यहां दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में सदैव तत्पर है...
प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं
जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
और उदास रौशनी का
जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
और बीच में हैं फ्लाईओवर.....
हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...
और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...
इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...
आप कह सकते हैं शर्तियां...
मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...
जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...
हमें ठीक तरह से याद है....
आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'
चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,
जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में
नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,
ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...
काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,
जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...
जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
दुम ज़रूरी है....
और प्यार करने के लिए कंडोम.....
फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...
कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...
ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
हे राम ! कहने की आज़ादी हो....
इतना तबाह कर कि तुझे भी यक़ीं न हो,
इक था भरम के वास्ते, वो दोस्त भी न हो....
महफिल से वो गया तो सभी रौनकें गईं..
ऐसा न हो वो आए, मगर ज़िंदगी न हो
ठिठुरे हैं जो नसीब, उनका अलाव बन...
सूरज ही क्या कि सबके लिए रौशनी न हो
मेरी ही नज़र छीन ले, कोई शख्स क्यूं गिरे...
मौला तेरे किरदार में कोई कमी न हो...
तौबा कभी न चांद पर, हरगिज़ करेंगे इश्क
उतरे कहीं खुमार, तो पग भर ज़मीं न हो...
साए थे, शोर था बहुत, इतना सुन सका...
कंक्रीट के जंगल में कोई आदमी न हो...
मंज़िल मिली तो कह गए, बाक़ी है कुछ सफ़र
वो उम्र क्या कि उम्र भर आवारगी न हो
ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक
रोने के वक्त हंसने की बेचारगी न हो...
किसी धर्मग्रंथ या शोध में लिखा तो नहीं,
मगर सच है...
प्यार जितनी बार किया जाए,
चांद, तितली और प्रेमिकाओं का मुंह टेढ़ा कर देता है..
एक दर्शन हर बार बेवकूफी पर जाकर खत्म होता है...
आप पाव भर हरी सब्ज़ी खरीदते हैं
और सोचते हैं, सारी दुनिया हरी है....
चार किताबें खरीदकर कूड़ा भरते हैं दिमाग में,
और बुद्धिजीवियों में गिनती चाहते हैं...
आपको आसपास तक देखने का शऊर नहीं,
और देखिए, ये कोहरे की गलती नहीं...
ये गहरी साज़िशों का युग है जनाब...
आप जिन मैकडोनाल्डों में खा रहे होते हैं....
प्रेमिकाओं के साथ चपड़-चपड़....
उसी का स्टाफ कल भागकर आया है गांव से,
उसके पिता को पुलिस ने गोली मार दी,
और मां को उठाकर ले गए..
आप हालचाल नहीं, कॉफी के दाम पूछते हैं उससे...
आप वास्तु या वर्ग के हिसाब से,
बंगले और कार बुक करते हैं...
और समझते हैं ज़िंदगी हनीमून है..
दरअसल, हम यातना शिविरों में जी रहे हैं,
जहां नियति में सिर्फ मौत लिखी है...
या थूक चाटने वाली ज़िंदगी.....
आप विचारधारा की बात करते हैं....
हमें संस्कारों और सरकारों ने ऐसे टी-प्वाइंट पर छोड़ दिया है,
कि हम शर्तिया या तो बायें खेमे की तरफ मुड़ेंगे,
या तो मजबूरी में दाएं की तरफ..
पीछे मुड़ना या सीधे चलना सबसे बड़ा अपराध है...
जब युद्ध होगा, तब सबसे सुरक्षित होंगे पागल यानी कवि...
मां, तुम मेरा गला घोंट देना
अगर प्यास से मरने लगूं
और पानी कहीं न हो...
जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....
अभी वक्त की मारामारी है, कुछ सपनों की लाचारी है,
जगती आंखों के सपने हैं...राशन, पानी के, कुर्सी के...
पल कहां हैं मातमपुर्सी के....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....
अभी वक्त पे काई जमी हुई, अपनों में लड़ाई जमी हुई,
पानी तो नहीं पर प्यास बहुत, ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,
इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....
उम्र का क्या है, बढ़नी है, चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...
घर में मां अकेली पड़नी है, बाबूजी का क़द घटना है,
सोचूं तो कलेजा फटना है, इक दिन टूटेगा......
उसने हद तक गद्दारी की, हमने भी बेहद यारी की,
हंस-हंस कर पीछे वार किया, हम हाथ थाम कर चलते रहे,
जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...
जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ, सर्वस्व समर्पण करते रहे,
तुम मोल समझ पाए ही नहीं, ख़ामोश इबादत जारी है,
हर सांस में याद तुम्हारी है...इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...
