मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह...



तस्वीर में मैं हूं और मेरे बचपन का साथी मेरा बैट....
ज भी उस मकान में रखा मिला,
जहां बचपन का बड़ा हिस्सा गुज़रा.
ऊपर की फोटो ईटीसी मैदान की है, मेरा फेवरेट मैदान
 मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

जहां पहाड़ के ऊपर बसा है एक मंदिर
एक पत्थर को दूध से नहलाती भली-सी लड़की
मैं उसकी कलाई पे हौले से हाथ रखता हूं
और पहुंच जाती है मेरी छुअन पत्थर तक !
मैं मुस्कुराता हूं उस अजनबी लड़की के साथ
जिसने पहुंचाए हैं पत्थर तक मेरे जज़्बात..

जहां पत्थरों से भी ख़ुदा का रिश्ता था...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

वो एक घर जहां पाये की ओट में अब भी
पड़े हैं बैट, विकेट मुद्दतों से, मुरझाए...
सफेद रंग की बूढ़ी-सी झड़ती दीवारें
ज़रा-सा छू भी दूं तो रंग हरा हो जाए
सभी के नाम फ़कत नाम नहीं, रिश्ते थे
दुआ की शक्ल में माथे पे कितने बोसे थे

जहां की छत भी गले लग के रोई बरसों...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

यहां शहर में कोई आदमी नहीं मिलता
वहां गली में कोई अजनबी नहीं मिलता
वो किसी और ही मिट्टी से तराशे गए लोग
ऐसी मिट्टी कि चढ़ता ही नहीं और कोई रंग
वो एक बोली जो मीठी थी बिना समझे भी
जहां बाक़ी है नज़रों में अब तलक ईमान

जहां महफूज़ है रूह मेरी बरसों से...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

(हाल ही में रांची से लौटकर लिखी गई नज़्म......)

14 टिप्‍पणियां:

  1. तमाम यादें समेटे हुए से लौटे हो,
    उस शहर से जहां से वाबस्ता
    था तुम्हारा हसीन सा बचपन
    टूटा-फूटा सा मकाँ
    और पत्थरों का शहर
    हाथ में थाम लो तो सिसकियाँ भरता है वो,
    और जब प्यार से सहलाओ
    तो करता है बात.
    उसकी बातों में छिपी नज्में हैं
    तुम जिसे आपबीती कहते हो!
    /
    निखिल बाबू! बहुत खूब!!!

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  2. यादे हमेसा दिल में रहती है......बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........

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  3. अच्छी प्रस्तुति... घर से खूब सारी यादें भर कर लाये हो...

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  4. जहां महफूज़ है रूह मेरी बरसों से...
    मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....
    sabki sachchai yhi hai jo bahr chale gye hain.

    जवाब देंहटाएं
  5. वो एक घर जहां पाये की ओट में अब भी
    पड़े हैं बैट, विकेट मुद्दतों से, मुरझाए...
    सफेद रंग की बूढ़ी-सी झड़ती दीवारें
    ज़रा-सा छू भी दूं तो रंग हरा हो जाए
    सभी के नाम फ़कत नाम नहीं, रिश्ते थे
    दुआ की शक्ल में माथे पे कितने बोसे थे

    जहां की छत भी गले लग के रोई बरसों...
    मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह...

    sundar bhi...
    aur ehsaas bhi...

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  6. खातिर शहर के गाँव ओ घर छोड़ आया हूँ।
    सूनी आँखों का उमरा समंदर छोड़ आया हूँ।
    कहीं मैं याद आया तो सुनो अहले वतन मेरे,
    बुर्ज़ो-मेहराव में दो-दो कबूतर छोड़ आया हूँ॥

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  7. यहां शहर में कोई आदमी नहीं मिलता
    वहां गली में कोई अजनबी नहीं मिलता
    वो किसी और ही मिट्टी से तराशे गए लोग
    ऐसी मिट्टी कि चढ़ता ही नहीं और कोई रंग
    वो एक बोली जो मीठी थी बिना समझे भी
    जहां बाक़ी है नज़रों में अब तलक ईमान

    जहां महफूज़ है रूह मेरी बरसों से...
    मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह..

    बहुत खूब ... हर शब्द जैसे दिल की जुबां बन के निकल आया हो ... मन में उतर रही है सीधे सीधे ...

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  8. मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह...

    आपकी कविता मन को दोलायमान कर गई । बहुत सुंदर भाव । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।

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  9. इस नज़्म पर अपनी कविता की दो पंक्तियां समर्पित करता हूं ...
    वर्षों के बाद गया मैं अपने गांव
    करता क्या, आ गया छू कर बड़ों के पांव।

    जवाब देंहटाएं
  10. वाह पुरानी यादो को समेटकर उन्हें खूबसूरती से परिभाषित का खूबसूरत अंदाज़ | सुन्दर भाव |

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  11. वाह पुरानी यादो को समेटकर उन्हें खूबसूरती से परिभाषित का खूबसूरत अंदाज़ | सुन्दर भाव |

    जवाब देंहटाएं
  12. यहां शहर में कोई आदमी नहीं मिलता
    वहां गली में कोई अजनबी नहीं मिलता


    isse zyada ehsas-e-sukhan zindgi ko aur kya hoga
    ki galiyan zinda hain... shehar ajnabi ho gaye...

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