रविवार, 30 जनवरी 2011

ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है...

यहां दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में सदैव तत्पर है...
प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं

जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
और उदास रौशनी का
जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
और बीच में हैं फ्लाईओवर.....

हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...
और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...
इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...
आप कह सकते हैं शर्तियां...
मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...
जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...

हमें ठीक तरह से याद है....
आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'

चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,
जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में
नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,
ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...

काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,
जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...
जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
दुम ज़रूरी है....
और प्यार करने के लिए कंडोम.....

फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...
कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...
ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
हे राम ! कहने की आज़ादी हो....

निखिल आनंद गिरि

19 टिप्‍पणियां:

  1. मित्र,आप की कविता दिल के पार उतर गयी.आप ने बहुत से विषय एक साथ घोल कर पिला दिए.

    "यहां दिल्ली पुलिस "

    "ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
    और उदास रौशनी का"

    "आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें...."

    "ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
    हे राम ! कहने की आज़ादी हो"

    उम्मीद है पच जायेगी.
    आप की कलम को शुभ कामनाएं.

    जवाब देंहटाएं
  2. निखिल जी,
    हर पैराग्राफ़ में आपने "अलग-अलग चिंता और गुस्सा" को कविता का विषय बनाया है। इसलिए बहुत सारी बातें घुल गई हैं एक छोटी-सी कविता में। कविता की पहली दो पंक्तियाँ और आखिरी दो पंक्तियाँ "आज़ादी" के लिए छटपटाते आत्माओं को आवाज़ दे रही है और इन पंक्तियों के बीच "क्रांति" के बीज बोने के स्वर है... कुल-मिलाकर आप अपनी बात कहने में सफ़ल हुए हैं, लेकिन "आपकी बात को सही से समझने के लिए कविता को कम-से-कम दो बार पढना लाजिमी हो जाता है" :)

    धन्यवाद,
    विश्व दीपक

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी रचनाओं में एक अलग अंदाज है,

    जवाब देंहटाएं
  4. बिल्‍कुल नए सोच और नए सवालों के साथ समाज की मौजूदा जटिलताओं को उजागर किया है आपने इस कविता के माध्यम से। आपकी इस रचना में प्रेम है तो सिर्फ़ घटना बनकर नहीं है। परिवर्तन की बात है तो वह सिर्फ़ रस्मी जोश तक महदूद नहीं है। ये सब कुछ आपकी रचना में बुनियादी सवालों से टकराते हुए है। आपकी लेखनी से जो निकला है वह दिल और दिमाग के बीच खींचतान पैदा करता है।

    जवाब देंहटाएं
  5. "ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
    हे राम ! कहने की आज़ादी हो"

    इसे आपकी आवाज़ में सुन भी चुका हूं...अब कुछ कहने को बाक़ी नहीं रहा...नए शमशेर को सलाम....

    कुंवर

    जवाब देंहटाएं
  6. "ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
    हे राम ! कहने की आज़ादी हो"

    इसे आपकी आवाज़ में सुन भी चुका हूं...अब कुछ कहने को बाक़ी नहीं रहा...नए शमशेर को सलाम....

    कुंवर

    जवाब देंहटाएं
  7. जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
    और बीच में हैं फ्लाईओवर....

    wah...kya baat kahi hai...too good ;)

    और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...

    hmmm, too bad....aapki kavitaaon mein to barbed wires zyaada hoti hain ;)


    आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
    जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
    'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं

    woooow.....kya yaad dilaya...maza aa gaya, too good

    जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
    दुम ज़रूरी है....

    jaane kis kis ki utaarte rehte ho apni nazmon mein.....hihi

    acchi nazm dost...kaii flavors mixed the isme

    जवाब देंहटाएं
  8. जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
    ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
    और उदास रौशनी का
    जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
    और बीच में हैं फ्लाईओवर.....

    बहुत अच्छी कविता निखिल जी. आपके ब्लॉग पर पहली बार आया और पहली ही कविता ने अपना बना लिया.

    जवाब देंहटाएं
  9. मनोज जी,
    आते रहिए आगे भी...

    तारकेश्वर जी,
    मुझे मेरी शादी से बचाओ....

    सांझ,
    मेरी कविताओं में सिर्फ barbed wires ही मिलीं आपको....ताज्जुब है....

    जवाब देंहटाएं
  10. मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूँगा
    जिसमे सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...
    बहुत ही प्रभावशाली रचना ..

    जवाब देंहटाएं
  11. गिरी जी बहुत प्रयास से ढूंढ़ पाया आपको , एक मुठ्ठी भीचने वाली कविता, बेवाक अंदाज़ में , लगता है एक और आसमा बनाने की फ़िराक में है आप. मै तो कहूगा, इसी आसमा को हे राम कहने सा बनाये, कुछ ऐसा करे अपनी बात कुछ और तेज़ी से उठाये

    जवाब देंहटाएं
  12. कुश्वंश जी....सब्सक्राइब कर सकते हैं मेरा ब्लॉग....तब आगे ढूंढना नहीं पड़ेगा...अपनी ईमेल आईडी ब्लॉग के दाईं ओर वाले बॉक्स में छोड़ जाएं....
    झंझट साहब का भी शुक्रिया....

    जवाब देंहटाएं
  13. बाबा रे ....बहुत आक्रोश ..यहाँ तक कि डरा भी दिया मुझे ... लंबे समय तक याद रखने वाली नज़्म है निखिल भाई.... बज्ज पे शेयर कर रहा हूँ इसे द्सोतों से अपने ..

    जवाब देंहटाएं
  14. आपमें एक आग है, जिससे कविता तपती हुई लगती है. उद्वेलित करती है... इसे बनाये रखें... यह तेवर मुझे पसंद है.

    जवाब देंहटाएं

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