अभी और बदलना है ख़ुद को, दुनिया में बने रहने के लिए,
अभी जड़ तक खोदी जानी है, पहचान न बचने पाए कहीं,
आईना सच न दिखाए कहीं! जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....
अभी रोज़ चिता में जलना है, सब उम्र हवाले करनी है,
चकमक बाज़ार के सेठों को, नज़रों से टटोला जाना है,
सिक्कों में तोला जाना है...इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....
इक दिन नीले आकाश तले, हम घंटों साथ बिताएंगे,
बचपन की सूनी गलियों में, हम मीलों चलते जाएंगे,
अभी वक्त की खिल्ली सहने दे... जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..
मां की पथरायी आंखों में, इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,
मेरे आने की आस लिए..उस उम्र का हर पल बोलेगा....
टूटे चावल को चुनती मां, बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,
दिन भर का सारा बोझ उठा, सूना कमरा, सिर धुनती मां....
टूटे ऐनक की लौटेगी रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...
मां तेरे आंचल में सिर रख, मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,
मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....तू चूमेगी, पुचकारेगी,
तू मुझको खूब दुलारेगी...इस झूठी जगमग से रौशन,
उस बोझिल प्यार से भी पावन, जन्नत होगी, आंचल होगा....
मां! कितना सुनहरा कल होगा.....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....
वहां हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की
वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास
एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...
गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...
एक कटोरी हुआ करती थी,
जो कभी खत्म नहीं होती....
पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...
रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...
कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता
जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन
ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...
एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,
अड़हुल, कनैल और चमेली भी...
दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..
और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....
और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....
भगवान होने में कितना बचपना था...
एक छत हुआ करती थी, जहां से दिखते थे,
हरे-उजले रंग में पुते, चारा घोटाले वाले मकान...
जहां घाम में बालों से, दीदी निकालती थी ढील....
जूं नहीं ढील, धूप नहीं घाम....
और सूखता था कोने में पड़ा...
अचार का बोइयाम...
एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,
ज़िल्द वाली किताबों में...
मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...
और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....
छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,
छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...
आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....
वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई, और उसका रंग भी काला है...
इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,
मगर पिता बूढ़े होने लगें,
तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....
क्या ऐसा नहीं हो सकता,
कि हम रोते रहें रात भर
और चांद आंसूओं में बह जाए,
नाव हो जाए, कागज़ की...
एक सपना जिसमें गांव हो,
गांव की सबसे अकेली औरत
पीती हो बीड़ी, प्रेमिका हो जाए....
मेरे हाथ इतने लंबे हों कि,
बुझा सकूं सूरज पल भर के लिए,
और मां जिस कोने में रखती थी अचार...
वहां पहुंचे, स्वाद हो जाएं....
गर्म तवे पर रोटियों की जगह पके,
महान होते बुद्धिजीवियों से सामना होने का डर
जलता रहे, जल जाए समय
हम बेवकूफ घोषित हो जाएं...
एक मौसम खुले बांहों में,
और छोड़ जाए इंद्रधनुष....
दर्द के सात रंग,
नज़्म हो जाए...
लड़कियां बारिश हो जाएं...
चांद हो जाएं, गुलकंद हो जाएं,
नरम अल्फाज़ हो जाएं....
और मीठे सपने....
लड़के सिर्फ जंगली....
जब रात से निचोड़ लिए जाएंगे अंधेरे
और उगने लगेगा सूरज दोनों तरफ से..
जिन पेड़ों को तुम देखते हो रोमांस से,
उन्हें देखना सौभाग्य समझा जाएगा...
मिटा दिए जाएंगे रेगिस्तानों से पदचिह्न
और बाक़ी रहेंगे सिर्फ रुपये जैसे सरकारी निशान...
वर्जित क्षेत्रों में पूजे जाने के लिए....
इतना नीरस होगा समय कि,
दम घोंटकर कई बार मरना चाहेगी दुनिया...
समर्थ लोगों की बेबस दुनिया....
जब थोड़ी-सी प्यास और पसीना फेंटकर,
प्रयोगशालाओं में जन्म लेंगी कविताएं...
जैविक कूड़ा समझकर उड़ेल दिया जाएगा अकेलापन...
सूख चुके समुद्रों में....
लगातार युद्धों से थक चुके होंगे योद्धा...
खून का रंग उतना ही परिचित होगा,
जितनी मां....
चांद पर मिलेंगे ज़मीन के मुआवज़े
और कहीं नहीं होगा आकाश...
इतिहास ऊब चुका होगा बेईमान किस्सों से,
तब बड़े चाव से लिखी जाएंगी बेवकूफियां..
कि कैसे हम चौंके थे, बिना प्रलय के...
जब पहली बार हमने चखा था चुंबन का स्वाद...
या फिर भूख लगने पर बांट लिए थे शरीर....
