुके हैं मगर कॉमिक ट्विस्ट ये है कि बीवी एक पेड सेक्स वर्कर होती है और रूमसर्विस वाले लड़के पर झल्लाती है कि साले, क्लाइंट देखने से पहले दिमाग तो लगा लिया कर। बोमन इरानी और कोंकणा सेन के नाम पर ये सीन बिना उल्टी किए हजम कर सकते हैं, वरना सड़क पर बीसियों रसीली कहानियों वाली किताबें पड़ी मिलती हैं।

गाने और एक्टिंग के मामले में पूरी फिल्म में कोई दिक्कत नज़र नहीं आती। जावेद अख्तर आखिर तक अपने लिए गुजाइश निकाल जाते हैं। ये हिंदुस्तानी गीत ही हैं जो तमाम तरह के नकल और इंस्पिरेशन से बनी हुई फिल्मों के दौर में देसी और ओरिजिनल लगते हैं। मंजे हुए एक्टर्स के दम पर ही फिल्म वैसे दृश्य भी आसानी से निकाल ले जाती है जो किसी दबंग या तीसमारखां टाइप निर्देशक के हाथ में पड़कर सचित्र सेक्स कहानी बन सकती थी।

अभिनेत्री इला अरुण यहां भी हैं...उनकी आवाज में गाए गीत नारी मुक्ति के बिंदास स्लोगन की तरह लगते है। फिल्म में इला अरुण के संवाद और गीत से न जाने क्यों खलनायक का वो गीत चोली के पीछे क्या है...याद हो आता है जब माधुरी दीक्षित पहली बार लेडी महानायिका बनकर उभरी थी और सचमुच मर्दप्रधान बॉलीवुड में नारी उत्सव मनाया जाना चाहिए था। खैर, वो उत्सव तो गाने को लेकर मची तोड़फोड़ में भंग हो गया।

बतौर फिल्मकार, विनय शुक्ला का चिंतन सीरियस है। फिल्म में कोई आमिर, शाहरूख या सलमान तक होते तो शर्तिया लाखों दर्शक टूट पड़ते क्योंकि उनके लिए बहुत कुछ तीखा है पूरी फिल्म में। इस तरह कह सकते हैं कि ये अपने दौर से काफी आगे की फिल्म है। ऐसी फिल्में बार-बार बनाई जानी चाहिए कि फैमिली ड्रामा के नाम पर फूहड़ फिल्में देखने का आदी हो चुका हिंदुस्तानी दर्शक अपने भीतर छिपे एक बुद्धिमान दिमाग को ढूंढ निकाले। हिंदुस्तान में मल्टीप्लेक्स तो आ गया है, मगर उस माइंडसेट वाले दर्शक अब भी आने बाक़ी हैं। कम से कम पूरी फैमिली के साथ तो नहीं ही आ सकते। अभी तक तो मल्टीप्लेक्स का दर्शक उसी घिसे-पिटे मर्दाना डायलॉग्स पर तालियां पीटता है, जब बड़े पर्दे का सुपरस्टार और छोटे पर्दे का शेफ ये कहता हुआ ‘तीसमारखां’ बनता है कि उसे पकड़ना और तवायफ की लुटती हुई इज़्ज़त बचाना नामुमकिन है।

निखिल आनंद गिरि
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रविवार, 26 दिसंबर 2010

बनमानुस...

एक दुनिया है समझदार लोगों की,

होशियार लोगों की,

खूब होशियार.....

वो एक दिन शिकार पर आए

और हमें जानवर समझ लिया...

पहले उन्होंने हमें मारा,

खूब मारा,

फिर ज़बान पर कोयला रख दिया,

खूब गरम...

एक बीवी थी जिसके पास शरीर था,

उन्होंने शरीर को नोंचा,

खूब नोचा...

जब तक हांफकर ढेर नहीं हो गए,

हमारे घर के दालानों में....


हमारी बीवियों ने मारे शरम के,

नज़र तक नहीं मिलाई हमसे

उल्टा उन्हीं के मुंह पर छींटे दिए,

कि वो होश में आएं

और अपने-अपने घर जाएं...

ताकि पक सके रोटियां

खूब रोटियां...


वो होश में आए तो,

जो जी चाहा किया...

हमे फिर मारा,

उन्हें फिर नोंचा...

हमारी रोटियां उछाल दी ऊंचे आकाश में....

खूब ऊंचा....

वो हंसते रहे हमारी मजबूरी पर,

खूब हंसे...


भूख से बिलबिला उठे हम....

जलता कोयला निकल गया मुंह से...

जंगल चीख उठा हमारी हूक से....

पहाड़ कांप उठे हमारी सिहरन से....

नदियों में आ गया उफान,

खूब उफान....


उनके हाथ में हमारी रोटियां थीं,

उनकी गोद में हमारी मजबूर बीवियां थीं...

उनकी हंसी में हमारी चीख थी, भूख थी....

हमने पास में पड़ा डंडा उठाया

और उन्हें हकार दिया,

अपने दालानों से....

वो नहीं माने,

तो मार दिया.....


जंगल से बाहर की दुनिया

यही समझती रही,

हम आदमखोर हैं, बनमानुस...

जंगली कहीं के....

वाह रे समझदार...

वाह री सरकार.....


निखिल आनंद गिरि

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ये पोस्ट कुछ ख़ास है

नन्हें नानक के लिए डायरी

जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...