इस बार कुछ उम्मीद से मैं अपने घर गया...
वीरान चेहरे देखकर, चेहरा उतर गया..
बाबूजी थे खामोश, मां अजनबी लगी,
हर एक पल में सच कहूं, सौ बार मर गया...
ज़ख्मों को देख और भी नमकीन हुए लोग,
ऐ ज़िंदगी, मैं तेरे तिलिस्मों से डर गया..
ये पीठ थी, रक़ीब के खंजर के वास्ते
शुक्रिया ऐ दोस्त, ये अहसान कर गया...
सब झूठ है कि रूह को देता है सुकूं इश्क,
मैं जिस्म तक गया, वो तल्खी से भर गया....
सर्दी पड़ी, अमीरी रज़ाई में छिप गई...
फिर मौत का इल्ज़ाम ग़रीबी के सर गया...
निखिल आनंद गिरि
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ये पोस्ट कुछ ख़ास है
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सर्दी पड़ी, अमीरी रज़ाई में छिप गई.
जवाब देंहटाएंफिर मौत का इल्ज़ाम ग़रीबी के सर गया
बांकी तो ठीक, लेकिन यह सरोकारी बात जाती नहीं...
बाबूजी थे खामोश, मां अजनबी लगी,
जवाब देंहटाएंहर एक पल में सच कहूं, सौ बार मर गया...
सशक्त रचना।
ऐ ज़िंदगी, मैं तेरे तिलिस्मों से डर गया..
जवाब देंहटाएंsach bhaut darati hai ye dilfaink dilfareb jindagi
निखिल शेर तो सब बढ़िया हैं पर शायद बाहर का ख्याल नहीं रख पाए. और तीसरा शेर स्पष्ट नहीं है मुझे.
जवाब देंहटाएंबहर की तो समस्या है ही प्रेम अंकल,आप थोड़ा कस दीजिए शेरों को...अच्छा रहेगा...तीसरा शेर इतना मुश्किल तो नहीं लग रहा मुझे...
जवाब देंहटाएंबाबूजी थे खामोश, मां अजनबी लगी,
जवाब देंहटाएंहर एक पल में सच कहूं, सौ बार मर गया...
mujhe to ye line touching lagi..... aapko padhna achha lagta hai...
aur aap hamare blog par bhi kabhi aaiye!
sheer brilliance
जवाब देंहटाएंRashmiji,zarur aayenge aapke blog par...shukriya neeraj ji ko bhi
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया भाई
जवाब देंहटाएंbhai likha to aapne achha hai lekin pehle do ashaar ko hi aage badha paate to aur bhi achha hota............regards......bob
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