प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं
जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
और उदास रौशनी का
जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
और बीच में हैं फ्लाईओवर.....
हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...
और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...
इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...
आप कह सकते हैं शर्तियां...
मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...
जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...
हमें ठीक तरह से याद है....
आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'
चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,
जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में
नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,
ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...
काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,
जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...
जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
दुम ज़रूरी है....
और प्यार करने के लिए कंडोम.....
फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...
कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...
ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
हे राम ! कहने की आज़ादी हो....
इतना तबाह कर कि तुझे भी यक़ीं न हो,
इक था भरम के वास्ते, वो दोस्त भी न हो....
महफिल से वो गया तो सभी रौनकें गईं..
ऐसा न हो वो आए, मगर ज़िंदगी न हो
ठिठुरे हैं जो नसीब, उनका अलाव बन...
सूरज ही क्या कि सबके लिए रौशनी न हो
मेरी ही नज़र छीन ले, कोई शख्स क्यूं गिरे...
मौला तेरे किरदार में कोई कमी न हो...
तौबा कभी न चांद पर, हरगिज़ करेंगे इश्क
उतरे कहीं खुमार, तो पग भर ज़मीं न हो...
साए थे, शोर था बहुत, इतना सुन सका...
कंक्रीट के जंगल में कोई आदमी न हो...
मंज़िल मिली तो कह गए, बाक़ी है कुछ सफ़र
वो उम्र क्या कि उम्र भर आवारगी न हो
ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक
रोने के वक्त हंसने की बेचारगी न हो...
किसी धर्मग्रंथ या शोध में लिखा तो नहीं,
मगर सच है...
प्यार जितनी बार किया जाए,
चांद, तितली और प्रेमिकाओं का मुंह टेढ़ा कर देता है..
एक दर्शन हर बार बेवकूफी पर जाकर खत्म होता है...
आप पाव भर हरी सब्ज़ी खरीदते हैं
और सोचते हैं, सारी दुनिया हरी है....
चार किताबें खरीदकर कूड़ा भरते हैं दिमाग में,
और बुद्धिजीवियों में गिनती चाहते हैं...
आपको आसपास तक देखने का शऊर नहीं,
और देखिए, ये कोहरे की गलती नहीं...
ये गहरी साज़िशों का युग है जनाब...
आप जिन मैकडोनाल्डों में खा रहे होते हैं....
प्रेमिकाओं के साथ चपड़-चपड़....
उसी का स्टाफ कल भागकर आया है गांव से,
उसके पिता को पुलिस ने गोली मार दी,
और मां को उठाकर ले गए..
आप हालचाल नहीं, कॉफी के दाम पूछते हैं उससे...
आप वास्तु या वर्ग के हिसाब से,
बंगले और कार बुक करते हैं...
और समझते हैं ज़िंदगी हनीमून है..
दरअसल, हम यातना शिविरों में जी रहे हैं,
जहां नियति में सिर्फ मौत लिखी है...
या थूक चाटने वाली ज़िंदगी.....
आप विचारधारा की बात करते हैं....
हमें संस्कारों और सरकारों ने ऐसे टी-प्वाइंट पर छोड़ दिया है,
कि हम शर्तिया या तो बायें खेमे की तरफ मुड़ेंगे,
या तो मजबूरी में दाएं की तरफ..
पीछे मुड़ना या सीधे चलना सबसे बड़ा अपराध है...
जब युद्ध होगा, तब सबसे सुरक्षित होंगे पागल यानी कवि...
मां, तुम मेरा गला घोंट देना
अगर प्यास से मरने लगूं
और पानी कहीं न हो...
जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....
अभी वक्त की मारामारी है, कुछ सपनों की लाचारी है,
जगती आंखों के सपने हैं...राशन, पानी के, कुर्सी के...
पल कहां हैं मातमपुर्सी के....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....
अभी वक्त पे काई जमी हुई, अपनों में लड़ाई जमी हुई,
पानी तो नहीं पर प्यास बहुत, ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,
इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....
उम्र का क्या है, बढ़नी है, चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...
घर में मां अकेली पड़नी है, बाबूजी का क़द घटना है,
सोचूं तो कलेजा फटना है, इक दिन टूटेगा......
उसने हद तक गद्दारी की, हमने भी बेहद यारी की,
हंस-हंस कर पीछे वार किया, हम हाथ थाम कर चलते रहे,
जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...
जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ, सर्वस्व समर्पण करते रहे,
तुम मोल समझ पाए ही नहीं, ख़ामोश इबादत जारी है,
हर सांस में याद तुम्हारी है...इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...
अभी और बदलना है ख़ुद को, दुनिया में बने रहने के लिए,
अभी जड़ तक खोदी जानी है, पहचान न बचने पाए कहीं,
आईना सच न दिखाए कहीं! जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....
अभी रोज़ चिता में जलना है, सब उम्र हवाले करनी है,
चकमक बाज़ार के सेठों को, नज़रों से टटोला जाना है,
सिक्कों में तोला जाना है...इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....
इक दिन नीले आकाश तले, हम घंटों साथ बिताएंगे,
बचपन की सूनी गलियों में, हम मीलों चलते जाएंगे,
अभी वक्त की खिल्ली सहने दे... जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..
मां की पथरायी आंखों में, इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,
मेरे आने की आस लिए..उस उम्र का हर पल बोलेगा....
टूटे चावल को चुनती मां, बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,
दिन भर का सारा बोझ उठा, सूना कमरा, सिर धुनती मां....
टूटे ऐनक की लौटेगी रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...
मां तेरे आंचल में सिर रख, मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,
मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....तू चूमेगी, पुचकारेगी,
तू मुझको खूब दुलारेगी...इस झूठी जगमग से रौशन,
उस बोझिल प्यार से भी पावन, जन्नत होगी, आंचल होगा....
मां! कितना सुनहरा कल होगा.....इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....
वहां हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की
वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास
एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...
गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...
एक कटोरी हुआ करती थी,
जो कभी खत्म नहीं होती....
पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...
रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...
कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता
जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन
ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...
एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,
अड़हुल, कनैल और चमेली भी...
दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..
और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....
और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....
भगवान होने में कितना बचपना था...
एक छत हुआ करती थी, जहां से दिखते थे,
हरे-उजले रंग में पुते, चारा घोटाले वाले मकान...
जहां घाम में बालों से, दीदी निकालती थी ढील....
जूं नहीं ढील, धूप नहीं घाम....
और सूखता था कोने में पड़ा...
अचार का बोइयाम...
एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,
ज़िल्द वाली किताबों में...
मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...
और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....
छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,
छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...
आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....
वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई, और उसका रंग भी काला है...
इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,
मगर पिता बूढ़े होने लगें,
तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....
क्या ऐसा नहीं हो सकता,
कि हम रोते रहें रात भर
और चांद आंसूओं में बह जाए,
नाव हो जाए, कागज़ की...
एक सपना जिसमें गांव हो,
गांव की सबसे अकेली औरत
पीती हो बीड़ी, प्रेमिका हो जाए....
मेरे हाथ इतने लंबे हों कि,
बुझा सकूं सूरज पल भर के लिए,
और मां जिस कोने में रखती थी अचार...
वहां पहुंचे, स्वाद हो जाएं....
गर्म तवे पर रोटियों की जगह पके,
महान होते बुद्धिजीवियों से सामना होने का डर
जलता रहे, जल जाए समय
हम बेवकूफ घोषित हो जाएं...
एक मौसम खुले बांहों में,
और छोड़ जाए इंद्रधनुष....
दर्द के सात रंग,
नज़्म हो जाए...
लड़कियां बारिश हो जाएं...
चांद हो जाएं, गुलकंद हो जाएं,
नरम अल्फाज़ हो जाएं....
और मीठे सपने....
लड़के सिर्फ जंगली....
जब रात से निचोड़ लिए जाएंगे अंधेरे
और उगने लगेगा सूरज दोनों तरफ से..
जिन पेड़ों को तुम देखते हो रोमांस से,
उन्हें देखना सौभाग्य समझा जाएगा...
मिटा दिए जाएंगे रेगिस्तानों से पदचिह्न
और बाक़ी रहेंगे सिर्फ रुपये जैसे सरकारी निशान...
वर्जित क्षेत्रों में पूजे जाने के लिए....
इतना नीरस होगा समय कि,
दम घोंटकर कई बार मरना चाहेगी दुनिया...
समर्थ लोगों की बेबस दुनिया....
जब थोड़ी-सी प्यास और पसीना फेंटकर,
प्रयोगशालाओं में जन्म लेंगी कविताएं...
जैविक कूड़ा समझकर उड़ेल दिया जाएगा अकेलापन...
सूख चुके समुद्रों में....
लगातार युद्धों से थक चुके होंगे योद्धा...
खून का रंग उतना ही परिचित होगा,
जितनी मां....
चांद पर मिलेंगे ज़मीन के मुआवज़े
और कहीं नहीं होगा आकाश...
इतिहास ऊब चुका होगा बेईमान किस्सों से,
तब बड़े चाव से लिखी जाएंगी बेवकूफियां..
कि कैसे हम चौंके थे, बिना प्रलय के...
जब पहली बार हमने चखा था चुंबन का स्वाद...
या फिर भूख लगने पर बांट लिए थे शरीर....
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